नवसंवत्‍सर पर्व नहीं, प्रश्‍न है हमारे अपने अस्तित्‍व का…

खबर आई है कि आज देश की संसद में पहली बार भारतीय नववर्ष का त्‍योहार मनाया जाएगा। देश में इन दिनों जो माहौल है, खासतौर से उत्‍तरप्रदेश के चुनाव के बाद, उस माहौल में इस खबर को भी सांप्रदायिक नजरिये से देखा जाकर, देश की संसद का हिन्‍दूकरण करने का आरोप भी लगाया जा सकता है। हो सकता है कुछ असहिष्‍णुतावादी, प्रगतिशील या सांप्रदायिक नेता इस कार्यक्रम के बहिष्‍कार की अपील भी जारी कर दें।

लेकिन भारतीय संसद में हिन्‍दू नववर्ष मनाए जाने को भी उसी रूप में लिया जाना चाहिए जैसे अमेरिकी कांग्रेस में दिवाली मनाई गई थी। दरअसल हमारे त्‍योहार केवल उत्‍सव भर नहीं है, वे भारतीय समाज और उसकी जीवन शैलियों का प्रतिनिधित्‍व भी करते हैं। कई त्‍योहारों का प्रचार भले ही उनके धार्मिक पक्ष को लेकर किया जाता हो, लेकिन वे प्रकृति और हमारे रोजमर्रा के जीवन से गहरे जुड़ाव का प्रतीक हैं।

चैत्र नवरात्र, गुड़ी पड़वा या हिंदू नववर्ष के साथ कितनी भी कथाएं क्‍यों न जुड़ी हों,लेकिन अंतत: यह भी प्रकृति के नवश्रृंगार के उत्‍सव का पर्व है। पतझड़ के बाद पेड़ पौधों पर नई कोपलों का आना जीवन की निरंतरता और नवसृजन का ही प्रतीक है। एक तरह से यह प्रकृति और पर्यावरण के नजदीक जाने, उन्‍हें समझने और पूज्‍य भाव से उनकी रक्षा करने का पर्व है।

आज जब पूरा विश्‍व प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा को सर्वोच्‍च प्राथमिकता मान रहा है, ऐसे में इनसे जुड़े हमारे प्राचीन पर्व और त्‍योहारों की उपयोगिता और बढ़ जाती है। पर दुर्भाग्‍य से हर चीज को राजनीतिक नजरिये और उसी चश्‍मे से देखने का चलन चल पड़ा है, इसलिए ऐसे पर्वों की मूल भावना को भी या तो दूषित कर दिया जाता है या फिर उसे ऐसे ही दूषित नजरिये से देखा जाता है।

यह समय हमारे प्राकृतिक संसाधनों के शोषण का तो छोडि़ए उनका दोहन भी सोच समझकर करने का है। चाहे हमारे जलस्रोत हों या वन संपदा, पहाड़ हों या मैदान,हरेक जगह प्रकृति के कष्‍ट को समझने और उसका निदान करने की जरूरत है। ऐसे समय में यह संयोग ही है कि एक तरफ जहां मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री की पहल पर प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी के संरक्षण का व्‍यापक अभियान चल रहा है,वहीं संसद में नवसंवत्‍सर समारोह की मेजबान, लोकसभा अध्‍यक्ष सुमित्रा महाजन भी मध्‍यप्रदेश से ही हैं। इतना ही नहीं देश के पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे भी इसी राज्‍य से आते हैं।

लेकिन प्रकृति को बचाने के उपाय केवल सरकारों के भरोसे पूरे नहीं किए जा सकते। और न ही किसी एक खास दिन प्रकृति के नाम पर कोई उत्‍सव मनाने से काम चल सकता है। आलोचना हो सकती है, आरोप भी लगाए जा सकते हैं, लेकिन मध्‍यप्रदेश में नर्मदा को बचाने की जरूरत को यदि आज नहीं समझा गया तो आने वाली पीढि़यों को तो शायद इस बारे में सोचने का भी अवसर न मिल पाए।

मध्‍यप्रदेश में जब नर्मदा संरक्षण के लिए नमामि देवि नर्मदे सेवा यात्रा आरंभ हुई थी तब मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि यह यात्रा न सरकार की होनी चाहिए न किसी एक राजनीतिक दल की। जिस तरह नर्मदा पूरे प्रदेश की है, उसी तरह उसे बचाने का अभियान भी पूरे प्रदेश का हो। इस यात्रा की सार्थकता तभी है जब यह एक जनअभियान का रूप ले।

मुझे प्रसंग तो ठीक से याद नहीं लेकिन एक बार इंदौर में जल संरक्षण को लेकर कोई बड़ा कार्यक्रम आयोजित हुआ था और उसमें पानी बचाने का संदेश देने के लिए फिल्‍म अभिनेता अजय देवगन को बुलाया गया था। अजय देवगन से जब मीडिया ने अपना परंपरागत सवाल – आपको कैसा लग रहा है- पूछा तो उनका जवाब सही मायनों में लाजवाब कर देने वाला था। अजय ने कहा- ‘’मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि पानी बचाना चाहिए, इतनी जरूरी बात समझाने के लिए भी मुझे लोगों से अपील करना पड़ रही है। यह तो हमें वैसे ही करना चाहिए, इसके लिए हम जैसे फिल्‍मी कलाकारों को बुलाने की क्‍या जरूरत है?’’

मैं न तो कोई उलाहना दे रहा हूं, न किसी की आलोचना कर रहा हूं, लेकिन देख रहा हूं कि नर्मदा संरक्षण के मामले में भी यही हो रहा है। बड़े बड़े धर्माचार्य और सेलिब्रिटीज आकर कह रहे हैं कि नर्मदा को बचाया जाना चाहिए। क्‍या हमारा समाज इतना गया गुजरा या मानसिक रूप से दिवालिया हो गया है कि इस बात को समझने-समझाने के लिए भी उसे सेलिब्रिटीज की जरूरत पड़े की ये नदी, पहाड़,जंगल सूखने नहीं चाहिए।

निश्चित रूप से नर्मदा न तो अकेले शिवराजसिंह चौहान की है और न ही वे इस नदी को अपने साथ लेकर जाएंगे, आज यदि कोशिश हो रही है कि हम रहें या न रहें, यह नदी जरूर रहनी चाहिए, तो यह शिवराज या सरकार का ही नहीं हमारा भी धर्म है कि सिर्फ नर्मदा ही क्‍यों, प्रदेश की, देश की हर नदी जिंदा रहनी चाहिए। हर तालाब और हर कुआं भरा रहना चाहिए।

नव संवत्‍सर का पर्व प्रकृति और उसके विभिन्‍न रूपों के प्रति हमारी इसी जवाबदेही को याद करने का पर्व है। नाम भले ही कुछ भी दे दीजिए, उसे मनाने का तरीका कोई भी अपना लीजिए, लेकिन अंतत: ये सारे उपक्रम हमारे अपने अस्तित्‍व से जुड़े हैं… तय हमें करना है, हम अपना अस्तित्‍व बचाए रखना चाहते हैं या नहीं…

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