अरुण कुमार त्रिपाठी
भारत समेत पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मंदी का दौर है। यूरोप अमेरिका समेत जितने लोकतांत्रिक देश हैं सबमें प्रजातांत्रिक व्यवस्था छीज रही है या कोई ऐसा रूप ले रही है जो उसकी मान्यताओं के अनुकूल नहीं है। इसके विपरीत जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है उनका वैश्विक फलक पर उभार हो रहा है जैसे चीन और रूस। ऐसे में भारत समेत पूरी दुनिया के संदर्भ में यह सवाल आज ज्यादा तेजी से उठ रहा है कि क्या आने वाले समय में लोकतंत्र का पतन हो जाएगा या उसका कोई नया आयाम उभरेगा।
इस समय पूरी दुनिया की निगाहें अमेरिका पर लगी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में लोकतंत्र के मानकों को बहुत नीचे गिराया है। उन पर 16 हजार से ज्यादा झूठ बोलने या गुमराह करने का इल्जाम है और नवंबर के चुनाव को देखते हुए वह बढ़ता ही जा रहा है। लोगों को डर है कि अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीत गए तो अमेरिकी लोकतंत्र का ऐसा पतन होगा कि उसका ऊपर उठना संभव नहीं होगा।
अगर अमेरिकी लोकतंत्र का पतन हो जाएगा तो दुनिया में लोकतंत्र का झंडा बुलंद करने वाला ताकतवर देश कोई बचेगा नहीं। इस बारे में स्टीवेन लेविट्स्की और डैनियल जिबलाट ने अपनी पुस्तक `हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ में गंभीर चिंताएं व्यक्त की हैं। उन्हें एक ही उम्मीद थी कि अगर इस दौरान `ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसा आंदोलन जोर पकड़ता है और रिपब्लिकन पार्टी के भीतर ट्रंप के विरुद्ध गोलबंदी होती है तो संभव है कि पांसा पलट जाए। भले ऐसा हो भी रहा है लेकिन यह आशंका जताने वाले कम नहीं हैं कि गोरे लोगों की श्रेष्ठता की गोलबंदी फिर ट्रंप को सत्ता में वापस ले आए।
इसी तरह की आशंका भारत जैसे देश में भी है। जिस तरह से चुन चुन कर कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को गिराया जा रहा है और ऊपरी तौर पर यही दिख रहा है कि कांग्रेस खुद टूट कर बिखर रही है वह प्रवृत्ति निरंतर भारत के लोकतांत्रिक भविष्य पर प्रश्न चिह्न खड़ी कर रही है। उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि इस पूरे आख्यान को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे कि इसमें सारा दोष कांग्रेस यानी विपक्ष का ही है।
निश्चित तौर पर कांग्रेस का पतन निराशाजनक है। कांग्रेस ने सत्ता की राजनीति ही सीखी और उसे विपक्ष की राजनीति करनी आई नहीं। इसलिए आज जब उसे एक दमदार विपक्ष के रूप में खड़ा होने की जरूरत है तो वह लड़खड़ा रही है। इसके बावजूद चिंता की बात यह है कि उसके प्रति जनता के भीतर सहानुभूति नहीं है। न तो लोग उसे एक अनिवार्य विपक्ष के रूप में अहमियत देने को तैयार हैं और सत्तर और अस्सी के दशक की तरह यह मानने का तो प्रश्न ही गायब हो गया है कि इस देश को कांग्रेस ही चला सकती है।
इसलिए सवाल उठता है कि क्या भारत समेत दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही विफल हो गई है या फिर अलग अलग समाजों ने उससे निराश होकर उसे नकारना शुरू कर दिया है। सोवियत संघ के पतन के बाद 1990 से 2015 तक लोकतंत्र का स्वर्णकाल बताया जाता है। हर साल दुनिया के राजनीतिक मानचित्र पर लोकतांत्रिक देशों की संख्या बढ़ रही थी और बढ़ रही थी लोकतंत्र में आस्था। इसी दौरान आई फ्रांसिक फुकुयामा की पुस्तक- ‘एंड आफ हिस्ट्री’ ने यह जताने की भी कोशिश की कि अब दुनिया में निरंतर लोकतंत्र बढ़ता जाएगा और हर देश फ्रांसीसी क्रांति के समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के उन आदर्शों को प्राप्त करने की कोशिश करेगा जो अभी तक पूरी दुनिया में हासिल नहीं किए जा सके हैं।
इस दौरान आर्थिक उदारीकरण के साथ उभरे वैश्वीकरण ने इस बात का जमकर प्रचार किया कि वह पूरी दुनिया में बाजार के माध्यम से एक आर्थिक लोकतंत्र लाने की कोशिश कर रहा है। उसका यह भी दावा था कि दुनिया में राष्ट्रवाद की जो संकीर्ण दीवारें और बंदिशें थीं अब वह ढह जाएंगी और विश्व की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं का एकीकरण होगा। इस बीच विभिन्न देशों की अपनी स्वायत्तता भी रहेगी। नब्बे का दशक भारत की दलित और पिछड़ी जातियों का स्वर्णयुग भी कहा जाता है। उस दौरान एक सामाजिक क्रांति होती भी दिख रही थी और उसी के साथ पुराना आर्थिक ढांचा नए ढांचे में विकसित हो रहा था।
लेकिन लगता है उदारीकरण और वैश्वीकरण को 2008 में लगे मंदी के तगड़े झटके और पूरी दुनिया में एक साथ समृद्धि न ला पाने की विफलता ने उसके प्रति बने आकर्षण को खारिज करना शुरू कर दिया। उलटे वैश्वीकरण का सर्वाधिक लाभ उठाने वाले देश के रूप में चीन का उदय हुआ जहां लोकतंत्र है ही नहीं। इसका एक मॉडल भारत भी है जो लोकतांत्रिक देश माना जाता है लेकिन उसकी आर्थिक सफलता चीन की तुलना में कम रही। इस समय मंदी से निपटने के लिए अमेरिका ने वैश्वीकरण को खारिज करना शुरू कर दिया और यूरोपीय देशों में भी ब्रैग्जिट के बाद तमाम तरह के गंभीर सवाल खड़े होने लगे।
इसी के साथ उभरे अमेरिका फर्स्ट और राष्ट्रवाद के प्रभाव ने वैश्वीकरण के प्रति एक अविश्वास का भाव भरा और वह लोकतांत्रिक फिसलन में परिवर्तित होता गया। इसी प्रभाव में भारत के शासक वर्ग ने असहमति के स्वरों को कुचलने का अभियान तीव्र किया। शायद वह सोचने लगा है कि न्यूनतम लोकतंत्र से ही अधिकतम समृद्धि हासिल की जा सकती है।
भारतीय लोकतंत्र के बारे में हम गांधी और आंबेडकर की तरफ देखे बिना कोई चर्चा संपन्न नहीं कर सकते। एक ने अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता से आजादी दिलाने का संघर्ष चलाया तो दूसरे ने जाति व्यवस्था से। गांधी ने जो देश लाकर दिया आंबेडकर ने उसे चलाने का विधान रचा। हालांकि दोनों में नैतिकता के पर्याप्त तत्व हैं लेकिन यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि गांधी आंदोलन और मनुष्यों के हृदय परिवर्तन में विश्वास करते थे जबकि आंबेडकर आंदोलन की बजाय संवैधानिक व्यवस्था निर्मित करने और उसके माध्यम से सामाजिक परिवर्तन में यकीन करते थे।
आंबेडकर ने संविधान बनाने के बाद कहा भी था कि अब सत्याग्रह और आंदोलनों की आवश्यकता नहीं है। जबकि गांधी उसके बाद भी आंदोलन और सत्याग्रह की अनिवार्यता पर कायम थे और भारतीय लोकतंत्र को सत्य और अहिंसा के आधार पर चलाना चाहते थे। इसलिए सवाल उठता है कि भारत में लोकतंत्र जो अब महज चुनाव तक महफूज रह गया है और अपने उच्च आदर्शों से निरंतर फिसल रहा है, उसके लिए इस देश की जातिगत और सांप्रदायिक विविधता दोषी है या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरी?
निश्चित तौर पर यह प्रश्न लंबे समय तक मथेगा और इसका एक वैश्विक संदर्भ भी होगा। लेकिन इसी के साथ हमें यह देखना होगा कि कमजोर विपक्ष इस बात का प्रमाण है कि हम एक ऐसा लोकतांत्रिक समाज निर्मित नहीं कर पाए जहां पारस्परिक सहिष्णुता और संस्थागत संयम रहे। यानी लोकतंत्र उतना नहीं हारा है जितना हम हारे हैं। यही आंबेडकर ने भी कहा था कि हम कितना भी अच्छा संविधान बना दें अगर उसे चलाने वाले ठीक नहीं हैं तो वह चल नहीं पाएगा।