बुधवार को देश की संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मैराथन भाषण हुए। बजट सत्र के आरंभ में हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की चर्चा का समापन करते हुए मोदी ने लोकसभा और राज्यसभा में हर उस मुद्दे को छुआ जो इन दिनों देश की राजनीति और समाज में चर्चा का विषय है।
दोनों सदनों को मिलाकर प्रधानमंत्री करीब तीन घंटे बोले होंगे। लेकिन मुझे उनके भाषण के दो प्रसंग बहुत ही दिलचस्प और संभावनाशील लगे। पहला प्रसंग वह था जब उन्होंने आधार कार्ड को लेकर व्यक्त की जा रही आलोचनाओं और आशंकाओं का जिक्र किया। एक समय आधार की कटु आलोचना करने वाले मोदीजी को आधार की वकालत करते देखना एक अलग ही अनुभव था।
प्रधानमंत्री ने कहा- कांग्रेस हमेशा कहती है कि आधार हम लेकर आए। मगर मैं उन्हें 1998 में राज्यसभा में लालकृष्ण आडवाणी का कथन याद दिलाना चाहूंगा। पीएम ने बताया कि उस समय सदन के सदस्य और वर्तमान में सदन के सभापति वेंकैया नायडू ने एक सवाल पूछा था जिसके जवाब में तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी ने देश में एक यूनीफाइड पहचान पत्र की जरूरत पर जोर दिया था। मोदीजी के अनुसार वह विचार आज के आधार का बीजारोपण था।
प्रधानमंत्री ने लोकसभा में भी आधार का जिक्र करते हुए कहा कि इसकी योजना भले ही कांग्रेस सरकार में बनी हो लेकिन इसे व्यापक वैज्ञानिक आधार देने का काम हमारी सरकार ने किया है। आज सैकड़ों सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ इसके जरिए जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने का काम हमारी सरकार कर रही है।
दूसरा जिक्र प्रधानमंत्री ने एनपीए का किया। उन्होंने सीधे सीधे कहा कि ये कांग्रेस की नीतियों का नतीजा था और हमारी सरकार ने इसे खत्म करने के लिए कदम उठाया। एनपीए पर कांग्रेस के पाप को जानते हुए भी मैं चुप था लेकिन देश सब जानता है। इसके लिए कांग्रेस सौ फीसदी जिम्मेदार है क्योंकि उसीने गलत बैंकिंग नीतियां बनाईं, बैंकों पर दबाव डालकर चहेतों को लोन दिलवाए गए। बैंक, सरकार और बिचौलियो के गठजोड़ से देश लूटा जा रहा था।
प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि एनपीए आपका पाप था। हमारी सरकार आने के बाद हमने एक भी लोन ऐसा नहीं दिया, जिसमें एनपीए की नौबत आई हो। कांग्रेस ने बताया था कि एनपीए 36 प्रतिशत है लेकिन हमने जब कागजात खंगालने शुरू किए तो यह 82 फीसदी निकला।
दरअसल बैंक से लोन लेने वाला कोई देनदार जब अपनी किस्तें चुकाने में नाकाम रहता है, तब उसका लोन खाता नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) करार दे दिया जाता है। इसे बैड लोन भी कहते हैं। सामान्य तौर पर देनदारी की लिमिट खत्म होने के बाद 90 दिनों के अंदर भुगतान न होने की स्थिति में उस खाते को एनपीए की श्रेणी में डाला जाता है।
अब मैं जो बात करना चाहता हूं वह प्रधानमंत्री के भाषण में किए गए दावों से ही जुड़ी है और कई सवाल खड़े करने के साथ साथ चिंता में भी डालती है। पहली बात आधार कार्ड को लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की है। निश्चित रूप से आधार ने देश की कई योजनाओं को संचालित करने की धुरी के रूप में काम किया है, लेकिन खुद सरकार ने ही संसद में इस बात को भी मंजूर किया है कि आधार संख्या का उपयोग कर धोखाधड़ी से बैंक खातों से रकम निकाले जाने की घटनाएं हो रही हैं।
वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ल का राज्यसभा में दिया गया जवाब बताता है कि छह ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के चार बैंकों ने अपने यहां से आधार डाटा के जरिए धोखाधड़ी कर डेढ़ करोड़ रुपए से अधिक की रकम निकाल लिए जाने की सूचना दी है। और ये तो वे मामले हैं जो रिपोर्ट हुए हैं, देश में बड़ी संख्या में ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिनमें आधार डाटा का दुरुपयोग कर लोगों के साथ धोखाधड़ी हो रही है।
यदि एनडीए सरकार यह दावा करती है कि उसने आधार को एक वैज्ञानिक आधार दिया है और उसे प्रभावी तरीके से लागू किया है, तो आधार डाटा के दुरुपयोग और उसके जरिए होने वाली धोखाधड़ी की जिम्मेदारी भी उसे लेनी होगी। यदि सरकार का सिस्टम फुलप्रूफ है तो फिर डाटा का गलत इस्तेमाल कैसे हो रहा है?
दूसरा मामला एनपीए का है। प्रधानमंत्री ने एनपीए के लिए कांग्रेस की सरकार को शत प्रतिशत दोषी ठहराया है। यदि पीएम ने संसद में यह बात कही है तो फिर मानकर चला जाना चाहिए कि वह सच ही होगी। लेकिन कांग्रेस को तो इस देश की जनता ने 2014 में नकार कर सत्ता से बाहर कर दिया था। आज तो देश में एनडीए की सत्ता है।
यदि कांग्रेस ने देश के लाखों करोड़ रुपए एनपीए किए हैं तो वर्तमान सरकार का दायित्व बनता है कि वह इसके दोषी लोगों को सामने लाकर उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करते हुए सजा दिलवाए। माल्या जैसे लोग यदि आज भी कानून के शिकंजे से बाहर हैं या उसके जैसे और भी लोग कानून को धता बताकर बैठे हैं तो सरकार क्या कर रही है? वह हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी है।
कायदे से इस मामले में वर्तमान सरकार की भूमिका पर भी कम उंगलियां नहीं उठतीं। यकीन न आए तो वित्त मंत्रालय द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग को दिया गया वह जवाब देख लीजिए जो उसने विजय माल्या मामले में दिया है। वित्त मंत्रालय का साफ कहना है कि उसके पास माल्या को दिए गए कर्ज के बारे में जानकारी नहीं है।
लेकिन खबरों के मुताबिक सरकार शायद जानबूझकर सूचना आयोग के समक्ष सही जानकारी प्रस्तुत नहीं कर रही है। ऐसा इसलिए है कि केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री संतोष गंगवार ने 17 मार्च 2017 को माल्या से संबंधित एक सवाल का जवाब देते हुए संसद में बताया था कि 2009में माल्या के 8040 करोड़ रुपये के कर्ज को एनपीए घोषित किया गया और 2010 में एनपीए को रिस्ट्रक्चर किया गया। गंगवार ने यह भी बताया था कि माल्या की जब्त की गई संपत्तियों की मेगा ऑनलाइन नीलामी के जरिए 155 करोड़ रुपये की रकम वसूल की गई है।
अब यदि संसद में दी गई जानकारियां, सूचना आयोग से छिपाई जा रही हैं, तो आज मामले को दबाने का जिम्मेदार कौन है? आखिर माल्या से संबंधित आंकड़े सामने न आने देने में किसका हित या अहित है?