संसद ने तो धारा 370 का अध्याय खत्म कर दिया है लेकिन अब यह मामला संसद के गलियारों से निकल कर सड़कों खासकर कश्मीर घाटी में पहुंच गया है। चूंकि अभी राज्य में धारा 144 लागू है और भारी संख्या में सुरक्षा बल वहां तैनात हैं इसलिए सरकार के फैसले पर स्थानीय लोगों की वास्तविक प्रतिक्रिया जानने को नहीं मिल रही है। पर यह तय है कि सरकार ने संसद में भले ही धारा 370 खत्म करने की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ पास कर ली हो, उसकी असली परीक्षा जम्मू कश्मीर, खासतौर से घाटी के इलाकों में होने वाली है।
जैसीकि आशंका थी भारत के इस फैसले की पाकिस्तान की ओर से बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार ने विरोधस्वरूप भारत से राजनयिक संबंध खत्म करने जैसा कदम उठाया है। उसने न सिर्फ इस्लामाबाद में भारतीय राजदूत अजय बिसारिया को नई दिल्ली लौट जाने को कहा है, बल्कि दोनों देशों के बीच हुई बातचीत और सहमति के बाद भारत में नियुक्त किए गए पाकिस्तानी राजदूत मोइन उल हक को भी कार्यभार संभालने से मना कर दिया है।
पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति ने द्विपक्षीय व्यापार को स्थगित करने का फैसला किया है। खबरें आ रही हैं कि भारतीय फिल्मों के प्रसारण पर रोक लगाने के साथ साथ समझौता एक्सप्रेस को भी रद्द कर दिया गया है। पाकिस्तानी वायुसीमा से होकर जाने वाली भारतीय उड़ानों पर भी कुछ बंदिशें लागू की गई हैं। वहां की सरकार पर वाघा सीमा को भी बंद करने का दबाव बन रहा है। यानी कुल मिलाकर धारा 370 की समाप्ति पर भारत से ज्यादा प्रतिक्रिया पाकिस्तान में हो रही है।
पड़ोसी देश में होने वाली इन प्रतिक्रियाओं में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि पाकिस्तानी संसद ने जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के भारत के फैसले के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में जाने की बात कही है। वहां की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने फैसला किया है कि पाकिस्तान भारत में अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करने का मामला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी उठाएगा।
मोदी सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने जब 5 अगस्त को राज्यसभा में धारा 370 खत्म करने और जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन करने का प्रस्ताव पेश किया था तभी यह साफ हो गया था कि सरकार को इस मसले पर घरेलू और विदेशी दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ना और स्थितियों से निपटना होगा। वैश्विक मोर्चे पर भारत के फैसले का विरोध केवल पाकिस्तान की ओर से ही नहीं आया है, पाकिस्तान के सबसे बड़े खैरख्वाह चीन ने भी इस मामले में चिंता जताई है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नई दिल्ली में चीन के राजदूत याओ जिंग ने भारतीय मीडिया से कहा कि कश्मीर “अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त विवादित क्षेत्र है” और इस क्षेत्र से जुड़ा होने के साथ साथ सुरक्षा परिषद का सदस्य होने के नाते भी चीन की जिम्मेदारी बनती है कि वह क्षेत्र में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करे। बौद्ध बहुल लद्दाख क्षेत्र को स्वतंत्र रूप से केंद्र शासित प्रदेश बनाने के भारत सरकार के फैसले ने भी चीन को चौकन्ना किया है क्योंकि लद्दाख, तिब्बत से सटा हुआ है।
चीन के सतर्क होने या प्रतिक्रिया व्यक्त करने का एक बड़ा कारण गृह मंत्री अमित शाह का संसद में दिया गया वह बयान भी है जिसमें उन्होंने कांग्रेस दल के नेता अधीररंजन चौधरी के पूछने पर छाती ठोक कर कहा था कि पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) भी हमारा है और अक्साई चिन भी। अक्साई चिन जम्मू कश्मीर राज्य का लगभग 15 फीसदी हिस्से वाला वह क्षेत्र है जिस पर चीन का कब्जा है। चीन इसे अपने शिनजियांग उगर इलाके का हिस्सा मानता है।
धारा 370 का प्रस्ताव संसद में पारित होने के बाद चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि- “चीन अपनी पश्चिमी सीमा के इलाक़े को भारत के प्रशासनिक क्षेत्र में शामिल किए जाने का हमेशा से ही विरोध करता रहा है।… हाल ही में भारत ने एकतरफा तरीके से अपना कानून बदल कर चीन की क्षेत्रीय संप्रभुता को कम करने का प्रयास किया है। चीन इस बात को स्वीकार नहीं करता और वह इसके प्रभाव में नहीं आएगा।‘’
यानी 370 पर हुए फैसले को लेकर भारत सरकार को अपने यहां के लोगों को समझाने के साथ-साथ बड़ी विदेशी ताकतों को भी चतुराई से साधना होगा। इन ताकतों में दो महाशक्तियां चीन और अमेरिका शामिल हैं। इनमें भी चीन का रोल इसलिए अहम हो जाता है क्योंकि उसकी न सिर्फ इस क्षेत्र में भौतिक रूप से मौजूदगी है बल्कि वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के कट्टर विरोधी पाकिस्तान के संरक्षक की भूमिका भी निभाता रहा है।
उधर अमेरिका ने भले ही इस मामले में कोई टेढ़ी बात न कही हो लेकिन उसका रुख भारत के साथ सीधा ही रहेगा यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। यहां एक बात का जिक्र करना जरूरी है। जब मोदी सरकार ने धारा 370 को हटाने का फैसला किया तो कई लोगों ने यह सवाल पूछा कि इतने आनन फानन में यह सब क्यों किया गया? रातोंरात सुरक्षा बलों की कई कंपनियां जम्मू कश्मीर में उतारकर और अमरनाथ यात्रा को स्थगित कर संसद से यह निर्णय करवाने की इतनी जल्दी सरकार को क्यों थी?
मुझे लगता है इसके सूत्र पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की जुलाई माह में हुई अमेरिका यात्रा और उस दौरान राष्ट्रपति ट्रंप से हुई उनकी बातचीत में भी ढूंढे जाने चाहिए। खासतौर से दोनों नेताओं की मौजूदगी में 22 जुलाई को दिए गए ट्रंप के उस बयान में, जिसमें ट्रंप ने कश्मीर मामले में मध्यस्थता की पेशकश की थी और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी लपेट लिया था।
हो सकता है भारत सरकार के पास यह पुख्ता सूचनाएं हों कि पाकिस्तान के प्रस्ताव पर अमेरिका या राष्ट्रपति ट्रंप मध्यस्थता मुद्दे को आगे बढ़ाने के मूड में हैं। जैसाकि ट्रंप का स्वभाव है, यदि वे अडि़यल रवैये के साथ इस मामले में कूद ही जाते तो भारत के लिए स्थिति को संभालना मुश्किल हो सकता था। क्योंकि तब सरकार पर कश्मीर में चुनाव कराने का दबाव बनता और यदि कश्मीर में गैर भाजपा सरकार बन जाती और वह कश्मीर की स्थिति को लेकर कोई गैरवाजिब प्रस्ताव पारित कर देती तो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मामला और उलझ सकता था। शायद इसीलिए मोदी सरकार ने आनन फानन में अपने फैसले को अमली जामा पहनाया।