राकेश दुबे
विरोध करना और सरकार का विरोध करना भारत में आसान नहीं है। सदैव विरोध में रहे मेरे समाजवादी मित्र रघु ठाकुर ने यह बात बताते हुए सरकार के विरोध में किये जाने वाले धरना प्रदर्शन में होने वाली दुशवारियों का जिक्र किया था। यह दुश्वारी अब और गहरा गई है। कहने को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उदारतापूर्वक नागरिकों को “निर्दिष्ट क्षेत्र में” यानी सिर्फ तय जगहों पर ही विरोध करने का अधिकार दिया है।
न्यायालय की टिप्पणी थी कि “असहमति और लोकतंत्र साथ-साथ चलते हैं, लेकिन विरोध निर्दिष्ट क्षेत्र में ही किया जाना चाहिए। विरोध के तौर पर जो धरना प्रदर्शन आदि शुरू हुआ, उससे लोगों को असुविधा का सामना करना पड़ा। कई प्रदर्शन ऐसे भी हुए जिनसे लोगों को असुविधा हुई और कई सिर्फ अनुमति के मकडजाल में फंस कर दम तोड़ गये।‘’
देश में बहुत से नागरिकों को नहीं पता होगा कि निर्दिष्ट क्षेत्र क्या होता है? इसका अर्थ होता है कि शहर के कुछ हिस्सों को प्रदर्शन आदि के लिए तय कर दिया जाता है, जैसे कि दिल्ली में जंतर-मंतर और भोपाल में नीलम पार्क आदि। इन जगहों पर लोगों को एक निश्चित समय के लिए जमा होने की अनुमति होती है और फिर वहां से चले जाना होता है। इन जगहों पर भी प्रदर्शन आदि के लिए नागरिकों को पहले से पुलिस और सरकार आदि से अनुमति लेनी होती है।
यूरोप और अमेरिका में लोगों के छोटे समूह अचानक ही काम की जगहों या कॉरपोरेट दफ्तरों आदि के पास हाथों में प्लेकार्ड लिए जमा होते हैं और नारेबाजी आदि करते हैं। भारत में यह करना गैरकानूनी है। जबकि संविधान का अनुच्छेद 19 कहता है, “सभी नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से बिना हथियारों के एकत्रित होने का अधिकार है।” संविधान कहता है कि लोगों का शांतिपूर्ण तरीके से जमा होना बुनियादी अधिकार है। बुनियादी अधिकार वह होता है जिस पर सरकारी अंकुश नहीं लगाया जा सकता यानी सरकारी जोर जबरदस्ती नहीं थोपी जा सकती।
लेकिन भारतीयों को ऐसा कोई अधिकार नहीं है। हमारे पास बुनियादी अधिकार है कि हम किसी निश्चित जगह पर जमा होने के लिए भी पुलिस की अनुमति के लिए आवेदन करें। पुलिस के पास यह अधिकार है कि वह इस आवेदन को मंजूर करे या खारिज कर दे, या इसका कोई संज्ञान ही न ले। आमतौर पर आखिरी विकल्प ही पुलिस अपनाती है, संभवत: सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों को ये सब पता न हो। लेकिन ऐसा होना शायद संभव नहीं है कि उन्होंने कभी किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा न लिया हो या उनके पास उनमें हिस्सा लेने का कारण न हो।
शायद आपको यह मालूम नहीं हो कि न्यायपालिका ने अनुच्छेद 21 को भी संपादित कर दिया है। इस अनुच्छेद के तहत नागरिकों को जीवन जीने और हर किस्म की स्वतंत्रता का अधिकार मिलता है| अभी कुछ दिन पहले बीबीसी ने इस बात का खुलासा किया था कि किस तरह कश्मीर के उप राज्यपाल ने कहा था कि मीरवाइज़ उमर फारुक को हिरासत में नहीं लिया गया है, जबकि यह साबित हो गया था कि उन्हें हिरासत में लिया गया था। निश्चित ही कश्मीरियों को विरोध का अधिकार नहीं है।
देश के बाकी हिस्सों में विरोध के लिए निर्दिष्ट स्थान सरकारों ने ऐसी जगह को बनाया है जिन्हें आसानी से अनदेखा किया जा सके। ये क्षेत्र शहरों के एकदम केंद्र में है, वहां दर्जनों विरोध प्रदर्शन के बैनर आदि दिख जाएंगे, दिल्ली में तो यहाँ कुछ तो बरसों से जारी हैं। ये लोग किस बात के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, इसकी परवाह तक कोई नहीं कर रहा। सरकार तो बिल्कुल भी नहीं।
सरकार, खासतौर से बुनियादी अधिकारों की मांग के लिए किए जाने वाले प्रदर्शनों को एक गड़बड़ या उपद्रव के रूप में देखती है, जो कागजों पर तो हो जाए लेकिन सरकार के खिलाफ कुछ न हो। बेहद शांतिपूर्ण और गांधीवादी तरीके से किए गए विरोध प्रदर्शन को भी आज का भारत सहन नहीं करता है। इससे ज्यादा आदर्शवादी बात और क्या हो सकती है कि नागरिक गांधीवादी तरीके से विरोध करते हैं, जैसा कि गांधी जी करते थे। इसके लिए भी उसी सरकार से अनुमति लेनी होती है, जिसका विरोध करना है। अनुमति सरकार या उसके कारिंदों की मर्जी से ही मिलती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में क्या माना और क्या आदेश दिया वह राजनीतिक दलों और किसान आंदोलन जैसे ज्यादा संगठित आंदोलनों या जातीय समूहों पर लागू नहीं होता। वे विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं और निर्दिष्ट स्थानों से बाहर भी प्रदर्शन करते हैं, जिसमें बंद और हड़ताल का आह्वान और उसे लागू करवाना, रेल रोको, चक्का जाम आदि शामिल हैं। इन सबको रोकने की क्षमता सरकार के पास है नहीं, इसलिए वह इसे नजरंदाज़ कर देती है। माननीय न्यायाधीश शायद यह चाहते हैं कि छोटे समूह या व्यक्ति अपनी विरोध न दिखाएं क्योंकि इससे उनकी संवेदनाएं और कानून के राज की चिंता को ठेस पहुंचती है।
वैसे तो अवज्ञा ही किसी भी विरोध का असली केंद्र बिंदु होता है। विरोध तभी होता है जब सरकार अपने ही बनाए कानून का पालन नहीं करती है। विरोध तो दरअसल आपत्ति और शिकायत दर्ज कराने का तरीका है। ये तभी होता है जब शिकायतें अनसुनी कर दी जाती हैं। अगर सरकार किसी मामले में सबूत पेश करने की जिम्मेदारी को उलट देती है और चाहती है कि उसकी संतुष्टि के लिए नागरिक ही सबूत पेश करें, तो यह मान लेना तो भूल ही होगी।
एक बात और, देश में कोई भी विरोध प्रदर्शन तब तक प्रभावी नहीं माना जाता जब तक उसका असर न दिखे, अर्थात लोगों को असुविधा न हो आदि। इसके अलावा सरकार को भी इससे झुंझलाहट होनी चाहिए। वैसे तो सरकार इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वह उन मांगों को मान ले जिनके लिए प्रदर्शन किया जा रहा है। और, नागरिकों को विरोध करने और नागरिको के साथ खड़े होने का अधिकार सबको है यह बात सरकार समझे। “विरोध करना नागरिकों का अधिकार है, सरकार की कृपा नहीं”।
(मध्यमत)
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