वे बोले- ‘’इस पेशेंट को हम अस्‍पताल में नहीं रख सकते’’

एक पखवाड़ा मौत के साथ-2

अस्‍पताल में हम पूरी शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि डॉक्‍टरों की बातचीत ने ममता के मनोबल पर बहुत बुरा असर डाला है। लेकिन हमारे पास कोई चारा भी नहीं था। ऐसे माहौल का नतीजा यह हुआ कि जब ममता को एमआरआई के लिए ले जाया गया तो उसने एमआरआई कक्ष में जाने के बाद वहां जांच कराने से इनकार कर दिया। वैसे भी यदि आपका पहली बार सामना हो रहा हो तो एमआरआई की मशीन किसी को भी डरा सकती है। वहां के तामझाम देखकर व्‍यक्ति का हाइपर हो जाना या डिप्रेशन में चले जाना सामान्‍य बात है। फिर ममता को तो मौत का डर दिखाया जा चुका था।

खैर… डॉक्‍टरों ने एमआरआई कराने की दो बार कोशिश की पर वे सफल नहीं हो सके। जब चेतन अवस्‍था में एमआरआई कराने के प्रयास नाकाम रहे तो डॉक्‍टरों ने प्‍लान बनाया कि उसे बेहोश करके यह जांच की जाएगी। हमसे कहा गया कि अगले दिन सुबह उसे एनेस्थिशिया देकर यह जांच करेंगे। उधर चारों तरफ से निगेटिव खबरें सुनने के बाद ममता हाइपर हो चली थी। जब अगले दिन सुबह डॉक्‍टर के नियमित राउंड के समय उसने आंखों की जांच करते डॉक्‍टर का टॉर्च झटक दिया। इस घटना का नतीजा यह हुआ कि डॉक्‍टरों ने अपनी जांच की दिशा को दूसरी तरफ मोड़ दिया।

दिन में जब हम संबंधित डॉक्‍टर से मिलने गए तो उन्‍होंने पेशेंट के इस ‘एग्रेशन’ पर हैरानी जताते हुए कहा कि आमतौर पर ‘जीबीएस’ के मरीज इस तरह का व्‍यवहार नहीं करते, वे शांत पड़े रहते हैं। डॉक्‍टर ने कहा कि वे इस मामले में मनोचिकित्‍सक की राय भी लेंगे। हमने हालांकि डॉक्‍टरों को बताया कि ममता तो बहुत सहज और सक्रिय रही है, हां, जांच आदि से वह थोड़ा असहज महसूस करती है बस… तो डॉक्‍टर बोले- फिर आप उनसे कहिए कि वे जांच कराने में सहयोग करें, बिना बेहोशी के एमआरआई हो जाने दें, इसमें उनकी ही भलाई है।

डॉक्‍टर के कमरे से निकलकर हम लोग एमआरआई कराने के लिए बच्‍चों की मदद से ममता को राजी करने की कोशिश कर ही रहे थे कि, डॉक्‍टरों ने बुलाकर हमें जो कहा उसने हमारे होश उड़ा दिए… हमें इधर उधर से पता चला कि ममता के परीक्षण के लिए कोई महिला डॉक्‍टर आई थी और उसने आशंका व्‍यक्‍त की है कि ममता को रेबीज है। उसका पानी न पी पाना या पानी से चौंकना हाइड्रोफोबिया का लक्षण है। यानी चंद सेकंड पहले जिस मरीज को ‘बल्‍बर पॉल्‍सी‘ या जीबीएस का शिकार बताया जा रहा था अब वह दूसरी लाइलाज बीमारी का पेशेंट बन गई थी।

इस नई सूचना पर यकीन करना हमारे लिए मुश्किल था। क्‍योंकि घर में किसी के पास यह जानकारी नहीं थी कि ममता को हाल के दिनों में किसी कुत्‍ते ने काटा है। लेकिन डॉक्‍टरों ने बताया कि पूछताछ के दौरान खुद पेशेंट ने यह बात बताई है कि दो तीन माह पहले गली के एक कुत्‍ते ने उसे खरोंच लिया था। यह खुलासा पूरे परिवार को हैरान कर देने वाला था। तभी हमें याद आया कि अक्षय अस्‍पताल में डॉ. गुप्‍ता क्‍यों बार बार पूछ रहे थे कि पेशेंट को कभी किसी जानवर या कीड़े ने काटा तो नहीं है?

इस नई और दहला देने वाली सूचना की दहशत को जैसे तैसे जज्‍ब कर हम इलाज के अगले प्‍लान पर सोच ही रहे थे कि अस्‍पताल प्रबंधन की ओर से हमें सूचना दी गई कि रेबीज के पेशेंट को रखने के लिए हमारे पास अलग जगह नहीं है इसलिए आप अपने पेशेंट को यहां से ले जाएं, हम उसे तत्‍काल डिस्‍चार्ज कर रहे हैं। हमने कहा भी कि आपका जो खर्च बनता है हम उसे देने को तैयार हैं लेकिन आप कुछ तो करिए.. लेकिन प्रबंधन का कहना था कि ऐसे पेशेंट को आइसोलेशन में रखना होता है और उसकी व्‍यवस्‍था हमारे पास उपलब्‍ध नहीं है इसलिए आप पेशेंट को यहां से ले जाएं…

अब जरा कल्‍पना कीजिए उस परिवार की जो अपने एक सदस्‍य को इलाज के लिए शहर के सबसे बड़े और सुविधासंपन्‍न अस्‍पताल में लाया हो और वहां से कह दिया जाए कि आप तो अपना पेशेंट तत्‍काल यहां से ले जाइए। अस्‍पताल प्रबंधन ने इसी बीच डिस्‍जार्च पेपर तैयार करने शुरू कर दिए। हमने पूछा कि उसे कहां लेकर जाएं तो हमें बताया गया कि सरकारी हमीदिया अस्‍पताल में ऐसे मरीजों को रखे जाने की सुविधा है हम उसे वहां के लिए रेफर कर रहे हैं। आप अपनी एंबुलेंस का इंतजाम कर लीजिए…

यानी उस ‘मरीज’ के लिए अस्‍पताल अपनी एंबुलेंस देने को भी तैयार नहीं था। खैर हमने बाहर से एक एंबुलेंस बुक कराई और आनन फानन में डिस्‍जार्च कर दिए गए अपने ‘पेशेंट’ को लेकर पूरा परिवार हमीदिया अस्‍पताल भागा। राजधानी में, एक ही दिन में, हम अपने मरीज को लेकर यह चौथा अस्‍पताल बदल रहे थे। हमें पहले ही बता दिया गया था कि आज रंगपंचमी की छुट्टी है इसलिए वहां बहुत कम स्‍टाफ होगा, आपको मैनेज करना पड़ेगा।

अपने संपर्कों का इस्‍तेमाल करते हुए हमने कहीं से हमीदिया के अधीक्षक डॉ. दीपक मरावी को फोन करवाया कि कम से कम वे इतनी ‘मेहरबानी’ करवा दें कि हमारा पेशेंट अस्‍पताल में भरती कर लिया जाए। परिवार के लिए यह शायद पहला मौका था जब किसी सरकारी अस्‍पताल में मरीज को भरती करवाने के लिए भी सिफारिश लगवाने की नौबत आई हो। लेकिन शायद हमारी किस्‍मत ही खराब थी। बंसल अस्‍पताल से दिया गया रेफरल पर्चा और मरीज को देखने के बाद इमरजेंसी ड्यूटी पर मौजूद डॉक्‍टरों ने सीधा जवाब दे दिया, यह तो रेबीज का मरीज है इसका कोई इलाज नहीं, हम इसे कहां रखेंगे…

यह जवाब सुनकर मैंने डॉ. मरावी को फोन लगाकर मदद मांगी, उनका जवाब था मैंने सीएमओ को बता दिया है आप उनसे मिल लीजिए। उधर सीएमओ ड्यूटी पर मौजूद डॉक्‍टरों की एक तरह से मिन्‍नतें कर रहे थे कि यार कुछ करो, साहब का भी फोन आया है। और वहां मौजूद डॉक्‍टर का जवाब था- ‘’तो साहब से ही पूछ लो, कहां रखेंगे इस पेशेंट को…’’

कल पढ़ें- क्‍या हुआ ममता के साथ हमीदिया अस्‍पताल में…

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