अजय बोकिल
यूं सालाना मेडिकल चेक अप की तरह हिंदी की बात अमूमन हिंदी दिवस पर ही होती है, लेकिन हाल में आई वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (विश्व आर्थिक मंच) की वर्ष 2017 की रिपोर्ट हम हिंदी वालों के लिए इसलिए दिलचस्पी का विषय होनी चाहिए कि इसमें हिंदी को विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं के क्रम में पांचवां स्थान दिया है। मजे की बात यह है कि हिंदी के ठीक नीचे यानी छठे स्थान पर बंगाली है।
यह रिपोर्ट हमारी इस धारणा को खारिज करती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी है। इस लिस्ट में अंग्रेजी का नंबर तीसरा है। पहले नंबर पर मंदारिन चीनी है। दूसरे पर स्पेनिश है। यह रिपोर्ट इस अध्ययन पर आधारित है कि दुनिया में कौन सी भाषा कितने लोगों द्वारा बोली जाती है। इससे उसकी पकड़ का भी पता चलता है।
रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की जिन दस भाषाओं को अव्वल माना गया है, उसका आधार यह है कि उन भाषाओं का सबसे ज्यादा इस्तेमाल दुनिया में कितने लोगों द्वारा किया जाता है। लिस्ट में पहले नंबर पर चीन की आधिकारिक भाषा मंदारिन है, जिसे पूरी दुनिया में 128 करोड़ लोग बोलते हैं। इसमें चीन की लगभग पूरी आबादी शामिल है।
इसके बाद स्पेनिश है, जिसे विश्व के 43.7 करोड़ लोगों ने अपनी पहली भाषा बताया है। तीसरे नंबर पर अंग्रेजी है, जिसे 37.2 करोड़ लोग अपनी पहली भाषा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। हालांकि अंग्रेजी संख्या के हिसाब से पीछे हो, लेकिन वह दुनिया के 106 देशों में बोली या समझी जाती है। फिर अरबी है, जो 29.5 करोड़ की पहली जबान है।
पांचवे नंबर पर अपनी हिंदी है, जिसे 29 करोड़ लोग अपनी पहली भाषा मानते हैं। हिंदी एशिया में बोली जाने वाली भाषाओं में नंबर दो पर है। इसके पश्चात आश्चर्यजनक रूप से बंगाली है, जो 24 करोड़ लोगों की भाषा है। यह भी भारतीय उपमहाद्वीप की अहम भाषा है। फिर पुर्तगाली और रूसी, जापानी आदि का नंबर है। खास बात यह है कि दुनिया की तीन प्रमुख भाषाओं को विश्व की एक तिहाई आबादी यानी 200 करोड़ लोग बोलते हैं।
यह लेंग्वेज डाटा बेस कई और खुलासे करता है। मसलन दूरी दुनिया में कुल 6 हजार भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन इनमें से 2 हजार भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 1 हजार से भी कम है। 3 सौ भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले 100 से लेकर 999 तक हैं। जबकि 114 भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले 10 से भी कम रह गए हैं। अर्थात ये भाषाएं अब विलुप्ति की कगार पर हैं।
भाषाओं का यह वर्गीकरण मुख्यत: इन्हें बोलने वालों की संख्या के आधार पर है। इस हिसाब से हिंदी कितने लोगों द्वारा बोली जाती है, इस पर विवाद हो सकता है। क्योंकि व्यवहार में हिंदी धुर दक्षिण अथवा धुर उत्तर पूर्वी राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे भारत में और प्रकारांतर से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बोली और समझी जाती है। इस हिसाब से हिंदी भाषियों की संख्या चीनी भाषियों के बाद दूसरे नंबर पर आनी चाहिए।
लेकिन हमारे यहां बहुत से लोग जनगणना में अपनी मातृभाषा हिंदी के बजाए उसकी बोलियां जैसे अवधि, भोजपुरी, बुंदेली आदि लिखवाते हैं, इससे संख्या की दृष्टि से हिंदी का वजन कम होता है। यह बात मंदारिन चीनी के साथ शायद नहीं है। क्योंकि चीनी भी कई तरह की होने के बावजूद वे अपनी मातृभाषा अथवा व्यवहार भाषा मंदारिन चीनी को ही मानते हैं।
इस रिपोर्ट से हमे बहुत खुश होना नहीं चाहिए क्योंकि संख्या की दृष्टि से हिंदी भले पांचवे नंबर पर हो, लेकिन विश्व की प्रभावशाली भाषाओं की सूची में उसका नंबर दसवां है। विश्व के जाने-माने बिजनेस स्कूल इनसीड के फैलो काइ.एल.चान ने दुनिया की दस प्रभावशाली भाषाओं की सूची तैयार की है। इसमें अंग्रेजी नंबर वन पर और मंदारिन चीनी दूसरे क्रमांक पर है। इस सूची के लिए जिन मानकों को आधार पर बनाया गया, उनमे सम्बन्धित भाषा की मदद से वैश्विक भ्रमण, अर्थ व्यवस्था में हिस्सेदारी, दूसरों से संवाद स्थापित करने की क्षमता, ज्ञानार्जन और कूटनीति में उसका उपयोग शामिल है।
इस लिहाज से सर्वाधिक प्रभावशाली भाषा अंग्रेजी को माना गया। क्योंकि यह दुनिया के ताकतवर देशों के बीच संवाद की भाषा भी है। इस हिसाब से फ्रेंच का नंबर तीसरा है। हिंदी को केवल ब्रिक्स देशों की भाषाओं में जगह मिली है। यह बात अलग है कि खुद भारत इस हिंदी का अंतराष्ट्रीय स्तर पर उपयोग नहीं के बराबर ही करता है।
यह सवाल पूछा जा सकता है कि इस सूची को बनाने का औचित्य क्या है? क्या इसका महत्व केवल अंग्रेजी का महिमामंडन भर है? इसमें आंशिक सच्चाई हो सकती है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में आर्थिक प्रगति के ज्यादातर केन्द्र वो शहर हैं, जहां अंग्रेजी बोली और समझी जाती है। दुनिया के ऐसे 10 शहरों में से 8 वो हैं, जहां अंग्रेजी ही सम्प्रेषण का प्रमुख माध्यम है। इसके लिए एक शब्द ‘इंग्लिशाइजेशन’ का प्रयोग किया गया है। यह दुधारी तलवार है, जो आर्थिक प्रगति के द्वार तो खोलती है, दूसरी तरफ देसी भाषाओं का गला भी घोंट देती है।
दरअसल ये दोनो रिपोर्टें हिंदी को आईना भी दिखाती हैं। इनका निहितार्थ यह है कि केवल संख्या के आधार पर बोली जाने वाली भाषा की कोई खास वैश्विक हैसियत नहीं होती। उसके साथ जब तक देश की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति, उत्तम सामाजिक स्थिति और ज्ञानार्जन में नए क्षितिजों का स्पर्श और सैनिक क्षमता की धमक जब तक न हो, कोई भाषा वैश्विक असर पैदा नहीं कर सकती। इसका अर्थ यह नहीं कि हम हिंदी को लेकर हताश हों, लेकिन श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्द्धा में शॉर्ट कट नहीं होते।
औसत प्रतिभाओं के भरोसे कोई भाषा विश्व की सिरमौर नहीं हो सकती। हिंदी के नंबर उसे बोले जाने वालों की संख्या के बजाए उससे प्रभावित होने वालों की संख्या से ही बढ़ सकते हैं। यानी भाषा के साथ उसकी चौतरफा दबंगई भी जरूरी है। और इसी में हम सबसे फिसड्डी हैं।
(सुबह सवेरे से साभार)