सुरेंद्रसिंह दांगी
एक बार मैंने अपने गाँव के 5 भाइयों की कहानी आपसे से साझा की थी। जिसमें सबसे छोटे भाई के हक़ में उसके 4 बड़े भाइयों ने अपने हिस्से की जमीन छोड़ दी थी। (श्री नवल सिंह जी एवं श्री देवी सिंह,कुल्हार)। वे चारों भाई आज भी अपने छोटे भाई की मदद करते रहते हैं। आज तीन भाइयों की कहानी प्रस्तुत है। यह मेरे गाँव की तो नहीं है, लेकिन सत्य घटना है।
वे अपने पिता की 3 संतानें थे। बड़े दा, मंझले दा और छोटे दा। उनके पिता के पास कुल 48 बीघा जमीन थी। इसी ज़मीन के बल पर पिता ने तीनों भाइयों को पढ़ाया लिखाया। बड़े और मंझले पढ़ने में होशियार थे। लेकिन छोटे का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता था। वह 11वीं बोर्ड में कई बार फेल होने का रिकार्ड बनाकर खेती में अपने पिता का हाथ बंटाने लगा। दोनों भाई पढ़ लिखकर सरकारी नौकर हो गए। बड़े दा बड़े अफ़सर बन गए और मझले तृतीय श्रेणी कर्मचारी।
आप तो जानते ही हैं कि हमारे देश में सरकारी नौकरी वह कामधेनु है जो मनचाहा वरदान देती है। इसे जितना दुह सको दुहते रहो। अफ़सरी तो वो कल्पवृक्ष है जो आपकी सभी भौतिक मनोकामनाएं पूरी कर सकता है। अफ़सरी तो छोड़िये कुछ विभागों के तो चपरासी तक 100 बीघा के किसान से भी बेहतर जिंदगी जीते हैं।
सो बड़े दा ने अपनी अफ़सरी के कल्पवृक्ष से अकूत सम्पत्ति बनाई। आज वे अपने गाँव के सबसे बड़े आदमी हैं। आधा गाँव उनका कर्जदार है। बड़े शहर में मकान और शहर की सीमा से लगकर कई बीघे जमीन है जिसमें फ़सल तो नहीं उगती लेकिन वर्गफीट के हिसाब से नोट उगते हैं।
मझले दा ने भी नौकरी की कामधेनु को जी भर कर दुहा। अब उनके शहर में दो-दो मकान हैं। जिनका किराया ही 30 हज़ार रुपये महीना आता है। इतनी ही पेंशन भी मिलती है।
छोटे दा खेती करते रहे। इस बीच पिता भी गुज़र गए। अब बड़े दा और मंझले दा की नज़र गाँव की खेती पर गई। उन्होंने भाई से कहा कि छोटे अब हमें बंटवारा कर लेना चाहिये। पंच जुटे। जमीन के तीन बराबर-बराबर हिस्से कर दिए गए। सभी भाइयों के हिस्से में 15-15 बीघा जमीन आई। छोटे दा के हिस्से में माँ भी आई। शेष 3 बीघा जमीन माँ के लिये दी गई। पंचों ने तय किया कि यह जमीन माँ के न रहने पर छोटे दा की हो जाएगी।
बीते साल माँ भी गुज़र गईं। अब बड़े दा और मंझले दा की नज़र उस तीन बीघा जमीन पर गई। वे चाहते थे कि अब माँ नहीं रही सो उस पैतृक जमीन में से 1-1 बीघा जमीन पर उनका हक है और वह उन्हें मिलना चाहिये। उन्हें उस पंचायत का हवाला दिया गया लेकिन वे साफ़ मुकर गए।
इस तीन बीघा जमीन का विवाद लगभग तीन साल तक तीनों भाइयों के बीच चलता रहा। दोनों बड़े भाइयों ने गाँव के कच्चे मकान में भी हिस्सा लेकर उसमें अपने ताले जड़ दिये। गाँव के पंचों ने भी खूब समझाया। लेकिन दोनों बड़े भाई उस एक एक बीघा जमीन के लिये ‘दुर्योधन’हो गए।
बीते साल इन्हीं दिनों छोटे दा का फोन मेरे पास आया। वे मुझ से इस मामले में परामर्श चाहते थे। मुझे तीनों भाइयों का हाल-हवाल मालूम ही था। मैंने कहा कि यदि मैं आपकी जगह होता तो उन दोनों बड़े भाइयों को उनकी मांग ग़लत होते हुए भी 1-1 बीघा जमीन लौटा देता। छोटे दा ने मेरी बात मान कर ऐसा ही किया।
मित्रो, क्या मेरा परामर्श उचित था? यह मात्र एक कहानी नहीं है। गाँव-गाँव, शहर-शहर ऐसे किस्सों की कमी नहीं है। पता नहीं कुछ लोगों की नज़र में धन ही सबकुछ क्यों और कैसे हो जाता है?
(सामग्री लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)