राकेश दीवान
ख्यात समाजशास्त्री डॉ. अमिता बावीस्कर की अभी, इसी साल प्रकाशित किताब ‘अनसिविल सिटी’ को पढते हुए एक और सत्यकथा याद आती रही। ‘कोविड-19’ के दौर में और भी प्रासंगिक हुए बावीस्कर के गहरे शोध की मार्फत पता चलता है कि देश की राजधानी दिल्ली आम गरीबों, मजदूरों के प्रति कितनी बेरहम, असभ्य और बे-परवाह है और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर होने वाले तमाम धतकरम किस तरह अंतत: झुग्गी-वासियों का संकट ही बढाते हैं। किताब की इस पृष्ठभूमि में याद आने वाले लुहारिया भाई की कथा बावीस्कर की स्थापना में अलग-सा कुछ जोडती दिखाई देती है।
लुहारिया भाई ‘सरदार सरोवर परियोजना’ की डूब से प्रभावित मध्यप्रदेश के, नर्मदा किनारे के पहले गांव जलसिंधी के हैं, उसी जलसिंधी के जहां के बाबा महारिया ने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह उर्फ दिग्गी राजा को चर्चित चिट्ठी लिखकर (असल में बोलकर, क्योंकि वे लिख-पढ नहीं सकते) विकास की जैविक परिभाषा समझाने की कोशिश की थी। बाबा महारिया के गांव के लुहारिया भाई खुद भी कोई कम प्रसिद्ध नहीं हैं। पत्रकार पी. साईनाथ की किताब ‘एवरीबॅडी लव्स ए गुड ड्राउट’ की पहली कहानी ‘द हाउस दैट लुहारिया बिल्ट’ उनके बारे में ही लिखी गई है।
ये ही लुहारिया भाई 1989 में, तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के घर के सामने ‘गोल मेथी चौक’ पर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के दस दिन के एक धरने के सिलसिले में गए थे और नित्यकर्म, लघुशंका जैसी किसी गफलत के चलते गायब हो गए थे। यह ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का शुरुआती समय था और ऐसे में देश की राजधानी में दिए गए पहले ही धरने में किसी ऐसे आदिवासी साथी का गायब हो जाना डरावना था, जिसे अपनी भिलाली-पावरी के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं आती थी और जो पहले कभी अपनी ‘मोटली माई’ नर्मदा को छोडकर कहीं बाहर नहीं गया था।
जाहिर है, लुहारिया भाई को खोजने में दिल्ली के सभी संगी-साथियों ने बडी निष्ठा से गली-गली छानी। अव्वल तो लुहारिया का कोई फोटो नहीं था जिसे दिखाकर राहगीरों से इस अजीब-सी शख्सियत के बारे में पूछा जाता। उसे पाने के लिए ‘जनसत्ता‘ के तत्कालीन प्रधान संपादक प्रभाष जोशी और ‘नव भारत टाइम्स’ के तत्कालीन प्रधान संपादक राजेन्द्र माथुर से निवेदन किया गया। पुराने परिचित और आंदोलन को समझने वाले संपादक-द्वय ने कृपा-पूर्वक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की विशाल फोटो-लाइब्रेरियां खुलवा दीं और वहां से प्राप्त एक मिलती-जुलती फोटो के आधार पर एक कलाकार ने लुहारिया की फोटो भी बना दी।
इस फोटो के आधार पर रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, अस्पतालों, मुरदाघरों, यहां तक कि चकलाघरों तक में लुहारिया खोजे जाने लगे। आदिवासी आंदोलनकारियों ने ‘इंडिया गेट’ पर आधी रात को ‘गायणा’ गाकर ‘देव’ को बुलाया और उससे भी पूछ-ताछ की। वीपी सिंह सरकार में रेलमंत्री जार्ज फर्नांडीज के आंदोलनकारी सहायक असीम रॉय की मदद से चारों तरफ रेलों में सूचनाएं भी भेजी गईं। अंत में करीब हफ्तेभर बाद एक दिन आलीराजपुर से खबर मिली कि लुहारिया सही-सलामत अपने गांव पहुंच गए हैं। सबकी उत्सुकता यह पता करने में थी कि आखिर वे अपने गांव तक कैसे, किनकी मदद लेकर पहुंच पाए?
लघुशंका से फारिग होकर लुहारिया नई दिल्ली के लगभग एक-से दिखने वाले चौराहों को डरते-डराते पार करने के बाद राजधानी का दिल कहे जाने वाले ‘आईटीओ’ (इनकम टैक्स ऑफिस) चौराहे पर पहुंचे। वहां उनकी रोनी सूरत पर तरस खाकर बगल में मजदूरी करते लोगों ने पूछ-ताछ की, लेकिन भाषा की अड़चन के चलते कुछ खास पता नहीं चल सका। अलबत्ता, ये मजदूर लुहारिया को अपने साथ जमना-पार की झुग्गियों में अपने घर ले गए, भोजन कराया, सुलाया और अगले दिन कुछ पैसे देकर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की बस में रवाना कर दिया।
स्टेशन पर एक नई त्रासदी लुहारिया की राह तक रही थी। वहां जिस गाड़ी को खाली-सी देखकर लुहारिया बैठ गए थे वह दरअसल ‘मुद्रिका’ निकली और हर डेढ-दो घंटे में चक्कर लगाकर वापस नई दिल्ली स्टेशन पहुंचने लगी। लुहारिया के लिए यह सब बेहद डरावना था, लेकिन तभी वहां समोसा-कचौरी बेचने में लगे वेंडरों की उन पर नजर पडी। वेंडरों ने इशारों में लुहारिया का संकट समझा और उन्हें वहीं स्टेशन पर खिला-सुलाकर अगले दिन निजामुद्दीन स्टेशन की ओर पैदल रवाना कर दिया। यहां लुहारिया को उस बडोदरा की रेल मिल गई जिसे वे मजदूरी के लिए आते-जाते खूब पहचानते थे। फिर तो रास्ता आसान था और इस तरह वे अपने गांव पहुंच सके।
इस लंबे और कष्ट-साध्य अनुभव के बाद आज यदि लुहारिया से पूछें तो अमिता बावीस्कर की किताब और आम मान्यता के विपरीत, उन्हें दिल्ली सुहानी ही लगती है। आखिर अनजाने मजदूरों का बिना भाषा, बोलचाल को समझे, मदद करना और ठीक-ठाक घर पहुंचा देना कमाल तो है ही। लेकिन ऐसा क्यों हो पाता है? मेहनत-मशक्कत करके लुहारिया से ही उगलवाना चाहें तो उनके लिए यह एक मित्रता, बराबरी की देन है।
यानि अपने मददगारों की जितनी ‘कीमत’ लुहारिया के मन में है, ठीक उतनी ही ‘हैसियत’ ‘आईटीओ’ के मजदूरों और स्टेशन के वेंडरों के मन में लुहारिया की भी है। इसमें दया की बहुत कम भूमिका दिखाई देगी।
प्रवासी मजदूरों की भगदड़ के इस दौर में, जब शहरी मध्यम-वर्ग के ढेरों-ढेर लोग सडक-चौराहों पर उन्हें खाना, पानी और दूसरी सुविधाएं मुहैया करवाने में दिन-रात एक कर रहे हैं, जलसिंधी के लुहारिया का अनुभव काम आ सकता है। बशर्ते शहरी नागरिक हाशिए पर धकेले गए मजदूरों की कीमत पहचान सकें।
मसलन-क्या प्रवासियों की मौजूदा घर-वापसी यात्रा सुगम करने में रात-दिन एक करने वाला शहरी मध्यवर्ग, झुग्गी या ‘मलिन’ बस्तियों में रहने वालों की ‘कीमत’ जानता है? क्या उसे पता है कि अमानवीय परिस्थितियों में रहने वाला यह मानव-समूह, जो आमतौर पर शहर की आबादी का चौथाई और कई बार तिहाई हिस्सा होता है, शहर को चलायमान रखने के लिए कैसा, क्या और कितना श्रम करता है? आजकल की भाषा में कहें तो क्या शहरी मध्य-वर्ग को पता है कि शहर के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में प्रवासी मजदूरों का कितना योगदान है?
आमतौर पर झुग्गी या ‘मलिन’ बस्तियों में रहने वालों पर अपराधी, जरायम-पेशा, गंदे, प्रदूषित आदि के ‘तमगे’ चस्पा होते हैं और ऐसे में जब ‘नगर-सौंदर्यीकरण’ के नाम पर उन्हें जबरन खदेड़ा जाता है, तो सभी उन्हें शहर पर धब्बा मानकर अनदेखा कर देते हैं। कोई नहीं मानता कि झुग्गी-वासियों के दम पर ही उनका शहर चल रहा है। इन दिनों भले ही दया और करुणा के उभार में घर भागते प्रवासी मजदूरों की शहर-दर-शहर पूछ-परख बढ गई हो, लेकिन क्या यही भावना तब भी बरकरार रहेगी जब झुग्गी या मलिन बस्तियों को उजाडा जा रहा होगा? या जब इन बस्तियों पर सरकारी दमन का कहर बरस रहा होगा?
कहा जाता है कि हरेक त्रासदी हमें कुछ-न-कुछ सिखाकर जाती है। क्या ‘कोविड-19’ की यह त्रासदी घर लौटते प्रवासी मजदूरों को लेकर बनी हमारी राय में बदलाव कर पाएगी? खासकर उनकी, जो बेहद तकलीफों के साथ दिन-रात प्रवासी मजदूरों की सेवा-सहायता में लगे हैं या जो इस बड़े काम में हाथ बंटा रहे हैं?!
(लेखक नर्मदा आंदोलन सहित अनेक सामाजिक आंदोलनों से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं।)
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