दस मार्च को मैंने अपने इस कॉलम का शीर्षक दिया था- ‘’जीने का न हो पर सम्मान से मरने का अधिकार तो मिला’’ वह कॉलम पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा इच्छामृत्यु को लेकर दिए गए एक फैसले पर आधारित था। लेकिन पिछले 15 दिनों के दौरान मुझे जो अनुभव हुआ है उसे देखते हुए मैं इस शीर्षक को वापस लेना चाहता हूं।
मेरे इस कथन के पीछे हमारे परिवार में हाल ही में घटी एक ऐसी घटना है जिससे न सिर्फ किसी परिवार के बल्कि पूरे समाज के वो मसले जुड़े हैं जिन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। पूरे घटनाक्रम के दौरान जो स्थितियां बनीं उनसे गुजरते हुए मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि विकास के तमाम दावों और 21वीं सदी की जागरूकता के बखान के बावजूद आज भी वे स्थितियां और मानसिकता मौजूद है जो कभी एक दो शताब्दी पहले रही होंगी।
जिस घटना का मैं जिक्र कर रहा हूं उसमें हमने अपने परिवार की एक महिला सदस्य को खोया। यह उसी से जुड़ी कहानी है। जिस दिन पूरा भोपाल शहर रंगपंचमी के रंगों से सराबोर हुआ जा रहा था, हम 50 साल की उस बीमार परिजन को लेकर अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे थे। हमें नहीं पता था कि रंगों के त्योहार का दिन हमारे परिवार को बेरंग करने का संदेश लेकर आया है।
उस दिन सुबह मेरे पास फोन आया कि मेरी पत्नी की भाभी ममता को हाथ में बहुत दर्द है। सब कुछ करने के बाद भी दर्द कम नहीं हो रहा। चूंकि ममता स्पांडलाइटिस और कमर में दर्द की पुरानी मरीज थी, लिहाजा सभी मान रहे थे कि यह असहनीय दर्द उसी का परिणाम है। दर्द बहुत ज्यादा था इसलिए पिछली रात को उसे घर के नजदीक भोपाल के जीवन ज्योति नर्सिंग होम में भरती करा दिया गया था। लेकिन सुबह होते होते जब मामला ठीक होता न लगा तो मुझसे कहा गया कि मैं किसी और डॉक्टर से सलाह लूं।
हाथ में दर्द के साथ ही एक और सूचना नत्थी थी कि पेशेंट को पानी पीने में दिक्कत हो रही है। मैंने अपने परिचित डॉक्टर अनिल गुप्ता से संपर्क किया और उनसे बात कर हमने ममता को उनके अक्षय अस्पताल में शिफ्ट कर दिया। वहां जांच का सिलसिला शुरू हुआ और इसी दौरान डॉक्टर गुप्ता ने पूछा कि इन्हें हाल ही में किसी जानवर या कीड़े ने काटा तो नहीं है। सभी ने कहा कि ऐसी तो कोई बात याद नहीं आती।
जिस समय डॉक्टर ममता को देख रहे थे मैं अस्पताल में मौजूद था और जांच करते हुए डॉक्टर के माथे पर चिंता की रेखाएं साफ पढ़ रहा था। मैंने कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने मेरी बात पूरी होने से पहले ही मुझे रोकते हुए कहा- ‘’मैं अभी आपको कुछ भी नहीं बता पाऊंगा… मामला हाथ दर्द का नहीं है, मुझे कुछ और शंका हो रही है।‘’ वे किसी और निष्कर्ष की ओर इशारा करना चाहते थे लेकिन परिवारवालों के यह कहने पर कि पेशेंट को किसी कीड़े या जानवर ने नहीं काटा है, डॉक्टर ने जांच की दिशा दूसरी ओर मोड़ी और सलाह दी कि ममता किसी न्यूरोलॉजिस्ट को दिखाना होगा।
अस्पताल के ही न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. अजीत वर्मा ने ममता को देखा और लक्षणों के आधार पर ‘बल्बर पॉल्सी’ नामक किसी बीमारी की आशंका जताई। डॉक्टरों ने हमसे कहा कि हो सकता है पेशेंट को जल्दी ही ऑक्सीजन पर रखना पड़े, साथ ही उसका एमआरआई भी कराना होगा। चूंकि एकसाथ ऐसा करने की सुविधाएं हमारे अस्पताल में नहीं हैं इसलिए आप इन्हें बंसल अस्पताल ले जाएं। बताया गया कि बंसल अस्पताल में ऐसी सुविधा है कि ऑक्सीजन पर रखे गए मरीज को बगैर कहीं और ले जाए वहीं एमआरआई कराई जा सकती है।
असहनीय दर्द झेल रही ममता को लेकर हम बंसल अस्पताल पहुंचे। वहां इमरजेंसी में पेशेंट को भरती करने की औपचारिकताएं पूरी कर ही रहे थे कि ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर प्रतीक शर्मा ने ममता के पर्चे देखे और जो बीमारी डॉ. अजीत वर्मा ने बताई थी उसी की ओर इशारा करते हुए उस बीमारी का हमें तफसील से ब्योरा देने लगे। उन्होंने यह संकेत भी दे दिया कि इस बीमारी का इलाज लंबा चलता है फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता। लगे हाथ यह बताना भी उन्होंने अपना ‘कर्तव्य’ समझा कि इसका इलाज बहुत महंगा है और इसकी दवाइयां ‘’लाख,डेढ़ लाख… दो लाख तक जाती हैं।’’
हैरानी की बात यह थी कि ये सारी बातें ममता के सामने हो रही थीं और कोई नहीं जान रहा था कि पीड़ा से गुजरती उस महिला पर यह सवाल कैसा बिजली बनकर गिरा होगा कि क्या वह बस कुछ ही दिनों की मेहमान है? अपने जीवन की धूमिल संभावना लेकर थोड़ी देर बाद ममता आईसीयू में भरती हो गई। वहां बताया गया कि डॉक्टर ओपी लेखरा के अधीन उसका उपचार होगा।
ममता की जांच करके बाहर आए डॉ. लेखरा ने थोड़ी ढाढस बंधाने वाली बात की। उन्होंने बताया कि संभवत: यह संक्रमण पूर्व में किसी बीमारी के वायरस के कारण भी हो सकता है। जीबीएस (गुइलेन बेर सिंड्रोम) का इलाज लंबा चलता है। लिहाजा हमें धीरज रखना होगा। हमारे लिए सबसे बड़ी राहत की बात यह थी कि जिस डॉक्टर के अधीन ममता का उपचार होना था उसने अपने सहयोगी की उस बात को नहीं दोहराया जिसने पहले ही कह दिया था कि ऐसे मरीज बहुत ‘रेयरली’ बच पाते हैं।
डॉक्टरों की इस ‘अकादमिक समझाइश और डेडली काउंसलिग’ ने जब हमें ही हिला दिया था तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि खुद ममता का क्या हाल हुआ होगा। वह दर्द से बेहाल जरूर थी लेकिन अस्पतालों की औपचारिकताओं के दौरान खुद से चलकर स्ट्रेचर पर लेटने और व्हील चेयर पर बैठने की हिम्मत उसमें मौजूद थी। जीवन को लेकर चिंताओं से घिरी होने के बावजूद वह पूरी चैतन्य थी और लगातार हम लोगों से बात करते हुए घर ले चलने का आग्रह कर रही थी।
डॉक्टरों की बातचीत ने उसे डरा दिया था। परिवार के दबाव में उसने भरती होना तो मंजूर कर लिया लेकिन उसके हाव भाव बता रहे थे कि वह अस्पताल में आश्वस्त महसूस नहीं कर रही। और मरीज का मनोबल तोड़ दिए जाने का नतीजा क्या होता है वह भी चंद घंटों बाद हमारे सामने आ गया…
कल पढ़ें- चंद घंटों बाद क्या हुआ?
Behad shrmnak ravaiya doctors ja