यही है वो रस्‍सी जिसके सहारे बच्‍चे गुफा से बाहर आए

दुनिया भर में इन दिनों एक घटना की चर्चा है। यह घटना है थाईलैंड की गुफा में फंसे वहां की किशोर फुटबॉल टीम के कोच व 12 बच्‍चों को सफलतापूर्वक बचा लिए जाने की। यह घटना बताती है कि यदि आप में जिजीविषा और हौसला है तो आप बड़ी से बड़ी मुसीबत को, यहां तक की मौत को भी मात दे सकते हैं।

थाईलैंड की घटना उस समय हुई जब पूरी दुनिया विश्‍व कप फुटबॉल की दीवानी हुई जा रही थी और विश्‍व मीडिया में वायरल महामारी की तरह फुटबॉल फीवर छाया हुआ था। लेकिन उस फीवर को भी पीछे छोड़ते हुए थाईलैंड की घटना ने पूरी दुनिया का ध्‍यान आकर्षित किया। विश्‍व कप में अपने अपने देश की टीम के जीतने की दुआओं के दौर में लगभग पूरी दुनिया ने दुआ की कि गुफा में फंसे बच्‍चे सकुशल बाहर आ जाएं।

23 जून को थाईलैंड की 11 से 16 साल के बच्चों की फुटबॉल टीम ‘वाइल्ड बोर्स’ के असिस्‍टेंट कोच एकापोल चांतवांग बच्‍चों के साथ प्रैक्टिस करके लौट रहे थे। तभी भारी बारिश के कारण वे इस गुफा में अंदर आ गए। ज्यादा बारिश के कारण गुफा में पानी भर गया और वे सभी वहीं फंस गए। उसके बाद पूरी दुनिया के लोगों ने एकजुट होकर जिस तरह इन लोगों को बचाने का अभियान चलाया वह मानवता की रक्षा के लिए हुए परस्‍पर सहयोग की अनूठी मिसाल है।

मैं हाल ही में इस घटना से जुड़ी अलग अलग तरह की खबरें देख रहा था। इसी दौरान दो खबरों पर मेरा विशेष ध्‍यान गया। पहली खबर उस जिज्ञासा से जुड़ी है जो सहज ही यह प्रश्‍न मन में लाती है कि आखिर 18 दिन तक ये बच्‍चे घोर विपरीत परिस्थितियों में जिंदा कैसे रहे और किसने उनके मनोबल को जिंदा रखते हुए कैसे उनका हौसला टूटने नहीं दिया।

मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि इसका श्रेय टीम के असिस्‍टेंट कोच एकापोल चांतवांग को जाता है।फुटबॉल टीम का कोच बनने से पहले एकापोल करीब एक दशक तक बौद्ध भिक्षु रहे हैं। वहां अन्य भिक्षुओं के साथ उन्‍होंने भी ध्यान लगाना सीखा था। कोच बनने के बाद उन्होंने अपनी टीम को भी इसका अभ्‍यास कराया और ध्‍यान लगाने के प्रशिक्षण का ही परिणाम था कि बच्‍चे अपनी ऊर्जा को संचित करने और मनोबल बनाए रखने में कामयाब हो सके।

दूसरी खबर इस असंभव काम को पूरा करने के लिए थाईलैंड की नेवी सील, दुनिया के दिग्गज गोताखोरों और स्थानीय सुरक्षाबलों की ओर से चलाए गए ‘मिशन इम्पॉसिबल’ को पूरा करने की है। थाई नेवी ने यह अभियान पूरा हो जाने के बाद एक विडियो जारी किया था जिसे लाखों लोगों ने देखा।

करीब 7 मिनट के इस वीडियो में गुफा के मुश्किल हालात और गोताखोरों की जबर्दस्त तैयारी साफ दिखती है। चारों तरफ घुप अंधेरे में आधुनिक उपकरण की मदद से अंदर दाखिल होने वाले सुरक्षाबलों का जज्‍बा इस अभियान को सफल बना देता है।

नेवी सील की ओर से अपलोड किया गया यह वीडियो देखकर मुझे पहले 2001 में हुए अमेरिका के 9/11 कांड की याद आई जिसमें आतंकवादियों ने न्‍यूयार्क वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टॉवर्स को उड़ा दिया था। बताया जाता है कि उस घटना में करीब तीन हजार लोग मारे गए। बताया जाता मैंने इसलिए कहा क्‍योंकि उस भयानक हादसे में हुई जनहानि का विस्‍तृत ब्‍योरा कभी सामने नहीं लाया गया और न ही हताहतों के फोटो जारी हुए।

इसीके साथ मुझे याद आया 26/11/2008 का वह हादसा जिसमें आतंकवादियों ने मुंबई में ताज होटल सहित कई स्‍थानों पर एक साथ हमले किए थे। आंखों के सामने गेट वे ऑफ इंडिया के आसपास टीवी चैनलों का वह हुजूम घूम गया जो उस हमले की किसी जुलूस की तरह रिपोर्टिंग करते हुए पल पल की जानकारी दे रहा था, जिसमें अत्‍यंत संवेदनशील जानकारियां भी शामिल थीं।

मैं सोचने लगा कि यदि थाईलैंड वाला कांड हमारे यहां होता तो हमारा मीडिया कैसा आचरण करता और हमें क्‍या बताता या महसूस करवाता… सबसे पहले तो गुफा के आसपास सैकड़ों की संख्‍या में हाथों में माइक लिए, अपनी अपनी ओबी वैन लेकर धमकने वाले चैनल राहत और बचाव टीम का रास्‍ता ही रोक देते।

फिर धमाचौकड़ी मचती हर आने जाने वाले सुरक्षा या बचावकर्मी से बाइट लेने की। कोई गुफा के अंदर जाने वाली रस्‍सी को पकड़कर कहता, देखिये, यही है वो रस्‍सी जिसके सहारे बच्‍चों को अंदर से खींचकर लाया जाएगा। कोई कीचड़ और पानी को हाथ में लेकर बताता यही पानी है जो गुफा में घुसा है…

उधर स्‍टूडियो में एक समानांतर जांच का सिलसिला शुरू हो जाता जिसमें जाने कहां कहां से खोद खोद कर विशेषज्ञ बुलाए जाते, जो इस तरह की प्राचीन गुफाओं का इतिहास भूगोल बताते, फिर आते बाढ़ विशेषज्ञ जो यह समझाते कि बाढ़ कैसे आती है और पानी किस तरह ऐसी गुफाओं में घुसता है…

कुछ इंजीनियर किस्‍म के लोग गुफा के अत्‍यंत प्राचीन होने के कारण उसके धंस जाने और बच्‍चों के उसमें दब जाने की आशंकाएं प्रकट करते तो कुछ स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञ बताने लगते कि गुफा में पानी इतना पुराना हो जाने के कारण उसमें कौन कौन से कीटाणु पैदा हो गए होंगे और वे बच्‍चों के लिए कितने घातक हो सकते हैं…

बहुत संभव है कि इस राय के साथ ही विशेषज्ञ को बीच में रोककर किसी कीटाणुरोधी साबुन या किसी हर्बल हैंडवॉश का विज्ञापन दिखा दिया जाता…

उधर बहस का एक एंगल अलग ही चल रहा होता जिसमें यूपीए और एनडीए के कार्यकाल में हुई ऐसी दुर्घटनाओं का तुलनात्‍मक अध्‍ययन प्रस्‍तुत किया जाता। लोग सवाल पूछते नजर आते- अब कहां हैं 56 इंच की छाती? बदकिस्‍मती से प्रधानमंत्री यदि विदेश यात्रा पर होते तो मामला और तीखा हो जाता…

सवाल उठाए जाते, इधर बच्‍चे गुफा में फंसे हैं और उधर मोदीजी सैरसपाटा कर रहे हैं। राहुल गांधी यदि इटली में होते तो दूसरा पक्ष सवाल दागता, देश के बच्‍चे संकट में हैं और राहुल बाबा नानी के यहां मजे कर रहे हैं… आप बस सोचते जाइए कि हमारे यहां ऐसा होता तो क्‍या क्‍या नहीं होता…

सीखिए जरा थाईलैंड जैसे छोटे से देशों से, कि ऐसे समय में सरकार, प्रशासन, जनता और मीडिया का आचरण कैसा होना चाहिए..

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