खबर बहुत साधारण थी लेकिन मीडिया में उसका जैसा ट्रीटमेंट हुआ, उसने सोचने पर मजबूर कर दिया। मामला नैनीताल हाईकोर्ट का था इसलिए और भी चर्चित हो गया, क्योंकि यह हाईकोर्ट इन दिनों कुछ ज्यादा ही सुर्खियों में है। मूल खबर सुप्रीम कोर्ट से चली थी, जिसमें कहा गया था कि कुछ हाईकोर्ट जजों के तबादले हुए हैं और कुछ को सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बनाया गया है।
इस खबर में आंध्रप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बी. भोसले को मध्यप्रदेश का मुख्य न्यायाधीश बनाने, मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश अजय मानिकराव खानविलकर को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने और उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसफ को उसी हैसियत में आंध्रप्रदेश भेजे जाने की सूचना मात्र थी। मीडिया में यह ‘सूचना’ जब ‘खबर’ बनी तो उसमें बाकी न्यायाधीशों के बारे में तो सामान्य विवरण था, लेकिन ज्यादातर जगह यह खबर इस शीर्षक के साथ छपी या प्रसारित हुई कि ‘उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को अवैध बताने वाले जज का तबादला।‘ उल्लेखनीय है कि नैनीताल हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश केएम जोसफ और वी.के.बिष्ट की खंडपीठ ने ही पिछले माह उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के फैसले को रद्द किया था।
जैसे ही मीडिया में सुर्खियां उछलीं कई लोग सक्रिय हो गए। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने न्यायमूर्ति जोसफ के तबादले के टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए कई ट्वीट किए। उन्होंने पूछा कि ‘क्या न्याय व्यवस्था पर से हमारा विश्वास हट गया है?’ इस तरह के अवसरों की ही तलाश में रहने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इंदिरा जयसिंह का समर्थन करते हुए ट्वीट किया कि ‘यह चौंका देने वाला मामला है, इससे हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल खड़े होते हैं।‘हालांकि ऐसे ही एक और सक्रियतावादी मार्कंडेय काटजू इस मामले में दूसरा पक्ष लेकर मैदान में आए और उन्होंने कहा कि इस तबादले का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि श्री जोसफ की सेहत संबंधी कारणों से यह कदम उठाया गया है।
सवाल यह है कि क्या बिना किसी पुख्ता सूचना या आधार के न्यायपालिका को लेकर इस तरह की टीका टिप्पणियां की जानी चाहिए? मीडिया के लोग तर्क दे सकते हैं कि इस प्रकरण में खबर ही वही थी इसलिए हेडलाइन बनी। इस पर इतना हो हल्ला मचाने की क्या जरूरत है। तो जरूरत इसलिए है कि खबर का एंगल बनाने के चक्कर में मीडिया ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि उसने अनजाने में ही कितनी संस्थाओं और व्यक्तियों को संदेह के घेरे में डाल दिया। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि हाईकोर्ट जजों के तबादले सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम तय करता है। लेकिन उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को लेकर जो राजनीतिक उठापटक चल रही है, उसके चलते, कॉलेजियम जैसी किसी व्यवस्था की जानकारी न रखने वाले, अधिकांश लोगों के मन में तो यही प्रतिक्रिया होगी ना कि देखिए चूंकि उन जज साहब ने केंद्र सरकार के कदम के खिलाफ फैसला दिया था इसलिए उनका तबादला कर दिया गया। यानी संदिग्ध बनाए जाने की पहली शिकार केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे। मीडिया की सुर्खियों का अर्थ यही निकाला जाएगा कि मोदी सरकार उन जजों को बदलवा रही है, जो उसके खिलाफ फैसला दे रहे हैं। जबकि असलियत में सरकार का इस प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं है।
दूसरी उंगली सुप्रीम कोर्ट या भारत के मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर उठेगी। समझा जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम या मुख्य न्यायाधीश भी सरकार के दबाव में काम कर रहे हैं।
और तीसरी क्षति होगी स्वयं न्यायमूर्ति जोसफ की। उन्होंने भले ही विशुद्ध न्यायिक आधार पर राष्ट्रपति शासन को रद्द करने का फैसला किया हो, लेकिन उनके तबादले के साथ उस फैसले का संदर्भ जोड़े जाने से यह संदेश गया मानो उनका तबादला उस फैसले के कारण किया गया। यानी वह फैसला न्यायिक आधार पर न दिया जाकर किसी और आधार पर दिया गया था। परोक्ष रूप से यह किसी न्यायाधीश पर राजनीतिक पक्षपात का आरोप चस्पा करने की कोशिश है। इसके साथ ही समूची न्यायपालिका के बारे में यह प्रचारित करने की चेष्टा है कि न्यायालयों में राजनीतिक चेहरे देखकर फैसले के तिलक लगाए जा रहे हैं।
आखिर क्या कारण है कि आंध्र प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश के किसी महत्वपूर्ण फैसले को या मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश के किसी चर्चित फैसले को आधार बनाते हुए खबर नहीं दी गई।
अगर न्यायाधीशों के तबादलों की खबर, उनके फैसलों के साथ देना ही जमाने का चलन है, तो फिर खबर यह भी छपना चाहिए थी कि ‘सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण को खारिज करने वाले मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश का सुप्रीम कोर्ट तबादला।‘
दरअसल पद पर रहते हुए न्यायाधीशगण कई फैसले सुनाते हैं। उनके तबादले को किसी फैसले से जोड़ते हुए खबर बनाना न सिर्फ पूरी न्याय प्रक्रिया पर, बल्कि खुद उनके साथ भी अन्याय है। इस तरह के गुणा-भाग से जजों की निष्ठा के साथ साथ फैसलों की गुणवत्ता और निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं। हां, कई बार घटनाओं का टाइमिंग कई सवालों और अटकलों को जन्म देता है। वे घटनाएं आपस में गुत्थमगुत्था भी नजर आती हैं, लेकिन पत्रकारीय विवेक कहता है कि जब तक हमारे पास पुख्ता सूचना या आधार न हो इस तरह के कुलाबे नहीं मिलाए जाने चाहिए।