प्रमोद शर्मा
सुबह-सुबह चाय की चुस्कियां ले ही रहा था कि पड़ोस वाले शर्मा जी आ धमके और भुनभुनाते हुए बोले- ‘’हद हो गई यार! आरएसएस और बीजेपी ने पूरे देश को अपना कार्यालय और हरेक व्यक्ति को अपना कार्यकर्ता समझ लिया है। जहां देखो वहां, उनकी चाल नजर आती है। चारों ओर उनका ही प्रचार चल रहा है। कोई कुछ करता ही नहीं। यह तो सरासर असंवैधानिक और अनुचित है।‘’
मैंने पूछा- ‘‘क्या हुआ शर्मा जी, भुनसारे से काय भिनभिना रये? आखिर माजरा क्या है? अब क्या कर दिया आरएसएस और बीजेपी ने?‘’
तुनकते हुए बोले- ‘‘आपको तो कहीं कोई दोष नजर ही नहीं आता। मैं दावे से कह सकता हूं कि देश में हर काम में आरएसएस और बीजेपी का ही हाथ होता है। हर तरह से वे लाभ उठा लेते हैं, सब कुछ अपने हिसाब से करवा रखा है। अब रामचरित मानस को ही ले लो।‘‘
“पर रामचरित मानस तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखी है और वो भी सदियों पहले” – मैंने कहा। इस पर वे फिर तुनक गए। बोले- “मैंने तो पहले ही कहा कि आपको तो आरएसएस और बीजेपी का कोई दोष दिखाई ही नहीं देता।“ बिना रुके वे आगे बोले- ‘‘बीजेपी का चुनाव चिह्न क्या है, बताओ भला?” ‘कमल‘- मैंने कहा।
उन्होंने व्यंग्य कसा- ‘तमल!‘ जब भी शर्मा जी ज्यादा गुस्से में होते हैं और कटाक्ष करते हैं तो वे इसी तरह तुतलाकर बोलते हैं।
‘तो इसमें क्या आपत्ति है? हर पार्टी का एक चुनाव चिह्न होता है। जैसे कांग्रेस का हाथ का पंजा, बसपा का हाथी, आप की झाड़ू, सपा की साइकिल है।‘
‘आपत्ति क्यों नहीं, घनघोर आपत्ति है।‘ वे धड़ाम से कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
‘कोई भी राजनीतिक दल ऐसा कैसे कर सकता है?‘ क्या कर दिया, ‘आखिर कुछ साफ-साफ बताएंगे?‘
‘आपने रामचरित मानस कभी ध्यान से पढ़ी है?‘ उन्होंने पूछा। ‘जी बिलकुल पढ़ी है।‘ -मैंने जवाब दिया।
तो साफ-साफ सुनो- ‘ये जो गोस्वामीजी थे न मुझे तो वे साहित्यकार कम और आरएसएस के प्रचारक या बीजेपी के थिंकटैंक ज्यादा लगते हैं।‘ उनकी यह बात सुनकर मेरी तो खोपड़ी ही चक्करघिन्नी हो गई। वो कैसे?
वे बोले- मानस को ध्यान से पढ़ो, गोस्वामीजी ने सैकड़ों-हजारों बार ‘कमल‘ का जिक्र किया है। किसी दूसरे राजनीतिक दल के चुनाव चिह्न का एक बार भी नाम नहीं लिया। एक-एक पेज में कई-कई बार कमल का जिक्र आया है। उन्हें कमल के अलावा न तो कोई पुष्प दिखा और न ही किसी अन्य पार्टी का चुनाव चिह्न। इस स्तुति में तो हद ही हो गई-
‘नव कंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणम्‘
‘आंखें कमल, मुख कमल, हाथ कमल और तो और पैर भी कमल। भैया- उन्हें तो अंग-अंग में कमल ही कमल नजर आ रहा है। कोई दूसरी उपमा नहीं मिली उन्हें। यह गहरी योजना नहीं तो और क्या है? प्रकृति में क्या फूलों का अकाल पड़ गया था। तुम्हारी ही क्यारी में देख लो- गेंदा, गुलाब, कनेर, मोगरा, रातरानी, चम्पा, गुड़हल, चमेली एक से बढ़कर एक फूल हैं, लेकिन उनका एक भी चौपाई में जिक्र हो तो बताओ।‘
अच्छा एक बात बताओ- ‘यदि प्रभु के अंगों की उपमा किसी पुष्प से ही देनी थी तो दूसरों फूलों में क्या कमी है? यदि आंख को कमल की तरह बता देते, मुख को गुलाब कह देते, हाथों को गुड़हल और पैरों को केतकी के सदृश्य बताते तो क्या फर्क पड़ जाता। बल्कि मैं तो कहता हूं कि इससे अन्य फूलों को भी बराबर सम्मान मिल जाता। वे दलित और शोषित न रह जाते। वे भी साहित्य में उच्च स्थान पा जाते।‘
‘इसीलिए मैं कहता हूं कि ये सब बीजेपी ने योजनाबद्ध तरीके से करवाया। खुद का प्रचार करवाया और एक वर्ग विशेष को महत्व देकर दूसरों की उपेक्षा की, यह बात मेरे लिए असह्य है।‘
यदि वे- ‘नव कंज लोचन, पाटलं मुख, कर जपपुशम, पद केतकम्‘
भी कहते, तो भी लय-ताल सब ठीक रहता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। शुक्र करो कि अभी तक हमारे यहां के पर्यावरणविद और अंग्रेजी में क्या कहते हैं उसे- ‘एनवायर्मेंट एक्टिविस्ट‘ मंडली का ध्यान अभी तक इस ओर गया नहीं है, नहीं तो इस देश में कब का विशाल आंदोलन खड़ा हो जाता। वैसे, मैं आपको बता दूं, किसी दिन यदि इस बाबत कुछ बुद्धिजीवियों का दल संसद की ओर मार्च पर निकले पड़े या लालकिले पर सूरजमुखी फूल टांग दे। कोई ‘इतै भी टिक‘ जाए तो देश में बखेड़ा हो सकता है। आंदोलनकारी मांग पर अड़ सकते हैं कि या तो बीजेपी का चुनाव चिह्न बदलो या मानस की उपमाएं बदलो। हम कोई बात नहीं सुनेंगे, तो फिर बैठकर सिर पीटना आप और आपकी सरकार।
मैं भी कहां इतनी आसानी से हथियार डालने वाला था। मैंने तर्क दिया- ‘ऐसा नहीं है, कमल फूलों में सर्वश्रेष्ठ होता है। कोमल होता है, सुंदर होता है। इसलिए कवि-साहित्यकार अधिकांश उसकी ही उपमा देते हैं।‘
अच्छा आपके हिसाब से कमल सवर्ण हुआ? बाकी फूल दलित और पिछड़े वर्ग से आते हैं? न उनमें सुगंध है, न रंग, न रूप। उनकी कलियां न हुईं गड़ासा हो गईं। अरे भैया! देखा जाए तो कमल का फूल तो कीचड़ और गंदगी में होता है। जबकि अन्य फूल सुंदर बगियों और क्यारियों में शोभा पाते हैं। श्रेष्ठता की श्रेणी में उन्हें कमल से उच्च स्थान प्राप्त होना चाहिए। मुझे लगता है आप भी दलित और पिछड़ों को हेय दृष्टि से देखते हो? आप भी भेदभाव रखते हो? आप समानता के सिद्धांत को नहीं मानते? एक साथ चलाए उनके बातों के इन तीरों से मैं लहूलुहान हो गया। फिर भी किसी तरह खुद को संयमित करके मैंन कहा- ‘शर्माजी, आप बात का बतंगड़ बना रहे हो। कहां की बात को कहां जोड़ रहे हो, आपने मुझे ही दलित विरोधी बना दिया।‘
मैंने उन्हें शांत करने की दृष्टि से उनकी ओर पानी बढ़ाते हुए कहा- ‘लीजिए पानी पीजिए।‘ मुझे अंदाजा था कि वे कुछ शांत होंगे, लेकिन कहां। वे पानी गटकते हुए फिर बोले- ‘अच्छा चलो, ये बताओ यदि ये बीजेपी की चाल न होती तो अन्य दलों के चुनाव चिह्न की भी तो कभी कोई चर्चा नहीं की। उन्हें तो बस कमल ही दिखा। हमारे सभी भगवान वरमुद्रा में होते हैं। उसका कोई वर्णन किसी चौपाई में कर देते। ऐसा क्यों नहीं किया?‘
‘क्यों नहीं किया आप ही बताइए‘- मैंने प्रति प्रश्न दागा।
‘इसलिए कि कहीं कांग्रेस का प्रचार न हो जाए। लक्ष्मीजी कमल पर विराजमान है, किन्तु उनकी बगल में जो हाथी अपनी सूंड से जलधारा बरसा रहा है, उसे भी देख लेते, लेकिन नहीं। उससे तो बहनजी का भला हो जाता न! वरमुद्रा धारी के स्थान पर पंजाधारी भी कह सकते, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।‘ वे बोलते गए- ‘रामजी क्या, हमारे सारे भगवान ‘पंजा‘ लिए बैठे हैं, लेकिन मजाल है किसी भी साहित्यकार ने इस बात को नोटिस किया हो? यह भेदभाव है।‘
इतने में मैंने देखा, उनकी पत्नी घर के चौखट पर वीरमुद्रा में खड़ी है। साड़ी का पल्लू कमर में बंधा हुआ, दाएं हाथ में एक साथ कई तलवारों की तरह लहराता हुआ आप पार्टी का चुनाव चिह्न और वाम हाथ से नागिन तरह लहराते हुए बालों को कान में खोंसते हुए लाल-लाल नेत्र से उन्हें निहार रही थी। मैंने कहा- शर्माजी भाभीजी आपको बुला रही हैं।
वे कुछ कह या कर पाते, इससे पहले ही उनके भारी-भरकम मुख से आकाशवाणी की तरह आदेश गुंजायमान हो उठा- ‘अरे! अभी तक बाजार नहीं गए, मैंने कहा था कमल के फूल लाने को, घर में लक्ष्मीजी की पूजा करनी है।‘ मैंने कहा- ‘शर्माजी यह भी बीजेपी की चाल है क्या?‘ उन्होंने बिना कुछ कहे मुंह बिचकाया और सपा के चुनाव चिह्न को थाम बाजार की ओर रवाना हो लिए।‘