वनीला आइसक्रीम और ‘हम भारत के लोग!’

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अजय बोकिल

आप कह सकते हैं कि भला वनीला आइसक्रीम भी कोई लिखने का विषय है। हां है, क्योंकि दाम के मामले में ये आजकल पेट्रोल-डीजल से मुकाबला कर रहा है। दरअसल पेट्रोल-डीजल और वनीला आइसक्रीम में समानता ये है कि दोनों ऊर्जा देते हैं और दोनों गरीब की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। भारत ही नहीं अमूमन पूरी दुनिया में ‘गरीब की आइस्क्रीम’ समझे जाने वाले वनीला फ्लेवर का टोटा पड़ गया है। क्यों‍कि जिस वनस्पति से यह फ्लेवर बनता है, उसका भाव 40 हजार रुपये किलो तक जा पहुंचा है। यानी अपने देश में चांदी के रेट से कुछ कम।

यही हाल रहा तो वनीला चांदी से भी आगे जा सकता है और इस जानलेवा गर्मी में कलेजे को ठंडक पहुंचाने वाली वनीला आइसक्रीम कल को अमीरों के चोचलों में शामिल हो सकती है। इधर आइसक्रीम बनाने वाली कंपनियां परेशान हैं। एक नामी ब्रिटिश कंपनी ने तो वनीला आइसक्रीम बनाना ही बंद कर दिया  है। भारतीय कंपनियां भी पसोपेश में हैं कि क्या करें। क्योंकि आजकल फेमिली गेट-टुगेदर से लेकर मैरेज पार्टियों तक में आइसक्रीम के नाम पर ज्यादातर वनीला की ही डिमांड होती है। मारुति की गाडि़यों की तरह सस्ती, सुंदर और टिकाऊ। तंग जेब वाले तो इसी को ‘असली’ आइसक्रीम मानकर खाते हैं।

दरअसल भारतीय खाद्य संस्कृति में आइसक्रीम ने इतनी मजबूत जगह बना ली है कि इसका कोई तोड़ है ही नहीं। चार महीने सर्दियों के छोड़ दें तो बाकी आठ महीने या तो गर्मी रहती है या फिर आर्द्र मौसम। आइसक्रीम के लिए यह माफिक माहौल होता है। यूं इसका देसी संस्करण मटका कुल्फी के रूप में मौजूद है, लेकिन आइसक्रीम का साम्राज्य उससे कई गुना बड़ा है और आज तक किसी ने इसके ‘अ-राष्ट्रीय’ होने पर कोई उंगली नहीं उठाई।

आइसक्रीम में भी खासकर वनीला के स्वाद वाली आइसक्रीम उसी तरह लोकप्रिय है, जैसे कि लड्डुओं में बेसन के लड्डू। यह फ्लेवर नामी पार्लर से लेकर ठेला गाडि़यों पर भी मिल जाता है। यूं वनीला का इस्तेमाल मिठाइयों, शराब और परफ्यूम में भी होता है। आजकल सिंथेटिक वनीला भी मिलता है, लेकिन वह आर्टिफिशियल ज्वेलरी जैसा है। असली सोने वाली बात उसमें नहीं। वैसे भारत में अमूल कंपनी का दावा है कि वह असली वनीला ही अपने आइसक्रीम में इस्तेमाल करती है। इसके लिए वह केरल में वनीला की खेती भी कराती है।

‘वनीला’ दरअसल एक आर्किड पौधा है, जिसका वानस्पतिक नाम वनीला ताहितेंसिस है। यह एक मसाला वनस्पति है, जिसकी खुशबू से वनीला तैयार होता है। इसकी खेती अफ्रीकी महाद्वीप के मेडागास्कर और मेक्सिको में सबसे ज्यादा होती है। इसे उष्णकटिबंधीय जलवायु चाहिए। दुनिया के कुल वनीला का 75 फीसदी केवल मेडागास्कर में होता है। थोड़ी बहुत पैदावार भारत और युगांडा में भी होती है।

वनीला के फल में छिपे बीज से वनीला अर्क निकाला जाता है। इसकी लंबी प्रक्रिया है। दुनिया में केसर के बाद यह दूसरी सबसे महंगी फसल मानी जाती है। दो साल में इसके दाम पांच सौ गुना बढ़ चुके हैं। जाहिर है कि जब वनीला ही इतना महंगा है तो उससे बनी आइसक्रीम भी महंगी ही होगी। इसके भाव बढ़ने के पीछे ताजा कारण यह है कि दो माह पहले आए भारी तूफान से मेडागास्कर में वनीला की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई थी।

हम भारतीयों की चिंता का विषय यह है कि एक तो आइसक्रीम हमारे मुंह लग चुकी है और दूसरे इसका सबसे सस्ता फ्लेवर आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। जबकि आइसक्रीम बाजार के विशेषज्ञों का मानना है ‍कि भारत में आइसक्रीम का कारोबार 13 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है और 2021 तक हम दुनिया में सबसे ज्यादा आइसक्रीम खाने वाले लोग होंगे। हालांकि प्रति व्यक्ति आइसक्रीम खपत में हम अभी भी चीन और अमेरिका से पीछे हैं।

पिछले साल ही हमारा आइसक्रीम उद्योग डेढ़ अरब अमेरिकी डॉलर का हो चुका था। आज भारत में आइसक्रीम बनाने वाले 6 बड़े नेशनल ब्रांड हैं और करीब 8 हजार आइसक्रीम फैक्टरियां हैं। भारत जैसे समृद्ध पाक शास्त्र और विविधतापूर्ण खाद्य संस्कृति वाले देश में आइसक्रीम की भूमिका यकीनन देश को एकीकृत करने वाली है। फ्लेवर कोई सा भी हो, वह होती आइसक्रीम ही है। हमारी बदलती खाद्य आदतों और पश्चिम के अंधानुकरण ने भी आइसक्रीम को हमारे अनिवार्य व्यंजनों में शामिल कर दिया है। एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2017 में हम भारतीय 65 अरब लीटर से ज्यादा आइसक्रीम डकार गए।

लोकप्रियता का यह मंजर होने के बाद भी आइसक्रीम को आज भी मोटे तौर बच्चों या युवाओं की पसंद ही माना जाता है। साहित्य में भी किसी ने आइसक्रीम को गंभीरता से लिया हो, याद नहीं पड़ता। अलबत्ता आइसक्रीम को लेकर शिशु गीत जरूर लिखे गए हैं, लेकिन जो चीज मुंह में स्वाद और कलेजे में ठंडक घोलती हो, जिसके बगैर कोई मंगल कार्य अब अधूरा लगता हो, उसमें किसी ने रचनात्मक तत्व खोजने की जहमत नहीं उठाई। यह सोचने की बात है। वरना आइसक्रीम पहले भी आइसक्रीम थी, अब भी आइसक्रीम ही है।

यहां सवाल यह है कि क्या वनीला फ्लेवर महंगा होने से हम भारतीय आइसक्रीम खाना बंद कर देंगे या फिर दूसरे फ्लेवर में स्वाद तलाशेंगे? इसमें ऑप्‍शन हैं तो, लेकिन उतने ही सीमित हैं, जितने कि बारात में होने वाले ‘नागिन डांस’ में होते हैं। यहां आइसक्रीम खाने से मुराद इतनी है कि मुंह धोने के बाद भी ठंडक भरी तरल मिठास देर तक घुलती रहे। इसके कैलोरीय दोष पर कोई नहीं जाता।

गौरतलब है कि आइसक्रीम की अपार लोकप्रियता के बावजूद किसी राजनीतिक दल या राज नेता ने इसमें वोटों के फ्लेवर की तलाश नहीं की है। वरना आइसक्रीम को देसी-विदेशी और देशभक्त और देशद्रोही में बांटना बेहद आसान है, क्योंकि इसकी तो पूरी रेसिपी ही विदेशी है। वनीला सोने सा होता जा रहा है, यह बात पता नहीं परम पूज्य कारोबारी बाबा रामदेव के कानों तक पहुंची है या नहीं। अगर पहुंची हो तो आश्चर्य नहीं कि हमें जल्द ही बाबा का कोई ‘स्वास्थ्यवर्द्धक राष्ट्रीय आइसक्रीम ब्रांड’ लांच होने की खबर सुनने को मिले, क्योंकि इस धंधे में जितना पोटेंशियल है, उतना तो दवाओं के कारोबार में भी नहीं है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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