यह समय न दैन्‍य का है और न ही पलायन का…

‘’क्‍या सुप्रीम कोर्ट के प्रति आपका यही सम्‍मान है? हमारे आदेश के बावजूद एक डेस्‍क आफिसर ऐसा कैसे कह सकता है कि इस पर (कोर्ट के आदेश पर) कोई कार्रवाई न की जाए? यदि कोर्ट के आदेश के प्रति आपका यही रवैया है तो अच्‍छा होगा सुप्रीम कोर्ट को बंद कर दिया जाए… देश में कानून नाम की कोई चीज है या नहीं… बेहतर होगा (हम) देश छोड़ दें… यहां धन का बोलबाला है… मैं बहुत क्षुब्‍ध हूं… मुझे लगता है मुझे इस कोर्ट में और इस सिस्‍टम में काम नहीं करना चाहिए… मैं यह बात पूरे होशहवास में और पूरी जिम्‍मेदारी से कह रहा हूं…’’

(“Is this the respect you have for Supreme Court? How can a desk officer say that no action be taken despite our order? It is better to wind up the SC if you have such respect for the court’s order… No rule of law is there in the country. It is better to leave the country. There is so much money power here, I am very anguished. I feel I should not work in this court and in this system. I am saying this with full sense of responsibility”)

सुप्रीम कोर्ट के न्‍यायाधीश अरुण मिश्रा के ये शब्‍द भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था के इतिहास में बरसों बरस गूंजते रहेंगे। यह टिप्‍पणी 14 फरवरी की है जब सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अरुण मिश्रा, एस. अब्‍दुल नजीर और एस.आर.शाह की खंडपीठ, दूरसंचार कंपनियों द्वारा सरकार की देनदारी न चुकाने संबंधी मामले की सुनवाई कर रही थी। अदालत ने पिछले साल अक्‍टूबर में कंपनियों को आदेश दिया था कि वे 23 जनवरी तक बकाया राशि का भुगतान दूरसंचार विभाग को कर दें। कोर्ट ने इस आदेश के खिलाफ कंपनियों द्वारा लगाई गई पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी।

14 फरवरी को जब मामला सुनवाई के लिए आया तो कोर्ट यह जानकर बिफर पड़ी कि उसके आदेश के बावजूद दूरसंचार विभाग के एक अधिकारी ने वसूली विभागों को पत्र जारी कर दिया कि संबंधित कंपनियों से वसूली को लेकर सख्‍ती न की जाए। अधिकारी के इस रवैये पर गहरी नाराजी और पीड़ा जाहिर करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा सरकारी वकील से बोले- ‘’उस अधिकारी ने कहा कि अगले आदेश तक कोई सख्‍त कार्रवाई न की जाए। (एक तरह से उसने) हमारे आदेश को ही खारिज कर दिया। क्‍या आपने (सरकार ने) उससे यह आदेश वापस लेने को कहा? इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती और न ही हम ऐसी परिस्थितियों में काम कर सकते हैं…।‘’

सुप्रीम कोर्ट की नाराजी के बाद सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मामले पर खेद प्रकट किया और कहा कि संबंधित आदेश वापस ले लिया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक अगली कार्रवाई को अंजाम दिया जाएगा। मेहता के आग्रह पर कोर्ट ने संबंधित अधिकारी के खिलाफ कोई आदेश तो पारित नहीं किया लेकिन उससे स्‍पष्‍टीकरण जरूर मांगा है।

कोर्ट में हुए इस पूरे घटनाक्रम को बहुत गंभीरता से समझने की जरूरत है। इसके कई पहलू हैं और उन सारे पहलुओं को जानने समझने के बाद ही इस पर कोई राय बनाना बेहतर होगा। निश्चित रूप से कोर्ट की आपत्ति बहुत गंभीर है और यह घटनाक्रम बताता है कि सरकार में शासन-प्रशासन की प्रक्रिया किस ढंग से चल रही है। जहां सुप्रीम कोर्ट तक के आदेशों को कोई अफसर रोकने की हिमाकत कर सकता हो वहां मनमानी के स्‍तर का अंदाजा लगाने में किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है।

लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि क्‍या हमारा सुप्रीम कोर्ट भी इस व्‍यवस्‍था से हार मान चुका है? वह सुप्रीम कोर्ट जिसकी ओर देश का हर नागरिक विपरीत परिस्थितियों और हर आपत्ति-विपत्ति तथा कानून एवं संविधान की अवहेलना की स्थिति में बहुत आशाभरी नजरों से देखता है। यदि उसी सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्‍ठ न्‍यायाधीश को यह कहना पड़ रहा हो कि वहां काम करने लायक स्थितियां नहीं बची हैं या फिर चारों तरफ धन का बोलबाला है तो इसके मायने क्‍या हैं? क्‍या हम देश की न्‍यायपालिका को भी क्षरित होता या खारिज होता देखने को मजबूर हो रहे हैं?  और इससे भी बडी बात जस्टिस अरुण मिश्रा का यह कहना है कि- ‘’अच्‍छा होगा सुप्रीम कोर्ट को बंद कर दिया जाए… देश में कानून नाम की कोई चीज है या नहीं… बेहतर होगा (हम) देश छोड़ दें…’’

नहीं न्‍यायमूर्ति, आपके मुंह से ऐसे शब्‍द यह देश कतई नहीं सुनना चाहता। राजनीतिक व्‍यवस्‍था आपके प्रति क्‍या रवैया अपना रही है उससे इतर देश आपसे और आपकी संस्‍था से अपेक्षा रखता है कि आप तो कम से कम ऐसा न कहें। हमारे संविधान ने आपको उसकी रक्षा के अंकुश के तौर पर बनाया है। सत्‍ता का हाथी यदि मदमस्‍त हो रहा है तो आप उस अंकुश का इस्‍तेमाल करें। आप भी यदि देश छोड़ने की बात कहेंगे तो लोगों की उम्‍मीदें टूटेंगी, संविधान का ताना बाना छीजने लगेगा… आखिर आप कैसे कह सकते हैं कि आप देश छोड़कर चले जाएं… यह समय देश को छोड़ने का नहीं देश और समाज के साथ खड़ा रहकर उसे बचाने और मजबूती देने का है…

मुझे याद है ऐसी ही बात करीब चार साल पहले, प्रचंड बहुमत से चुनकर आए, देश के प्रधानमंत्री ने भी कही थी। नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के अपने ऐतिहासिक फैसले की आलोचना से क्षुब्‍ध होकर उत्‍तरप्रदेश के मुरादाबाद की परिवर्तन रैली में 3 दिसंबर 2016 को कहा था- ‘’मैं हैरान हूं कि आजकल मेरे ही देश में कुछ लोग मुझे गुनाहगार कह रहे हैं, क्या मेरा यही गुनाह है कि भ्रष्टाचार के दिन पूरे होते जा रहे हैं? क्या यही मेरा गुनाह है कि गरीबों का हक छीनने वालों को अब हिसाब देना पड रहा है? हिन्दुस्तान की पाई पाई पर अगर किसी का अधिकार है तो सवा सौ करोड़ देशवासियों का है, मैं आपके लिए लड़ाई लड़ रहा हूं। विरोधी मेरा क्या कर लेंगे? हम तो फकीर आदमी हैं, झोला लेकर चल पड़ेंगे…’’

माना कि परिस्थितियां बहुत विपरीत और विकट हो चली हैं लेकिन इन्‍हें सुधारने और पटरी से उतरी हुई गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने के बजाय सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री भी पलायन की बात करने लगें तो काम कैसे चलेगा…? यह समय न दैन्‍य का है और न ही पलायन का… यह समय उस शपथ को संकल्‍पपूर्वक पूरा करने का है जो देश के संविधान के नाम पर उसकी रक्षा के लिए ली गई है…

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