मध्यप्रदेश के उपचुनाव में जो खोना है, भाजपा ही खोएगी!

हेमंत पाल

जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने विद्रोह करके कमलनाथ की सरकार गिराई थी, तब और आज की स्थिति में बहुत अंतर आ गया है। भाजपा और कांग्रेस दोनों में इस बदलाव को महसूस किया जा सकता है। मार्च में जब शिवराज सिंह ने सरकार बनाई थी, तब वे और पूरी भाजपा उत्साह से भरी थी, पर आज वो हालात नहीं है। मंत्रिमंडल के गठन के दौरान जो कुछ घटा, उसने भाजपा को विचार-मंथन के लिए मजबूर कर दिया। यही वजह है कि भाजपा में सिंधिया के प्रति अविश्वास बढ़ा और पार्टी ने नए विकल्प पर विचार शुरू कर दिया। इसीलिए सरकार बचाने के लिए नए सिरे से कांग्रेस में तोड़फोड़ शुरू की गई।

कोशिश है कि कांग्रेस के इतने विधायकों को तोड़ दिया जाए कि उपचुनाव में सिंधिया-गुट पर निर्भरता न रहे। क्योंकि, सिंधिया के साथ भाजपा में आए ज्यादातर नेताओं की जीत भी संदिग्ध है। इसलिए कहा जा सकता है, कि उपचुनाव में भाजपा के लिये मुश्किल ज्यादा है। कांग्रेस के पास तो खोने के लिए कुछ नहीं बचा।

प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव को लेकर भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है, उन 22 नेताओं को फिर से चुनाव जिताना जो भाजपा में आए हैं। जब ये घटनाक्रम हुआ, तब लग रहा था कि भाजपा के लिए ये मुश्किल नहीं है। पार्टी हमेशा चुनावी मूड में रहती है, तो इन 22 सीटों को भी निकाल लेगी। लेकिन, जैसे-जैसे वक़्त निकलता गया, माहौल बदलता गया। शिवराज मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद तो परिस्थितियां बहुत बदल गईं। सिंधिया-समर्थकों को मंत्री बनाने और फिर मनपसंद विभाग देने में काफी किच-किच हुई।

इस चक्कर में भाजपा के कई वरिष्ठ विधायकों को मंत्री नहीं बनाया जा सका, तो उनका असंतोष भी सतह पर आ गया। लेकिन, अब वादे मुताबिक इन 22 सीटों पर भाजपा को उन्हें ही उम्मीदवार तो बनाना पड़ेगा। 2018 में हुए विधानसभा  चुनाव लड़कर इन नेताओं से हारे नेताओं की नाराजी तो पहले से ही थी। अब मंत्री न बन पाने से इन असंतुष्ट नेताओं का गुट अलग से बनने लगा है। उपचुनाव की सबसे ज्यादा सीटें ग्वालियर-चंबल इलाके में हैं, इसलिए वहाँ तो असंतोष का पारा काफी ऊपर चढ़ा है। लेकिन, मालवा-निमाड़ में भी सबकुछ ठीक नहीं है। सिंधिया समर्थकों के टूटने के बाद भी भाजपा ने जिन 2 कांग्रेस विधायकों पर झपट्टा मारा है, वहाँ भी गुपचुप नए समीकरण बनने की ख़बरें हैं।

भाजपा के दिल्ली दरबार में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों को ज्यादा महत्व मिलना भी पीड़ा का कारण है। भाजपा में इससे दो ध्रुव पनपने लगे हैं। जबकि, पार्टी ने इन असंतुष्टों को ये समझाने की कोशिश भी की कि यदि ये 22 विधायक कांग्रेस से विद्रोह नहीं करते, तो भाजपा की सरकार ही नहीं बन पाती। पर, यह बात भाजपा नेताओं को समझ नहीं आ रही। रीवा के राजेंद्र शुक्ल तो तर्क देते हैं कि विंध्य न होता, तो सिंधिया की मदद भी बेकार थी। आशय ये कि विंध्य से भाजपा को ज्यादा सीटें नहीं मिलती तो सिंधिया-गुट का विद्रोह भी बेअसर था। मंत्रिमंडल विस्तार में इस इलाके की अनदेखी उन्हें रास नहीं आई। यही स्थिति धार जिले के बदनावर से 2018 में चुनाव हार चुके भंवरसिंह शेखावत और हाटपीपल्या में दीपक जोशी की है।

रायसेन जिले की साँची सीट भी गौरीशंकर शेजवार की बपौती बन गई थी। लेकिन, वहाँ से 2018 में उनके बेटे मुदित शेजवार चुनाव हार गए थे। अब उन्हें उपचुनाव में उसी प्रभुराम चौधरी का झंडा उठाना पड़ेगा, जिनसे वो चुनाव हारे हैं। मंत्रिमंडल विस्तार में रायसेन जिले की ही सिलवानी सीट से जीते रामपाल को मौका नहीं दिया जाना भी प्रभुराम चौधरी के लिए परेशानी का कारण बने, तो आश्चर्य नहीं।

गौरीशंकर शेजवार तो कोप भवन में थे ही, अब रामपाल भी उनके साथ हो गए। जबकि, शेजवार और रामपाल के ग्रह कभी आपस में नहीं मिले। लेकिन, बदली परिस्थितियों में दोनों एक ही घर में आ गए। कहा जा सकता है कि नए प्रतिद्वंद्वी की मौजूदगी ने दो विपरीत ग्रहों को भी एक होने पर मजबूर कर दिया। भाजपा नेताओं का दर्द आगर-मालवा और जौरा सीट को छोड़कर हर उस सीट पर हैं, जहाँ उपचुनाव होने वाले हैं। बालाघाट, ग्वालियर-चंबल, महाकौशल, मालवा-निमाड़ और मंदसौर में भी गुस्से का गुबार चरम पर है।

भाजपा नेता भले ही सार्वजनिक रूप से असंतोष न दर्शा रहे हों, पर अंदरखाने ख़बरें बाहर आने से बच भी नहीं पा रहीं। कई क्षेत्रों में उपचुनाव न होने के बावजूद असंतोष गहरा रहा है। बालाघाट के विधायक गौरीशंकर बिसेन को भी मंत्री पद न मिलने का मलाल है। जबलपुर के पाटन क्षेत्र से कई बार चुनाव जीते विधायक अजय विश्नोई को तो मंत्री न बन पाने का दर्द अभी तक साल रहा है। सबसे पहले उन्होंने ही शिवराजसिंह को अपनी पीड़ा लिखकर जाहिर कर दी थी और कुछ बड़ा करने की चेतावनी भी दी।

हाल ही में मरहूम राहत इंदौरी की एक ग़ज़ल की दो लाइन के विश्‍नोई के ट्वीट ने भी काफी बवाल मचाया। बाद में उन्होंने पार्टी के दबाव में ये ट्वीट डिलीट भी किया। उधर, मंदसौर में यशपालसिंह सिसौदिया ने भी अपने नेता को मंत्री पद न मिलने पर नाराजी जाहिर की। लेकिन, लगातार दो बार सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले इंदौर के रमेश मेंदोला खामोश हैं। लेकिन, उनकी इस खामोशी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

इसके अलावा भाजपा नेताओं को ये भी रास नहीं आ रहा कि सिंधिया समर्थक उपचुनाव के लिए अपनी अलग टीम बना रहे हैं। चुनाव लड़ने की उनकी तैयारी भी अलग स्तर पर चल रही है। जबकि, ये सब भाजपा में अमूमन नहीं होता। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं की ये नाराजी स्वाभाविक है। क्योंकि, भाजपा और कांग्रेस की चुनावी रणनीति और चुनाव लड़ने की शैली में अंतर है। ऐसे में उपचुनाव के समय दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में तनातनी होना स्वाभाविक है।

दिखाने के लिए भाजपा भले ही ऐसी संभावनाओं पर लीपापोती करे, पर सच्चाई यही है। ये उपचुनाव सिर्फ पार्टी के निशान को देखकर मुहर लगाने तक सीमित नहीं होंगे। इसमें कई अंतर्विरोध हैं, जो चुनाव के समय पनपेंगे। कुछ मसले तो ऐसे हैं, जिनका शायद भाजपा को भी अहसास नहीं है। ऐसी स्थिति में अनुमान है कि भाजपा 27 में से अधिकांश सीटें खो सकती है। कांग्रेस के पास खोने को कुछ बचा नहीं, इसलिए जो भाजपा के हाथ से फिसलेगा, वही कांग्रेस की झोली में गिरेगा।

भाजपा यदि इस ग़लतफ़हमी में है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के कांग्रेस से टूटने के बाद कांग्रेस ख़त्म हो गई, तो ये उसकी गलती होगी। राजनीति में वैसे भी सारे सूत्र पार्टी के हाथ में नहीं होते। ऐसे मामलों में वोटर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस बार उपचुनाव के नतीजे वोटर का सोच बताने के साथ ये भी तय करेंगे कि उन्हें भाजपा का कमलनाथ सरकार को हाईजैक करना कितना रास आया। सतह पर जो दिखाई दे रहा है, जरूरी नहीं कि वो वास्तव में सही ही हो। उमा भारती जैसे कुछ नेताओं का ये कहना कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस ख़त्म हो गई, सच्चाई से मुँह मोड़ने जैसी बात है।

उमा भारती ने तो सभी सीटों पर भाजपा की जीत का दावा किया है। दरअसल, ये उनका बड़बोलापन है और कुछ नहीं। उनकी तरह जो भी भाजपा नेता क्लीन स्वीप जैसी बात कर रहे हैं, वे सिर्फ खुद को भरमा रहे हैं। उमा भारती ने तो प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के एक पार्टी हो जाने जैसी बात भी की, तो क्या भाजपा नेता के इस नजरिए से ये मान लिया जाए कि कांग्रेस खत्म हो गई। अनुभव दर्शाता है कि राजनीति में ऐसा दंभ मतदाताओं के गले नहीं उतरता।

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