‘एक वो भी दिवाली थी, एक ये भी दिवाली है’…!

अजय बोकिल

वाकई बड़ी विरोधाभासी दिवाली है। एक तरफ राजनीतिक हलकों में बिहार विधानसभा और मप्र सहित कई राज्यों में उपचुनाव नतीजों के बाद किसके घर दिवाली मनेगी और कहां मातम छाया रहेगा, यह 10 नवंबर को पता चलेगा। दूसरी तरफ आम लोग पटाखाविहीन दिवाली मनाने को लेकर असमंजस में है। लेकिन सबसे ज्यादा मुसीबत दिवाली की पहचान रहे पटाखे बनाने वालों की है, जिनके घरों में इस दीपावली चूल्हा बुझने की नौबत आ गई है। क्योंकि शहरों में वायु प्रदूषण रोकने एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने दिल्ली एनसीआर सहित देश के 23 राज्यों में पटाखे चलाने पर या तो रोक लगा दी है या फिर सशर्त अनुमति दी है।

देश में पटाखा उद्योग में परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से 10 लाख लोग लगे हैं। पिछले कुछ सालों से चीनी पटाखे और आतिशबाजी आयटम भारतीय पटाखा उद्दयोग में बत्ती लगा रहे थे। अब कोविड के चलते पटाखों का धुआं और हानिकारक बताया जा रहा है। दो साल पहले ग्रीन पटाखों के चलन के बाद इस उद्योग ने पारंपरिक पटाखों के साथ ग्रीन पटाखे बनाने की शुरुआत की थी, लेकिन अब उन पर खतरा मंडरा रहा है।

देश के कई राज्यों में पटाखा बैन के बाद देश की पटाखा राजधानी शिवाकाशी में हजारों मजदूर कारीगर विरोध स्वरूप सड़कों पर उतर आए थे। तमिलनाडु के मुख्‍यमंत्री पलानीसामी ने पटाखों पर रोक लगाने वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी भी लिखी थी कि वो अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। इस सम्बन्ध आगे कुछ होता, उसके पहले ही एनजीटी का फैसला आ गया।

इसमें दो राय नहीं कि दिवाली पर चलने वाले पटाखों से इस त्‍योहार पर न सिर्फ शोर बहुत बढ़ जाता है, साथ ही पटाखों से निकलने वाले जहरीले धुएं से हवा प्रदूषित होती है। देश के तमाम शहरों और कस्बों में पहले ही पेट्रोल डीजल-चलित वाहनों और उद्योगों के कारण हवा सांस लेने लायक नहीं रही है। लॉकडाउन के दौरान आया शुद्ध हवा का वो झोंका भी वापस उसी विषाक्त वायु में बदल गया है। शहरों की हवा साफ रखने तथा कानों को अतिशोर से बचाने लोग अदालतों में गए थे। खासकर दिवाली पर पटाखों से होने वाले प्रदूषण पर रोक लगाने की मांग की गई थी। जिस पर एनजीटी ने दिवाली के चार दिन पहले अपना फैसला सुना दिया।

एनजीटी के फैसले के पहले ही मध्यप्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि राज्यों ने पटाखों पर बैन लगा दिया था। मप्र में यह बैन मुख्य रूप से चीनी पटाखों पर लगाया गया है। यह प्रतिबंध चीनी सामान के बहिष्कार की उस सामाजिक-राजनीतिक मुहिम का भी हिस्सा है, जिसके ‍जरिए चीन को सबक सिखाने की कोशिश की जा रही है। स्वदेशी जागरण मंच ने हमें बताया है कि प्रदूषण केवल चीनी पटाखों से फैलता है, देशी पटाखों से नहीं। क्योंकि चीनी पटाखे घातक केमिकल्स से बने होते हैं। अच्छी बात है, लेकिन जब पटाखों पर ही रोक है तो चीनी क्या और भारतीय क्या? पटाखे चाहे चीन के लियुयांग में बने हों या फिर भारत के शिवाकाशी में?

एनजीटी के निर्णय के बाद राज्यों में स्थानीय स्तर पर पटाखे चलाने के बारे में कुछ गाइडलाइन्स जारी की गई हैं? कुछ राज्यों ने दिवाली के दिन दो घंटे पटाखे चलाने की छूट दी है। लेकिन यह भी एयर क्वालिटी पर निर्भर करेगा और सार्वजनिक स्थानों पर तो पटाखे बैन ही रहेंगे। हवा ज्यादा खराब हुई तो पटाखे बंद करवा दिए जाएंगे। वैसे मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार ने देवी- देवताओं वाले पटाखे भी बैन कर दिए हैं। यह सही फैसला है। पटाखों पर देवी-देवताओं के चित्र लगाने और चलाने के बाद उन्हें कचरे में फेंकना सही नहीं है।

पटाखे न चलें और हवा की गुणवत्ता सांस लेने लायक रहे, इसमें दो मत नहीं है। भले ही इसके लिए दिवाली ‘मौन व्रत’ की तरह ही क्यों न मनानी पड़े। लेकिन हमारा हर त्‍योहार अपने साथ एक अर्थव्यवस्था भी लेकर चलता है, जिसका जिक्र पुराण कथाओं में नहीं होता। पटाखे देश में पहले भी बनते और चलते थे, लेकिन इसके निर्माण और कारोबार ने एक संगठित रूप 20 वीं सदी में ही लिया। कहते हैं कि औरंगजेब ने दिवाली पर पटाखे चलाने पर रोक लगा दी थी, जिसे बाद में हटा लिया गया।

अंग्रेजों के जमाने में विशेष अवसरों पर आतिशबाजी का प्रदर्शन होता था। 19 वीं सदी में पटाखों का व्यवस्थित निर्माण कोलकाता में शुरू हुआ। लेकिन 20 वीं सदी में भारत में पटाखा निर्माण का सबसे बड़ा केन्द्र तमिलनाडु का शिवाकाशी शहर बन गया। आज देश में कुल पटाखों के 80 फीसदी केवल शिवाकाशी में तैयार होते हैं। पहले वहां इसकी लगभग 1100 इकाइयां थीं, जिनमें से कुछ भारतीय बाजार में चीनी पटाखों की पैठ के बाद बंद हो गईं। अभी भी शिवाकाशी में करीब 8 लाख लोगों का पेट पटाखों की बदौलत पल रहा है।

दिवाली पर पटाखों पर रोक ने इस कारोबार की कमर ही तोड़ दी है। ये लोग समझ नहीं पा रहे कि दिवाली पर लक्ष्मी की आराधना करें या बाहर अमावस की काली रात को देखें। एक दिवाली को धमाकेदार बनाने के लिए शिवाकाशी में साल भर पटाखा‍ निर्माण चलता है। हमारे देश में पटाखों का बाजार करीब 600 अरब रुपए का है। दुनिया में पटाखा निर्माण में नंबर दो होने के बाद भी हम पटाखों का निर्यात नहीं करते। क्योंकि घरेलू खपत ही काफी होती रही है। पटाखों पर रोक के बाद इसकी भरपाई कैसे होगी, यह भी गंभीरता से सोचने वाली बात है।

वैसे शोर और प्रदूषण करने वाले पारंपरिक पटाखों का एक विकल्प ग्रीन पटाखों के रूप में आया है। ग्रीन से तात्पर्य इन पटाखों का इको फ्रेंडली होना है। इन्हें ‘ग्रीन क्रेकर्स’ भी कहते हैं। इन्हें हमारे सीएसआईआर और नीरी के वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। ये पारंपरिक पटाखों की तुलना बहुत कम नुकसानदेह हैं। इन पर ग्रीन पटाखों का लोगो भी रहता है। पर्यावरण रक्षा की हर हामी के बाद भी हर दीपावली प्रेमी के मन में सुलगता सवाल यही है कि बिन पटाखे दिवाली कैसी?

लोक मानस में यह बात सदियों से पैठी है कि दीपपर्व पर प्रकाश की सत्ता का ऐलान तो पटाखों के धमाकों से ही होता है। वह आनंद की रंगबिरंगी गर्जना भी है। शायद इसीलिए बच्चों को होली से भी ज्यादा इंतजार दिवाली का होता है। बिना धूम धड़ाके के लक्ष्मी का आना भी क्या आना? दिवाली पर पटाखे न चलें तो अमावस की रात जगमगाते दीयों की लौ क्या अपने को अकेला महसूस नहीं करेगी? तरह खामोशी से रोशन होना भी क्या रोशन होना? इस बार यह सदियों की जुगलबंदी सिर्फ इसलिए टूटेगी, क्योंकि पटाखों ने अपनी हदें लांघनी शुरू कर दी थीं। वो प्रकाश की आभा को जहरीली हवा में बदलने लगे थे।

जो भी हो, पटाखों पर यह अंकुश दुखदायी तो है, वरना रस्सी बम और फुलझड़ी में भी छेड़खानी भरा रिश्ता हमेशा रहता आया है। इस बार फुलझड़ी को भी अकेले ही चलना होगा। हो सकता है ‍बहुत से लोग इस दिवाली राहत महसूस करें कि न तो कानफोडू शोर है और न ही आसमान में तैरता काला धुआं। सब कुछ भला-भला सा है। लेकिन कइयों को (इसे राजनीतिक अर्थ में न लें) ये गीत उदास भी कर सकता है-‘एक वो भी दिवाली थी, एक ये भी दिवाली है’…!

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