मप्र : उपचुनाव में मुकाबले नीरस

राकेश अचल

अगले महीने होने वाले विधानसभा उप चुनावों के लिए दोनों प्रमुख दलों की ओर से प्रत्याशियों की घोषणा के साथ तस्वीर साफ़ हो गयी है। अधिकांश सीटों पर मुकाबला सीधा होगा, लेकिन फिलहाल कुछ सीटों को छोड़कर मुकाबला नीरस ही नजर आ रहा है, क्योंकि प्रत्याशियों की घोषणा करने में आगे रही कांग्रेस, चुनावी तैयारियों में भाजपा के मुकाबले पिछड़ती नजर आ रही है। भाजपा इन उप चुनावों को लेकर पूरी तरह गंभीर दिखाई दे रही है।

प्रदेश में विधानसभा के उप चुनावों की वजह मार्च 2020 में प्रदेश में हुआ कांग्रेस सरकार का तख्ता पलट है। पहले ये चुनाव मात्र 22 सीटों से कांग्रेस के बागी विधायकों के इस्तीफे देने के कारण होना थे, लेकिन बाद में कांग्रेस के तीन और विधायक पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। तीन अन्य सीटों पर उप चुनाव विधानसभा सदस्यों के आकस्मिक निधन की वजह से हो रहे हैं। भाजपा ने अपने अनुबंध के अनुरूप कांग्रेस छोड़ भाजपा में आये सभी पूर्व विधायकों को दोबारा प्रत्याशी बनाया है, वहीं कांग्रेस ने कुछ सीटों पर भाजपा से आए लोगों को टिकिट देने के साथ नए लोगों पर दांव लगाया है। इनमें सबसे अधिक चौंकाने वाला नाम मेहगांव से पूर्व विधायक हेमंत कटारे का है।

कांग्रेस में टिकिट वितरण को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने फैसले किये हैं। शायद इसी के चलते भाजपा से दोबारा कांग्रेस में आये पूर्व मंत्री चौधरी राकेश सिंह को बहुत कोशिशों के बावजूद मेंहगांव से टिकिट नहीं दिया गया। मेंहगांव से पूर्व में चौधरी के भाई मुकेश सिंह चौधरी विधायक रह चुके हैं। राकेश सिंह का विरोध किसने किया ये सब जानते हैं। इस जिले में कांग्रेस के क्षत्रप पूर्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह हैं। भिंड में गोहद और मेहगांव सीट पर उप चुनाव हो रहा है।

कांग्रेस ने 24 में से 9 ऐसे उम्मीदवारों पर दांव लगाया,  जिनमें 7 भाजपा से आए हैं और 2 बसपा से। कांग्रेस का कहना है कि हमने इन्हें अपने पार्टी सर्वे में जीतने वाले चेहरे पाया है। कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस ने जिन्हें अपने सर्वे में योग्य पाया है,  उन्हें उस क्षेत्र में मतदाता भी योग्य समझें। संभव है कि दल बदलकर चुनाव लड़ने वालों को विरोध का सामना करना पड़े। लेकिन, भाजपा में तो ज्यादातर ऐसे ही उम्मीदवारों की संख्या है। हकीकत में ये चुनाव ऐसे चेहरों के बीच होना है, जो दलबदलू हैं।

आपको याद होगा कि विधानसभा की कुल 230 सीटों में भाजपा के 107 विधायक हैं। जबकि,  कांग्रेस के 88,  चार निर्दलीय,  दो बसपा एवं एक विधायक सपा का है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 28 सीटों में से 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित किए हैं। बसपा ने ग्वालियर-चंबल इलाके के 8 उम्मीदवारों की घोषणा सबसे पहले करके अपनी मौजूदगी का अहसास करा दिया था। लेकिन, उत्तरप्रदेश से बाहर बसपा चुनाव के प्रति गंभीर कभी नहीं लगी। बसपा  हमेशा वोट-काटने वाली पार्टी की तरह मैदान में उतरती है। इस बार भी उसकी मौजूदगी का फायदा सत्तारूढ़ दल को होगा। प्रदेश में 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने दो सीटें जीती थीं। ये दोनों ही विधायक पहले कांग्रेस के साथ थे,  बाद में भाजपा के समर्थन में आ गए।

विधानसभा उपचुनाव में भाजपा पार्टी के नए नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को उसी तरह इस्तेमाल कर रही है जैसा कि विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने किया था। डेढ़ साल पहले मुकाबला महाराज बनाम शिवराज था। अब दोनों एक ही नाव पर सवार हैं। हालांकि विधानसभा की 16  सीटों को जिताने का नैतिक दायित्व सिंधिया के कन्धों पर ही है लेकिन भाजपा ने उन्हें अकेला नहीं छोड़ा है। पूरी पार्टी सिंधिया के साथ उप चुनाव जीतने के लिए कदमताल कर रही है। कांग्रेस से आए पूर्व विधायकों को दोबारा विधायक बनवाने के लिए भाजपा को अपनी पूँजी भी खर्च करना पड़ेगी, क्योंकि अकेले सिंधिया समर्थकों के भरोसा नाव पार लगना आसान काम नहीं है।

विधानसभा उपचुनावों के लिए भाजपा ने एक और जहाँ पूरी तैयारी की है वहीं कांग्रेस की ओर से कोई ख़ास इंतजाम दिखाई नहीं दे रहे हैं। पार्टी के बड़े नेताओं का फिलहाल कुछ अतापता नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के अलावा कोई तीसरा चेहरा नजर नहीं आ रहा। हालांकि कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि पार्टी ऐन मौके पर अपनी टीम मैदान में उतारेगी। फिलहाल कांग्रेस के प्रत्याशी अपने बूते चुनाव मैदान में हैं। कुछ पूरी गंभीरता से चुनाव लड़ रहे हैं तो कुछ रिहर्सल कर रहे हैं। इन उप चुनावों में धनबल बनाम बाहुबल के बीच मुकाबला होना संभावित है। सत्तारूढ़ भाजपा चुनावों की तारीख आने से ठीक पहले सभी चुनाव क्षेत्रों में धनवर्षा के साथ चुनावी घोषणाओं का पिटारा खोल चुकी है। कांग्रेस के पास केवल कार्यकर्ताओं का कथित उत्साह है।

मोटे तौर पर देखा जाये तो भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ पार्टी के आंतरिक असंतोष के अलावा केवल दल-बदल का मुद्दा ही है जबकि कांग्रेस में भितरघात ही एकमात्र चुनौती है। पार्टी ने सिंधिया को ही निशाने पर रखा है। सिंधिया की मुखालफत से विधानसभा उपचुनाव की तस्वीर कितनी प्रभावित होगी, ये अभी से कहना कठिन है, लेकिन ये सच है कि सिंधिया ही कांग्रेस के निशाने पर हैं। इन उपचुनावों में भाजपा का विरोध कम, सिंधिया का विरोध ज्यादा हो रहा है। ये स्वाभाविक विरोध है। विधानसभा चुनावों के नतीजों से सिंधिया और शिवराज का ही भाग्य जुड़ा है। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तो पहले से घायल खिलाड़ी के तौर पर सामने हैं। पार्टी इन उप चुनावों में अपने शीर्ष नेतृत्व का इस्तेमाल   करेगी या नहीं, ये भी अभी साफ़ नहीं है।

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