यह राजनैतिक ही नहीं नैतिक हार भी है

आखिरकार वही हुआ जिसका डर था। कर्नाटक में तीन दिन पहले मुख्‍यमंत्री की शपथ लेने वाले बी.एस. येद्दियुरप्‍पा को इस्‍तीफा देना पड़ा। तमाम दावों और जोड़तोड़ की कोशिशों के बावजूद भाजपा कर्नाटक में सरकार बचाने लायक बहुमत नहीं जुटा सकी। हालत यह हुई कि येदियुरप्‍पा ने विश्‍वास का मत हासिल करने का प्रस्‍ताव ही नहीं रखा और वे अपना लंबा भाषण देने के बाद, सदन में ही पद छोड़ने की घोषणा कर, राज्‍यपाल को अपना इस्‍तीफा देने चले गए।

येदियुरप्‍पा ने अपने भाषण के जरिये वैसा ही उपक्रम करने की असफल कोशिश की जैसा 1996 में अपना इस्‍तीफा देने से पहले तत्‍कालीन प्रधानमंत्री और भाजपा के दिग्‍गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में की था। लेकिन दोनों स्थितियों में फर्क साफ नजर आ रहा था। 1996 के अटलबिहारी वाजपेयी के चेहरे और शब्‍दों में आदर्श का, नैतिकता का, मूल्‍यों की राजनीति का तेज दिखाई दिया था जबकि येदियुरप्‍पा के निस्‍तेज चेहरे पर मूल्‍यों को कुचलने के अपराधबोध से सना हुआ पराजय भाव था।

मैं पिछले दो दिनों से यही बात कहता आ रहा हूं कि भाजपा की बुनियाद में नैतिकता, शुचिता और मूल्‍यों के पत्‍थर अपेक्षाकृत ज्‍यादा लगे हैं। इसलिए उसे अपना भवन खड़ा करने और उस पर मंजिले चढ़ाने के दौरान यह ध्‍यान रखना चाहिए कि वहां भी नैतिकता, शुचिता और ईमानदारी की ईंटें अधिक संख्‍या में हों। लेकिन आज भाजपा को यह सलाह देना भी अपराध हो गया है।

कल्‍पना करिये उस दृश्‍य की जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी, बहुमत न होने के कारण, सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करती और कहती कि हम जोड़तोड़ की राजनीति में विश्‍वास नहीं करते। जिनके पास बहुमत है वे सरकार बनाएं और चलाकर दिखाएं। मैं जानता हूं कि भाजपा के समर्थक इस बात को गले उतारने के लिए राजी नहीं होंगे, लेकिन यदि ऐसा होता तो जनमानस में न सिर्फ भाजपा का बल्कि मोदी और अमित शाह का सिर भी ऊंचा होता। आज तो भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को अनैतिक कहने का नैतिक अधिकार भी खो चुकी है।

अब तो जो हुआ है उसके लिए यही कहा जा सकता है कि ‘माया मिली न राम।‘ जरा घटनाओं को बारीकी से देखें। ऐसा नहीं है कि भाजपा ने बहुमत हासिल करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की रणनीति नहीं अपनाई होगी। पर गंभीर बात यह है कि केंद्र में सत्‍तारूढ़ दल की ऐसी तमाम पेशकश को स्‍वीकार करने के लिए अन्‍य दलों के विधायक राजी नहीं हुए।

जो लोग राजनीति को समझते हैं, वे इस स्थिति के खतरे को अच्‍छी तरह जान रहे होंगे। क्‍योंकि इसका सीधा मतलब है कि अब आप पर राजनीतिक क्षेत्र के लोग भरोसा नहीं कर रहे। ये राजनीतिक बिरादरी बहुत चतुर और दूरंदेशी होती है, यदि इतना विशाल राजनीतिक चुंबक होने के बावजूद कोई आपसे नहीं चिपका तो इसे खतरे की घंटी समझिये।   

अब कांग्रेस और जेडीएस मिलकर न सिर्फ कर्नाटक में सरकार बनाएंगे बल्कि वे अपने नेताओं और विधायकों से यह भी कहलवाएंगे कि किस तरह उन्‍हें प्रलोभन देकर तोड़ने की कोशिश हुई। हो सकता है इसके लिए प्रमाण भी प्रस्‍तुत किए जाएं। क्‍या उससे आपकी साख बढ़ेगी? अब आपके न खाऊंगा न खाने दूंगा के नारे का मखौल उड़ाया जाएगा, क्‍या उससे सरकार की विश्‍वसनीयता और पुख्‍ता होगी? जाहिर है ऐसा कतई नहीं होगा..

भाजपा के पास समय है, अब भी संभले, राजनीति को राजनीति की तरह करे दादागिरी की तरह नहीं। विपक्ष के लिहाज से कर्नाटक दूसरे मायने में गुजरात का अगला कदम है। यह विपक्ष को इस बात का भरोसा दिलाने में बड़ी भूमिका निभाएगा कि हम एक हो जाएं तो भाजपा का डटकर मुकाबला कर सकते हैं।

आज भाजपा का जो फैलाव है वह पूरी तरह राष्‍ट्रीय पार्टी का है। जैसे एक समय कांग्रेस की स्थिति थी। भारत जैसे देश को चलाने के लिए ऐसी किसी पार्टी का होना बहुत जरूरी है। मानाकि गठबंधन सरकारें अब भारतीय राजनीति का अनिवार्य तत्‍व होती जा रही हैं, लेकिन ऐसी सरकारें अपने अपने कारणों से देश का भला नहीं कर सकतीं। भाजपा के लिए अवसर समाप्‍त नहीं हुए हैं, बशर्ते वह मूल्‍यों की राजनीति करे समर्थन मूल्‍य की नहीं…

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