देश के लिए यह आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि चोर और चौकीदार अथवा अली और बजरंग बली की उजागर चुनावी चकल्लस के बीच उस मुद्दे पर कहीं कोई बात नहीं हो रही जो देश की राजनीति में सुधार का बुनियादी मुद्दा है। यह मुद्दा लोकतंत्र की जड़ों में लग चुका ऐसा कीड़ा है, जो धीरे धीरे इन जड़ों को खोखला कर रहा है। यह मुद्दा है चुनाव में धनबल के दुरुपयोग का।
इसे आप संयोग ही समझिये कि ऐसे समय में जब शुचिता और नैतिकता से जुड़े सारे मुद्दे दरी के नीचे सरकाए जा रहे हैं वैसे समय में सुप्रीम कोर्ट, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की उस याचिका पर सुनवाई कर रहा है जो चुनावी बांड से जुड़ी है। एडीआर ने इस योजना को चुनौती देते हुए मांग की है कि या तो चुनावी बांड्स जारी करने पर रोक लगे अथवा चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक हों ताकि चुनावी प्रक्रिया में शुचिता बनी रहे।
सरकार के तमाम विरोध के बावजूद शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिया गया यह निर्देश चुनाव सुधार की प्रक्रिया और चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक की दिशा में थोड़ी सी उम्मीद बनाए रखता है कि सभी राजनीतिक दल उन्हें प्राप्त इलेक्टोरल बांड्स की राशि और उनके दानकर्ताओं से संबंधित जानकारी सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को दें।
सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल और मई के महीनों में इलेक्टोरल बांड्स खरीदने की अवधि भी दस दिन से घटाकर पांच दिन करने को कहा है। यही वो समय है जब देश में लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होगा और चुनाव के परिणाम आएंगे। इस लिहाज से कोर्ट ने बहुत सही समय पर, सही कदम उठाया है। हालांकि कोर्ट ने चुनावी बांड्स को लेकर एडीआर की याचिका पर अंतिम फैसला सुनाने से पहले कुछ और पहलुओं की स्पष्टता के लिए मामले में और सुनवाई की बात कही है।
कहा नहीं जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में सुनवाई पूरी होने के बाद क्या फैसला करेगा, लेकिन उसके ताजा रुख से यह संकेत तो मिलता ही है कि वह भी एडीआर की इस बात में दम देख रहा है कि चुनावी बांड्स को लेकर और अधिक पारदर्शिता बरते जाने की जरूरत है। एडीआर की बुनियादी शिकायत ही यही है कि इलेक्टोरल बांड्स की वर्तमान व्यवस्था में, गोपनीयता की आड़ में, इस बात को छिपाने की कोशिश हो रही है कि किसने, किस पार्टी को कितना चंदा दिया है।
इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट और एडीआर की भूमिका अपनी जगह है लेकिन इसमें सरकार और साथ-साथ अन्य राजनीतिक दलों का रवैया चौंकाने वाला है। दरअसल मामले की सुनवाई के दौरान सरकार का पक्ष रखते हुए एटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने हैरान कर देने वाली बात कही कि मतदाताओं को ये जानने का अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को पैसे कहां से मिलते हैं।
सरकार की इस दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर इलेक्टोरल बांड चुनावी चंदे की व्यवस्था में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए लाए गए हैं और उसके साथ ही यदि चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रखी जा रही है, तो फिर इसका फायदा ही क्या है? इससे तो चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल को रोकने की सरकार की कोशिश पर ही पानी फिर जाएगा। उधर चुनाव आयोग खुद भी चाहता है कि पारदर्शिता के लिए दानकर्ताओं के नाम सार्वजनिक किए जाने चाहिए।
दरअसल चुनावी चंदे का मामला शुरू से ही विवादास्पद रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इसमें कालेधन का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसके साथ ही चंदा देने वाले लोग या कंपनियां संबंधित पार्टी के सत्ता में आ जाने के बाद उससे अपने चंदे की पूरी कीमत वसूलती हैं या सरकारें भी ऐसे व्यक्तियों अथवा कंपनियों को कई बार नियमों के परे जाकर व्यावसायिक लाभ पहुंचाने में मदद करती हैं।
2017 से पहले यह नियम था कि 20 हजार रुपए से कम चंदा मिलने पर किसी भी राजनीतिक दल को उसका स्रोत बताने की जरूरत नहीं थी। राजनीतिक दलों ने इस नियम का भरपूर दुरुपयोग किया और चंदे में मिले करोड़ों रुपए में से अधिकतर राशि को 20 हजार से कम बताकर चुनाव में कालेधन को जमकर बढ़ावा दिया। हल्ला मचने पर 2017 में सरकार ने गुप्त नकद चंदे की सीमा 20 हजार से घटाकर दो हजार रुपए कर दी थी।
मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में चुनावी बांड शुरू करने की घोषणा की थी। चुनावी बांड एक नोट की तरह होता है जिस पर उसका मूल्य अंकित होता है। ऐसे बांड कोई भी व्यक्ति या संस्था खरीद सकते हैं और इनका इस्तेमाल राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए किया जा सकता है। व्यवस्था यह है कि बांड खरीदने वाले का नाम गोपनीय रखा जाता है। चुनावी बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की राशि में उपलब्ध होते हैं।
प्रश्न यह है कि सरकार की मंशा यदि सचमुच चुनाव में पारदर्शिता लाने की है तो यह बात सार्वजनिक क्यों नहीं होनी चाहिए कि किस व्यक्ति या कंपनी ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया। एटार्नी जनरल का यह कथन ही आपत्तिजनक है कि मतदाताओं को ये जानने का अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को पैसे कहां से मिलते हैं।
उलटे मतदाताओं को तो यह भी जानना जरूरी है कि जिसने आपको चंदा दिया है उसके एवज में आपने उसे कितने गुना फायदा पहुंचाया। विरोध की असली वजह यही है कि यदि चंदा लेने-देने वालों का ब्योरा सामने आ गया तो सरकारें बताएं या न बताएं, घटनाएं ही बता देंगी कि अमुक व्यक्ति या कंपनी को कोई सरकार फेवर कर रही है तो उसके पीछे कौनसी ताकत काम कर रही है।