राकेश अचल

भले ही हम भारतीय पेड़ों को निर्ममता के साथ काटते हों लेकिन हम उन्हें पूजते भी हैं। उन्हें देवता मानते हैं, पितर मानते हैं। कुछ नहीं तो देवताओं और पितरों का घर मानकर तो सम्मानित करते ही हैं, लेकिन हम वृक्षों को अपने उत्सव में सहभागी नहीं बनाते। यह हमारी अज्ञानता भी है और पाखंड भी।

पेड़ को अपनी उत्सवधर्मिता में शामिल करने में मैं अमेरिकियों को आगे पाता हूं। यहां इस समय क्रिसमस की धूम है। बाजार सजधज के साथ कल धन्यवाद ज्ञापन दिवस के लिए तैयार खड़े हैं और साथ में खड़े हैं यहां के पेड़-पौधे। अमेरिका में भारत की तरह पौधों को धार्मिक रूप से सम्मानित किया जाता है।

इन दिनों मैं अमेरिका के शुष्क प्रदेश एरिजोना के फीनिक्स शहर में हूं। यहां जाहिर है हमारे यहां जैसे वटवृक्ष नहीं मिलते। कैक्टस और बबूल मिलते हैं, लेकिन अमेरिकी इन कंटीले पेड़ पौधों को भी किसी नवयौवना की तरह सजाते हैं। बाजारों में इसे लेकर एक अघोषित प्रतिस्पर्धा होती है। प्रायः लोग इस प्राकृतिक सौन्दर्य प्रतियोगिता को देखने सपरिवार बाजार जाते हैं।

क्रिसमस पर त्रिशंकु झाड़ को सजाना शुभ और मंगल दोनों का प्रतीक माना जाता है। जैसे भारत में होली पर एक से बढ़कर एक ऊंची होली सजाई जाती है, उसी तरह अमेरिका में क्रिसमस ट्री को सजाया जाता है। रंग-बिरंगी रोशनी और उपहारों से लदे क्रिसमस ट्री स्वर्गीय पौधे लगते हैं। पेड़ों की सजावट का उत्सवधर्मिता के साथ ही बाजार से सीधा रिश्ता है। लोग सजधज देखने आते हैं तो शापिंग और पेटपूजा भी करते हैं।

दरअसल ‘क्रिसमस वृक्ष’ एक सदाबहार डगलस, बालसम या फर का पौधा होता है जिस पर क्रिसमस के दिन बहुत सजावट की जाती है, ऐसा अनुमान है कि इस प्रथा की शुरुआत प्राचीन काल में मिस्रवासियों, चीनियों या हिबूर लोगों ने की थी, ये लोग इस सदाबहार पेड़ की मालाओं, पुष्पहारों को जीवन की निरंतरता का प्रतीक मानते थे। उनका विश्वास था कि इन पौधों को घरों में सजाने से बुरी आत्माएं दूर रहती हैं, तब से ही पेड़ को सजाने का रिवाज बन गया।

क्रिसमस ट्री के साथ खजूर, बबूल और कैक्टस की हजारों प्रजातियों के पेड़ सजाए जाते हैं। क्रिसमस ट्री का बड़ा हिस्सा चीन से आयात करना पड़ता है। अमेरिका द्वारा आयातित लगभग 85 प्रतिशत कृत्रिम क्रिसमस ट्री चीन से आते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, बीते साल लगभग 94 मिलियन घरों में क्रिसमस ट्री प्रदर्शित किए गए थे। उन पेड़ों में से 85 प्रतिशत कृत्रिम थे। मुश्किल से 15 प्रतिशत पेड़ ही जीवित रह पाते हैं।

कभी-कभी मुझे लगता है कि अमेरिकी पेड़ को भी नारी समझते हैं। जैसे आभूषण हीन नारी नहीं सुहाती वैसे ही यहां पेड़ भी बिना सजावट के अच्छे नहीं लगते। खास बात ये कि इस साज सज्जा के लिए न सरकार कहती हैं न कोई बजरंगी टाइप संगठन। सब स्वेच्छा से होता है। अमेरिका में त्‍योहार से पहले शांति समितियों की बैठकें बुलाने का भी कोई चलन मुझे नजर नहीं आया। प्रशासन का इस सबसे कोई लेना देना नहीं है। राजनीति तो कोसों दूर तक नजर नहीं आती।

बहरहाल यहां प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते में जो गुनगुनाहट है, वो अच्छी लगती है। भारत में ये रिश्ता सनातन होकर भी संकट में है। इन रिश्तों में प्रगाढ़ता ही सुखद भविष्य की गारंटी हो सकती है।
(मध्यमत)
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