यह सियासी ड्रामा काफी कुछ 1967 के सीक्वल जैसा है

अजय बोकिल

मध्यप्रदेश में 14 माह पुरानी कमलनाथ सरकार बचेगी या गिरेगी, सरकार को गिराने का भाजपा का यह दांव अंजाम तक पहुंचेगा या महाराष्ट्र की तरह क्लायमेक्स पर इसकी हवा निकल जाएगी, सिंधिया समर्थक विधायक कमलनाथ सरकार के लिए ‘आखिरी कील’ बनेंगे या फिर वो ही बैसाखी साबित होंगे, राज्यपाल के आदेश पर सोमवार को फ्लोसर टेस्ट हो पाएगा अथवा नहीं हो पाया तो इस सियासी ड्रामे का अंत कब और किस रूप में होगा, इन जैसे तमाम सवालों के जवाब यह पूरा प्रदेश और देश दिल थाम के खोज रहा है।

इतना तय है कि मध्यप्रदेश की राजनीति ने ऐसे ‘थ्रिलर’ बहुत कम देखे हैं। गुटबाजियां रंग दिखाती रही हैं, लेकिन इस तरह जंग के मैदान में कम ही तब्दील हुई हैं। इसका एक प्रीक्वल 1967 में हुआ था, जब दल बदल के धोबीपाट दांव से कांग्रेस की सरकार गिरी और कांग्रेस नेता के नेतृत्व में ही दूसरी बनी। हालांकि वैकल्पिक सरकार भी डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चली। क्योंकि रूठे विधायकों की घर वापसी हो गई। लेकिन जहां इसी बहाने प्रदेश में कांग्रेस की अंतर्कलह का पहला महाअध्याय लिखा गया, वहीं (तब) देश के इस सबसे बड़े राज्य में विपक्ष ने अपने पैरों पर खड़े होने की वार्म-अप एक्सरसाइज भी की।

गहराई से देखें तो 1967 के वर्तमान सीक्वल में कई समानताएं हैं। तब भी दो बड़े नेताओं के अहं के टकराव और अदम्य महत्वाकांक्षा के कारण विधानसभा चुनाव में बहुमत से सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी को अपनी सरकार गंवानी पड़ी थी और इस बार भी (अगर अंतिम समय में सब मैनेज न हुआ तो) आसार कुछ ऐसे ही लग रहे हैं। 1967 में अहं का टकराव तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा और विंध्य के कद्दावर नेता गोविंद नारायण सिंह के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर हुआ था। उन दिनों (अविभाजित मध्यप्रदेश का) सदन 296 सदस्यों का हुआ करता था। 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 167 सीटें जीतकर फिर सरकार बनाने की स्थिति में थी। लेकिन मुख्य मंत्री कांग्रेस के ही एक बड़े नेता गो.ना.सिंह बनना चाहते थे। जबकि तत्कालीन सीएम डी.पी.मिश्रा उन्हें केवल मं‍त्री बनाना चाहते थे।

दोनों के बीच कशमकश का नतीजा यह हुआ कि गो.ना.सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी ‘लोक सेवक दल’ बना ली और कांग्रेस के 37 विधायक दलबदल कर उनके साथ हो लिए। तब देश में दलबदल कानून लागू नहीं था। गो.ना.सिंह ने अपनी पार्टी के अलावा तत्कालीन जनसंघ, संयुक्त समाजवादी पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, स्वतंत्र पार्टीँ, जन कांग्रेस तथा कुछ निर्दलियों को मिला कर अलग ‘संयुक्त विधायक दल’ बनाया। इससे सत्तारूढ़ डीपी मिश्रा सरकार अल्पमत में आ गई और गो.ना. सिंह संविद सरकार के मुख्यमंत्री बन गए।

इससे पहले ग्‍वालियर राजघराने की ही राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस में थीं। उन्होंने डीपी मिश्रा से मतभेदों के चलते कांग्रेस छोड़ी और गो.ना सिंह के लोक सेवक दल में शामिल हो गईं। बाद में वो जनसंघ में आईं। संविद सरकार डेढ़ साल चली। बाद में खुद गो.ना.सिंह ही अपने समर्थक कांग्रेस विधायकों के साथ अपनी मूल पार्टी कांग्रेस में लौट गए। लेकिन नई स्थिति में सीएम पद डीपी मिश्रा को भी नहीं मिल सका, क्योंकि कोर्ट ने उन्हें चुनाव में सीमा से अधिक खर्च का दोषी पाकर चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया था। तब मुख्यामंत्री पद के लिए  ‍कांग्रेस में फिर रस्साकशी हुई और बाजी युवा नेता श्यामाचरण शुक्ल के हाथ लगी। कहते हैं कि तब भी सत्ता के लिए भारी उठापटक हुई थी। मामला दिल्ली तक गया था।

सत्ता को बचाने और छीनने का ताजा प्रसंग 1967 के उस प्रीक्वल की तुलना में ज्यादा कटु, चालबाजियों से भरा और नीति-अनीति की लक्ष्मण रेखाओं को कुटिलताओं के रबर से मिटाने वाला है। दोनों तरफ से दांव-प्रतिदांव और चालें चली जा रही हैं। कानून की बारीकियों और खामियों को निचोड़ा जा रहा है। किसी भी सीमा तक जाकर बचाने और मिटाने की कोशिशें जारी हैं। आलम ये कि जो पांसा कल तक सत्ता पक्ष के हाथों में दिखाई देता है, वही कुछ समय बाद प्रतिपक्ष की ओर चला जाता है। इसका सबसे बढि़या उदाहरण फ्लोर टेस्ट की मांग है। फ्लोर टेस्ट के मायने सदन के पटल पर शक्ति परीक्षण।

दो दिन पहले सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेता मांग कर रहे थे कि सरकार की किस्मत का फैसला फ्लोर टेस्ट से ही होना चाहिए। लेकिन जब सिंधिया समर्थक विधायक भाजपा की संरक्षा में बेंलगुरू भेज दिए गए तो कांग्रेस की रणनीति फ्लोर टेस्ट ज्यादा से ज्यादा टालने की बन रही है। क्योंकि फ्लोर टेस्ट जितना टलेगा, सरकार की सांसें उतनी ही चलती रहेंगी। इसी तरह जो भाजपा अल्पमत की सरकार द्वारा राज्यपाल का अभिभाषण कराने का विरोध कर रही थी, वही भाजपा अब ‍अभिभाषण के तत्काल बाद फ्लोर टेस्ट की मांग कर रही है। भाजपा की जी तोड़ कोशिश है कि कमलनाथ सरकार यथाशीघ्र गिरे और वो खुद सत्ता में आ सके। उधर कमलनाथ अभी भी दावे के साथ कह रहे हैं कि वो सदन में अपना बहुमत साबित कर देंगे। सरकार की अदाएं यह जताने में लगी हैं कि वह बहुमत सिद्ध करने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है। वह ऐसे कई फैसले ले रही है, जो उसे पहले ही ले लेने चाहिए थे, मसलन राजनीतिक नियुक्तियां आदि।

1967 और 2020 के सियासी थ्रिलर में एक कॉमन फैक्टर सत्तारूढ़ दल में संवादहीनता का है। कहते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा दबंग होने के साथ-साथ अपने विधायकों को ज्यादा नहीं गांठते थे। इसी का नतीजा विधायकों के उस भारी अंसतोष में दिखा, जिसको गो.ना.सिंह ने हवा दी। गो.ना.सिंह खुद एक विद्वान और जमीनी पकड़ वाले नेता थे। वो डीपी मिश्रा से ज्यादा तवज्जो चाहते थे। उस घटना के इस सीक्वल में भी कांग्रेस सरकार के संकट में घिरने के पीछे प्रमुख कारण मुख्यमंत्री कमलनाथ और विधायकों के बीच लगभग संवादहीनता एक बड़ा कारण है। विधायक अपना दर्द सुनाए तो किसको? अब आनन फानन में चीजों को मैनेज करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह सब पहले हुआ होता तो 1967 अपने नए अवतार में नहीं आता। ध्यान देने की बात यह भी है कि तब बागी हुए कांग्रेस विधायक डेढ़ साल बाद मूल पार्टी में लौट आए थे, क्योंकि डीपी मिश्रा ने उनसे फिर संवाद कायम कर लिया था।

वैसे कांग्रेस में आंतरिक सत्ता संघर्ष और भी मौकों पर होता रहा है। यह संघर्ष और जोड़तोड़ मुख्य रूप से मुख्यमंत्री बनने के लिए रहा है। उदाहरण के लिए जब डीपी मिश्रा 1963 में पहली बार सीएम बने थे तो पार्टी के भीतर ही उनका मुकाबला मध्यभारत अंचल के दिग्गज नेता तखतमल जैन से हुआ था। इसी तरह 1980 में अर्जुनसिंह कद्दावर आदिवासी नेता शिवभानुसिंह सोलंकी को मात देकर मुख्यमंत्री बने थे। जबकि ज्यादा विधायकों ने सोलंकी के पक्ष में अपनी राय जाहिर की थी।

वैसे सत्ता के लिए आंतरिक संघर्ष तो हर पार्टी में होता है। वह भाजपा में भी है, लेकिन संगठन का डंडा उसे ज्यादा सिर उठाने नहीं देता। सवाल यह है कि कांग्रेस में जो आंतरिक सत्ता संघर्ष पहले भी होता था, अब वह इतना अन-मैनेजेबल क्यों हो गया है? क्या इसकी वजह पार्टी हाईकमान की अपरिपक्वता अथवा किंकर्तव्यमूढ़ता है या फिर पार्टी नेतृत्व शक्ति संतुलन का देसी इलाज भी भूल गया है? ऐसा ही टकराव हमने कर्नाटक में देखा, जहां कांग्रेस ने अपनी सरकार गंवाई। अब मप्र में भी वैसा ही सीन दोहराया जा रहा है?

जानकारों का मानना है कि कांग्रेस में सत्ता की नाव गुटीय संतुलन की पतवार से ही खेती आई है। नेतृत्व बाजीगर की भांति कई नेताओं को एक साथ चलाता है। कांग्रेस में सोनिया युग शुरू होने के पहले तक अमूमन शक्ति संतुलन के देसी नुस्खे से ही राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनती और चलती थीं। असंतुष्टों की फाइल पूरी तरह डिलीट नहीं की जाती थी। लगता है बीते दो दशकों में या तो पार्टी में शक्ति संतुलन साधने वाले चतुर जिमनास्टों का टोटा पड़ गया है या फिर वो खुद ही बैलेंस बीम करने लगे हैं। नतीजा भीतरी नाराजी नासूर बन जाती है। ऐसा नासूर जो सरकार के लिए जानलेवा साबित हो सकता है।

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