मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रतिपक्ष के दिवंगत नेता सत्यदेव कटारे ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके जाने के बाद उनका अपना विधानसभा क्षेत्र अटेर इस तरह से सुर्खियों में आएगा। कटारे के निधन के बाद भिंड जिले के इस विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हो रहा है और यहां 9 अप्रैल को मतदान होना है।
जाहिर है पूर्व नेता प्रतिपक्ष का विधानसभा क्षेत्र होने के कारण राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस के प्रतिनिधित्व वाली इस सीट पर येन केन कब्जा करना चाहेगी। वैसे तो भाजपा के पास विधायकों की इतनी बड़ी संख्या है कि इस तरह के आठ दस फुटकर उपचुनाव वह हार भी जाए तो भी सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
लेकिन अटेर जैसी सीट की बात हो तो वहां चुनाव का फैसला अलग मायने रखता है। वहां नतीजा हार-जीत की तराजू पर नहीं, प्रतिष्ठा की तराजू पर तौला जाना है। इसलिए भाजपा चाहती है कि वह कांग्रेस से यह प्रतिष्ठित सीट छीनकर अपने मुकुट में एक और मोरपंख खोंसे।
और चूंकि यह मामला प्रतिष्ठा का है इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि पिछले चार पांच दिनों में अटेर में जो घटा है वह भाजपा के लिए किस लिहाज से फायदेमंद है? मीडिया में इन दिनों अटेर की कुछ घटनाएं चर्चित हो रही हैं। और ये घटनाएं कम से कम भाजपा की प्रतिष्ठा को सुर्ख करने वाली तो नहीं ही हैं।
एक ताजा घटना को ही ले लीजिए। आप इस घटना का फलित एक पुराने मुहावरे से समझ सकते हैं। मुहावरा है बिल्ली के भाग से छींका टूटना। लेकिन जरूरी नहीं कि बिल्ली के भाग से हमेशा छींका ही टूटे। बिल्ली की बदनसीबी से छत भी टूटकर उस पर गिर सकती है। भिंड में यही हुआ। राज्य की मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सलीना सिंह, गई तो थीं ईवीएम की नई कार्यप्रणाली का निरीक्षण करने लेकिन वहां छत ही गिर पड़ी।
क्या हुआ, कैसे हुआ, किसी की समझ में नहीं आया। बटन दबा और भाजपा की पर्ची निकल आई। पर्ची क्या निकली विपक्षी दलों की मानो लॉटरी निकल आई। उत्तरप्रदेश के परिणामों ने ईवीएम को लेकर राजनीति का तंदूर पहले ही गरमा रखा है। बस इधर पर्ची निकली और उधर भाई लोग अपनी अपनी रोटियां लेकर पहुंच गए। फिर वही आरोप लगा कि भाजपा ने ईवीएम मशीनों को अपने अनुकूल करवा लिया है, लिहाजा मशीनों के बजाय मतपत्रों के जरिए ही चुनाव करवाया जाए।
शिकायत पहुंची तो चुनाव आयोग हरकत में आया और उसने आनन फानन में भिंड के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक सहित करीब डेढ़ दर्जन अफसरों को वहां से हटाने का फैसला कर लिया। आयोग की कार्रवाई अपनी जगह है, उसे कुछ न कुछ तो करना ही चाहिए था, ताकि निष्पक्ष चुनाव कराने की उसकी साख पर बट्टा न लगे। लेकिन मेरा मानना है कि यह कार्रवाई ईवीएम की गड़बड़ी के कारण कम, सलीनासिंह के बड़बोलेपन के कारण ज्यादा हुई।
दरअसल सलीनासिंह ने ईवीएम की नई व्यवस्था वीवीपीएटी (इसे आप सरल भाषा में मतदाता की पर्ची जैसा कोई नाम दे सकते हैं) देखने के लिए बटन दबाया और जब भाजपा की पर्ची निकली तो संभवत: देश की हवा में ईवीएम के खिलाफ घुल रहे दबाव के कारण, उन्होंने हलके फुलके अंदाज में ही सही, मीडिया से यह कह दिया कि इस खबर को मत छापना वरना आप लोगों को थाने में बिठा देंगे। उनका यह कहना ही मामले के बिगड़ने का कारण बना और बात का बतंगड़ बन गया।
आज के समय में जब संचार के इतने सारे साधन हाथों में झूल रहे हों वहां यह बात न तो छुप सकती थी और न ही दब सकती थी। वही हुआ। सोशल मीडिया ने बात को ऐसा फैलाया कि रायता समेटा ही नहीं जा सका। मैं यह नहीं कहता कि ईवीएम ने ऐसी हरकत क्यों की, इसकी जांच नहीं होनी चाहिए, जांच तो जरूर हो। यदि गड़बड़ पाई जाए तो कार्रवाई भी हो, लेकिन ऐसे अपवादस्वरूप सामने आने वाले प्रसंगों को लेकर देश को फिर से मतपत्रों की व्यवस्था की ओर लौटाने की मांग कुछ जंचती नहीं है।
चुनाव आयोग की वेबसाइट कहती है कि देश में ईवीएम का प्रयोग पहली बार 1998 के चुनाव में किया गया। संयोग से उस समय जिन राज्यों में प्रायोगिक तौर पर इसे आजमाया गया था, उनमें मध्यप्रदेश के पांच विधानसभा क्षेत्र भी शामिल थे। पिछले पंद्रह सालों में देश में ईवीएम के जरिए कई चुनाव हो चुके हैं और उनमें सारे प्रमुख दल हारे भी हैं और जीते भी हैं। इसलिए अपने अनुकूल परिणाम न आने पर मशीन पर दोष थोपना या उस व्यवस्था को ही खारिज करना ठीक नहीं। हां सुधार की बात जरूर हो और बात ही क्यों, जहां आवश्यक है वहां सारे उपाय किए भी जाएं।
रही बात ऐसे मौकों पर अफसरों के व्यवहार की, तो संयम बहुत जरूरी है, मजाक में ही सही ऐसी कोई बात न करें जो पूरी व्यवस्था पर उंगली उठाने का मौका दे। मुझे लगता है चुनाव आयोग ने भिंड के आला अफसरों को हटाने का जो फैसला किया है उसका बड़ा आधार भी खबर छापने पर मीडिया को थाने में बैठा लेने वाला बयान ही रहा होगा। यह बयान सीधे सीधे यह संदेश देता है कि अटेर में प्रशासन भय और दबाव का माहौल बनाकर चुनाव प्रक्रिया की खामियां सामने आने से रोक रहा है। लिहाजा लाजमी था कि आयोग कोई कार्रवाई जरूर करता।
और अभी तो भिंड के अफसरों पर ही गाज गिरी है, खुद मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी भी अपने को सुरक्षित मानकर न चलें, देर सबेर अटेर की आंच उन तक भी पहुंच सकती है…