यह एक दिन का चमत्कार नहीं है…

अतुल तारे 

आज एक बड़े वामपंथी नेता टेलीविजन स्क्रीन पर अपना दुखड़ा कुछ यूं रो रहे थे। वे कह रहे थे कि त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में एक दम 50 फीसदी मतदान बढ़ना चौंकाता है, यह जांच का विषय  भी है। ढहते लाल दुर्ग के अप्रासंगिक हो चुके इन नेताओं के बुद्धि विलास पर तरस आता है। बेशक सतही तौर पर चुनावी नतीजे चमत्कारिक हैं, पर यह चमत्कार नहीं है। पूर्वोत्तर भारत आज धीरे-धीरे केसरिया बाना ओढ़ रहा है तो वह एक दिन का, कुछ महीनों का, कुछ सालों का ही परिश्रम नहीं है, यह परिणाम है, दशकों से चल रही अविश्रांत साधना का।

यह फलित है असम, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम के दूर-दराज ग्रामीण एवं घने वनवासी क्षेत्रों में कार्य कर रहीं राष्ट्रीय एवं सकारात्मक शक्तियों के समाज में रचनात्मक प्रयोगों का। बेशक कुछ हद तक मेघालय के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में रहे पर समूचे पूर्वोत्तर भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा लेकर आज वनवासी कल्याण परिषद, एकल विद्यालय, विद्याभारती सहित ऐसे कई राष्‍ट्रीय विचारों को समर्पित संगठन हैं जो समाज में बिना किसी अपेक्षा के सक्रिय ही नहीं हैं बल्कि वामपंथ के आतंक से दो-दो हाथ भी कर रहे हैं। इस निर्णायक संघर्ष में कितनी माताओं ने अपने बेटे, कितनी सुहागिनों ने अपने पति एवं कितनी बहनों ने अपने भाई खोए हैं, आज की विजय उनके बलिदान को नम आंखों के साथ याद करने की भी विजय है।

यह सही है कि राष्ट्रीय विचारों से प्रेरित इन संगठनों का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है, पर इनका जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ता है, वामपंथ और इनसे जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय कुशक्तियों का पराभव स्वाभाविक रूप से होता ही है और यही हुआ। 2014 में एनडीए की ऐतिहासिक विजय ने पूर्वोत्तर में एक नए सूर्योदय की संभावना जगा दी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी टीम की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने पूर्वोत्तर भारत को शेष भारत से पहली बार जोड़ा। पहली बार एक गृह राज्यमंत्री पूर्वोत्तर से देश को मिला, पहली बार पूर्वोत्तर के लिए एक विशेष मंत्रालय बना, जिसकी चिंता प्रधानमंत्री कार्यालय ने स्वयं की।

संगठन के तौर पर अमित शाह ने लगातार क्षेत्र में सघन दौरे किए, संवाद स्थापित किया। पहली बार संगठन के स्तर पर भी पूर्वोत्तर भारत के लिए प्रभावी रूप से एक सक्रिय प्रकोष्ठ का गठन किया गया। इसी क्रम में त्रिपुरा जैसे सुदूर क्षेत्र में महाराष्टÑ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता सुनील देवधर को भेजा गया जिसने त्रिपुरा के जनजीवन से स्वयं को पूरी तरह आत्मसात कर लिया। यह शोघ,अध्ययन एवं अनुकरण का विषय होना चाहिए कि किस प्रकार महाराष्टÑ के सैकड़ों साधकों ने अपना जीवन पूर्वोत्तर भारत में खपा दिया, गला दिया।

परिणाम आज सामने है। त्रिपुरा का लाल दुर्ग अब इतिहास है। नागालैड में भारत माता की जय के जयकारे हैं। केरल में चूलें हिलने लगी हैं। यूं तो वामपंथ का विचार अपनी ही जमीन पर उखड़ चुका पर अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रों के तहत देश में ये विचार आज भी वातावरण को विषाक्त करते हैं। त्रिपुरा की हार से ये फिर बौखला जाएंगे। 2019 अब ज्यादा दूर नहीं है। इस बीच चार राज्यों के चुनाव हैं। भारतीय जनता पार्टी के कंधों पर एक महती जवाबदारी है। देशवासी उनके ऊपर भरोसा करते हैं यह परिणाम से स्पष्ट है।

आवश्यकता अब इस बात की ओर है कि नए किले जीतने के प्रयास में जो उनके अपने दुर्ग हैं उनकी दीवारों में आई अवसरवादिता की दरारें, भ्रष्टाचार की दीमक एवं भाई भतीजावाद के जाले भाजपा नेतृत्व समय रहते पहचाने, साथ ही विजय के इन क्षणों में भाजपा नेतृत्व देशभर में फैले अपने मूल एवं निष्ठावान कार्यकर्ताओं की पहचान करे, उन्हें अपने स्नेह का हृदय से आलिंगन दे।

सिर्फ मंचों से या भाषण में ही कार्यकर्ताओं का स्मरण न करे, व्यवहार में भी उसे उतारने का प्रामाणिक प्रयास करे। कारण यह सही है कि भाजपा ही आज सही अर्थों में एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल है पर वह सिर्फ एक राजनीतिक दल ही नहीं है वह देश में समग्र परिवर्तन के लिए एक वैचारिक आंदोलन है। संघर्ष अभी और गहरा होगा। षड्यंत्र और बढ़ेंगे ऐसे में परिणाम एवं पुण्य से प्राप्त पूंजी को सहेज कर आगे बढ़ना ही उसका युगधर्म भी है और राष्ट्रीय कर्तव्य भी।

एक बार फिर से भाजपा नेतृत्व को इस ऐतिहासिक जीत के लिए शुभकामनाएं एवं बधाई।

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