अजय बोकिल
देश की राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद में दिन-दहाड़े पत्रकार विक्रम जोशी की बेखौफ हत्या इस बात का प्रमाण है कि अभिव्यक्ति की आजादी तो दूर पुलिस में जायज शिकायत करना भी किसी की जान लेने के लिए काफी है। विक्रम जोशी स्थानीय दैनिक ‘जन सागर टुडे’ के लिए काम करते थे। कुछ दिन पहले उन्होंने अपनी भांजी को सरेआम छेड़ने वाले बेलगाम शोहदों की शिकायत दो-तीन बार पुलिस में की थी।
जैसा कि होता है, पुलिस ने इस मामले भी ऐसा कोई संदेश देने की कोशिश नहीं की कि वह गुंडों के खिलाफ शिकायतों को लेकर गंभीर है। आखिर में वही हुआ। बेखौफ गुंडों ने बाइक पर अपनी बेटियों के साथ निकले विक्रम जोशी से सरेराह मारपीट कर उन्हें गोली मार दी। सिर्फ इसलिए कि भांजी के साथ छेड़छाड़ के खिलाफ बोलने की उनकी हिम्मत कैसे हुई?
इस निर्मम हत्या का दर्दनाक पहलू यह भी है कि जो बेटियां पिता के साथ घूमने निकली थीं, उन्हें ही अपने बाप की लाश उठानी पड़ी। चीख-चीखकर लोगों को मदद के लिए इकट्ठा करना पड़ा। विक्रम को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन 30 घंटे बाद उन्होंने दम तोड़ दिया। अपने इस साथी पत्रकार की मौत के बाद स्थानीय पत्रकारों ने मीडियाकर्मियों की सुरक्षा की मांग को लेकर धरना दिया। दो पत्रकार संगठनों ने मामले की न्यायिक जांच की मांग की है।
उधर राजनेताओं ने योगी सरकार को आड़े हाथों लिया। चौतरफा दबाव के बाद पुलिस ने सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन आरोपियों को सजा होगी, होगी भी या नहीं या फिर कितनी और कब होगी, इन सवालों के जवाब अभी मिलने बाकी हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक और लचर सुरक्षा तंत्र वाले देश में अभिव्यक्ति की आजादी के झंडाबरदार मीडियाकर्मियों की हत्या नई बात नहीं है। ये सिलसिला सालों से चल रहा है। कारण और समय अलग-अलग हो सकते हैं। इस मामले में किसी भी पार्टी की सरकार का दामन पाक साफ नहीं है।
अगर निकट इतिहास की बात करें तो पत्रकारिता की शोधार्थी गीता साहू और उर्वशी सरकार ने पिछले साल प्रकाशित अपने शोध पत्र ‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ में बताया था कि देश में 2014 से लेकर 2019 के बीच 40 पत्रकारों की हत्या हुई तथा 198 पत्रकारों पर जानलेवा हमले हुए। मारे गए पत्रकारों में से भी 21 तो केवल अपने पत्रकारीय कर्तव्य निर्वहन की वजह से हिंसा का शिकार हुए।
पत्रकारों की इन हत्याओं के पीछे कई कारण हैं। मसलन माफियाओं और दंबगों को बेनकाब करना, वैचारिक विरोध, दबावों के आगे झुकने से इंकार से लेकर नागरिकता संशोधन कानून की मुखालिफत तक शामिल है। कुछ पत्रकार आतंकियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ के दौरान कवरेज करते हुए भी मारे गए हैं।
लेकिन विक्रम जोशी के मामले में तो ऐसा कुछ भी नहीं था। उन्हें तो केवल गुंडों पर लगाम लगाने और पुलिस पर अनावश्यक भरोसे की कीमत जान गंवाकर चुकानी पड़ी। शायद इस मामले में भी पुलिस बदमाशों के हाथों में खेल रही थी। क्योंकि जब यूपी में भ्रष्ट पुलिसकर्मी माफिया की मुखबिरी कर अपने ही साथियों को मरवाने से नहीं चूके तो ये तो केवल छेड़छाड़ की शिकायत का मामला था।
और यूपी ही क्यों, ज्यादातर सभी राज्यों में ऐसे (छुटपुट) मामलों में पुलिस कोई कार्रवाई करना अपने कीमती समय की बर्बादी समझती है। कभी भूले-भटके कार्रवाई हो भी गई तो ‘ऊपर’ से चुप रहने का दबाव आ जाता है। यूं कहने को यूपी पुलिस ने भी कार्रवाई की, लेकिन राजनीतिक दबाव और एक पत्रकार की जान जाने के बाद।
दरअसल पत्रकार विक्रम जोशी की निर्लज्ज हत्या ने यूपी में अपराधियों के सफाए के योगी सरकार के दावों की पोल फिर खोल दी है। इस घटना ने कानपुर के डॉन विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद क्षणिक राहत की सांस को भी बेमानी सिद्ध कर दिया है। हालांकि योगी सरकार ने पत्रकार की मौत के बाद इस मामले में मरहम लगाने की पूरी कोशिश की है।
विक्रम जोशी के परिवार में से किसी एक को सरकारी नौकरी, उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाने का वादा, सरकार की ओर से 10 लाख रुपये का मुआवजा देने की बात कही गई है। पर ये तमाम राहतें भी विक्रम जोशी की मौत का मुआवजा नहीं हो सकतीं। इस घटना से क्षुब्ध प्रेस एसोसिएशन तथा इंडियन वूमंस प्रेस कॉर्प्स ने इस हत्याकांड की न्यायिक जांच की मांग की है।
पत्रकार विक्रम की हत्या किसी निजी दुश्मनी अथवा ब्लैकमेलिंग का नतीजा नहीं थी। उन्होंने एक सजग पत्रकार और एक मामा के दायित्वबोध के चलते पुलिस में शिकायत की थी। सोचने की बात यह है कि जब एक पत्रकार की शिकायत पर भी पुलिस को कार्रवाई करना जरूरी नहीं लगता तो सामान्य आदमी की बात ही करना बेकार है। सवाल यह भी उठता है कि अगर ऐसे मामलों में भी सही समय पर कार्रवाई नहीं हो सकती तो पुलिस आखिर है किस के लिए? विक्रम जोशी के लिए या विकास दुबे के लिए? और अगर लोगों को आत्मरक्षा के भरोसे ही जीना है तो पुलिस महकमे की जरूरत क्या?
विक्रम जोशी की निर्मम हत्या के मामले में अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ आम आदमी की सामाजिक सुरक्षा का सवाल भी नत्थी है। यह सवाल मीडियाकर्मियों के साथ-साथ बेटियों की सुरक्षा से भी जुड़ा है। दुर्भाग्य से दोनों मामलों में पुलिस की भूमिका उतनी ही नकारात्मक है। कहने को पुलिस ने स्थानीय चौकी प्रभारी को निलंबित कर दिया है। लेकिन उससे क्या होना है? मुद्दा तो यह है कि वो नौकरी किस की बजा रहे हैं? आम नागरिक की या माफिया की?
विक्रम जोशी हत्याकांड केवल इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यह भी मीडिया का मुंह बंद करने की असामाजिक तत्वों की चाल है। बल्कि इस मामले में सख्त कार्रवाई की दरकार समाज में पत्रकार की जिम्मेदार भूमिका को गंभीरता से मान्य किए जाने के लिए भी है। क्योंकि विक्रम ने न तो बेंगलुरु की पत्रकार गौरी लंकेश की तरह कट्टर हिंदूवादियों के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ी थी और न ही कश्मीर के शुजात बुखारी की माफिक आतंकियों का विरोध किया था।
विक्रम न तो त्रिपुरा के शांतनु भौमिक की तरह किसी हिंसा समर्थक संगठन के आंदोलन का लाइव कवरेज कर रहे थे और न ही बिहार के राजदेव रंजन की तरह किसी शहाबुद्दीन माफिया तंत्र को बेनकाब कर रहे थे। उनकी किसी से निजी दुश्मनी नहीं थी। वो केवल अपनी भांजी से छेड़छाड़ करने वाले गुंडा तत्वों पर लगाम की गुहार कर रहे थे।
लेकिन उनकी शिकायत पर कोई कार्रवाई करना जरूरी नहीं समझा गया। उलटे आरोपियों ने विक्रम को ही ‘सबक’ सिखा दिया। जाहिर है कि विक्रम की हत्या के लिए पूरा सिस्टम दोषी है। विपक्ष ने यूपी में ‘जंगलराज’ का आरोप लगाया है। लेकिन हमारे देश में यह आरोप सरकारसापेक्ष होता है। जो पार्टी सरकार में होती है, वह अपने राज को ‘मंगलराज’ ही मानती है। यूपी में भी अब ‘राम राज’ लाने की बात हो रही है। राम राज आएगा या नहीं, पता नहीं, लेकिन लोग यही पूछ रहे हैं कि क्या ‘योगी राज’ में विक्रम जोशियों को न्याय मिल सकेगा?