क्या आप सत्यपालसिंह को जानते हैं?
देश जब कठुआ और उन्नाव जैसे संवेदनशील मुद्दों से लेकर एटीएम खाली हो जाने जैसे जेब से जुड़े मुद्दों में उलझा हो तो ऐसा सवाल बेवकूफी भरा ही माना जाएगा। लेकिन फिर भी मैं चाहता हूं कि आप यदि न जानते हों तो सत्यपालसिंह को जानें…
भले ही इसे आप भारत का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, कि केंद्र में बैठी सरकार में लोग नरेंद्र मोदी के अलावा और किसी को जानते ही नहीं। जबकि सरकारी कागजों पर देश का पूरा मंत्रिमंडल मौजूद है और उन्हीं कागजों पर सत्यपालसिंह को भारत का मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री दर्शाया गया है।
वैसे आमतौर पर ऐसा होता नहीं है, लेकिन कुछ सालों से भारत में यह होने लगा है कि केंद्र सरकार में मंत्री बनने के बावजूद लोग गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। और यह विडंबना ही है कि जो सत्यपालसिंह संभवत: मंत्री बनने से पहले ज्यादा चर्चित थे, वे मंत्री बनने के बाद अनजाने से हो गए हैं।
इससे अच्छे तो वे तब थे जब मुंबई के पुलिस कमिश्नर हुआ करते थे, और सारा देश उन्हें ज्यादा अच्छी तरह जानता था। और उस घटना के बाद तो लोग उन्हें ज्यादा बेहतर तरीके से जान गए थे जब मुंबई में एक फोटो जर्नलिस्ट के साथ हुए गैंग रेप के बाद उन्होंने बयान दिया था कि एक ओर तो हम ‘यौन स्वतंत्रता’ चाहते हैं और दूसरी ओर हमें सुरक्षित और सकुशल वातावरण भी चाहिए।
इन्हीं सत्यपाल जी की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि बयान देने के मामले में वे मंत्री बनने के बाद भी नहीं बदले। जो तेवर उनके आईपीएस अधिकारी रहने के दौरान थे वैसे ही तेवर भाजपा सांसद और मंत्री बनने के बाद भी बरकरार हैं। जमाना भले ही कुछ कहता रहे, वे अपने मन की कह कर ही रहते हैं।
इस बात को समझने और उसकी ताईद के लिए दो ही उदाहरण पर्याप्त होंगे। पहला उदाहरण इसी साल जनवरी का है जब वे औरंगाबाद में आयोजित अखिल भारतीय वैदिक सम्मेलन में शामिल हुए। वहां उन्होंने चार्ल्स डार्विन के विश्वविख्यात विकासवाद के सिद्धांत (Theory of Evolution) को सिरे से खारिज कर दिया। उनका कहना था कि हमारे पूर्वजों में से किसी ने बंदर को इंसान में तब्दील होते नहीं देखा।
उन्होंने कहा कि डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से सही नहीं है और इसे स्कूल कॉलेज के पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने पर पुनर्विचार होना चाहिए। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे। इंसान जब से इस पृथ्वी पर आया है वह इंसान के रूप में ही आया है।
अपने इस साहसिक बयान के एक महीने बाद ही फरवरी 2018 में सत्यपाल जी ने फिर एक क्रांतिकारी बात कही। उन्होंने केंद्रीय शिक्षण सलाहकार मंडल (CABE) की बैठक में कहा कि न्यूटन से सैकड़ों वर्ष पहले भारत के ऋषियों ने गति के सिद्धांत को मंत्रों में सूत्रबद्ध कर दिया था। इसी बैठक में उन्होंने यह सलाह भी दी थी कि शिक्षा भवनों का निर्माण वास्तुशास्त्र के हिसाब से करना चाहिए, ऐसा करने से छात्रों में सीखने की क्षमता बढ़ेगी।
ये ही सत्यपाल जी आज मुझे इसलिए याद आए क्योंकि हाल ही में मैंने उनका एक और महत्वपूर्ण बयान देखा। दिल्ली विश्वविद्यालय में आंबेडकर जयंती के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि भारत के संविधान और कानून की फिर से व्याख्या करते हुए उन्हें बदला जाना चाहिए।
अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए उनका कहना था कि हमारे यहां 100 रुपए और 100 करोड़ रुपए चुराने वाले को एक जैसा दंड मिलता है। ‘’क्या यह व्यवस्था समाज को न्याय दिला पा रही है? मैं कहता हूं यह नहीं दिला रही, इसलिए कानून में संशोधन किए जाने की जरूरत है।‘’
इस पुलिसियन टर्न पोलिटीशियन के पुराने बयान भले ही कितने विवादास्पद या तर्कहीन रहे हों लेकिन मेरे हिसाब से उनके ताजा बयान में दम है। यह बात बिलकुल सही है कि हमारा कानून भी कई मामलों में असमान और विसंगतिपूर्ण है। एक रोटी चुराने वाले को भी चोरी के जुर्म में सजा मिलती है और एक हीरा चुराने वाले को भी। कानून उस हिसाब से वास्तव में ‘अंधा’ है। वह यह नहीं देखता कि रोटी भूख की मजबूरी में चुराई गई है और हीरा विशुद्ध चोरी की नीयत से।
सत्यपाल सिंह की बात को भारत के वर्तमान सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो वहां भी हमें यह असमानता और विरोधाभास देखने को मिलेगा। जहां अधिकतम अंक लाने पर भी प्रतिभावान युवकों को अवसर नहीं मिलते जबकि न्यूनतम अंक लाने के बावजूद कई लोग अवसर पा जाते हैं।
कानून में कितना बड़ा लोचा है इसे एक और उदाहरण से समझिये। हमारे यहां वैचारिक और सैद्धांतिक असहमति को लेकर प्रदर्शन करने पर भी शांति भंग करने का केस बनता है और गुंडागर्दी अथवा समाज में वैमनस्य फैलाने वाली गतिविधि पर भी। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के कानून में सरकार के किसी फैसले का विरोध करने पर भी आपके खिलाफ उसी कानून के तहत धाराएं लगेंगी जो कानून गुंडों,बदमाशों, चोरों, डकैतों और बलात्कारियों आदि से निपटने के लिए बना है।
देश में वैचारिक या सैद्धांतिक असहमति से निपटने के लिए अलग से कोई मैकेनिज्म ही नहीं है। उससे भी उन्हीं कानूनी प्रावधानों के तहत ही निपटा जाता है जो सामान्य अपराधों के लिए बनाए गए हैं। ऐसे में सत्यपालसिंह का यह बयान सही लगता है हमें अपने कानून में आवश्यक संशोधन करने की सख्त जरूरत है।
अपने पूर्व के बयानों के कारण सत्यपाल भले ही अगंभीर माने जाने लगे हों, लेकिन उनका ताजा बयान वास्तव में गंभीर बहस की मांग करता है। खासतौर से देश में होने वाले वैचारिक और बौद्धिक विमर्श और उसे लेकर पैदा होने वाली सहमतियों/असहमतियों के संदर्भ में…