जो मजदूरों की पीड़ा से भी जलते हैं

अरुण कुमार त्रिपाठी

अपने व्हाट्सऐप पर एक चौंकाने वाली पोस्ट आई। इसे किसी देवेंद्र कुमार सिंह ने लिखा है। वे लिखते हैं- “ऐसा लग रहा है कि देश में सिर्फ मजदूर ही रहते हैं… बाकी क्या भटे बघार रहे हैं। अब मजदूरों का रोना धोना बंद कीजिए। मजदूर घर पहुंच गया तो उसके परिवार के पास जाब कार्ड होगा… राशन कार्ड होगा। सरकार मुफ्त में चावल और आटा दे रही है। जनधन खाते में मुफ्त में दो हजार रुपए भी मिल गए होंगे, आगे भी मिलते रहेंगे। बहुत हो गया मजदूर मजदूर।”

अब जरा उसके बारे में भी सोचिए… जिसने लाखों रुपए का कर्ज लेकर प्राइवेट कालेज से इंजीनियरिंग किया था और अभी कंपनी में पांच से आठ हजार की नौकरी पा गया था (मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी से भी कम) लेकिन मजबूरीवश अमीरों की तरह रहता था। बचत शून्य है। जिसने अभी-अभी नई-नई वकालत शुरू की थी… दो चार साल तक वैसे भी कोई केस नहीं मिलता। जब थोड़ी बहुत कमाई बढ़ती है, दस पंद्रह हजार होती है तो कार वार खरीदने की मजबूरी आ जाती है।….’’

पोस्ट लंबी है और इसमें उन लोगों का भी वर्णन है जो दिल्ली या इंदौर में आईएएस, पीसीएस का सपना लेकर गए थे और मजदूर का वेश बनाकर पैदल निकल आए। पोस्ट में कहा गया है कि वह मध्यवर्गीय युवक गरीबी और मजबूरी की दुकान नहीं सजाता। लेकिन उसकी भी दशा बहुत खराब है।

यह पोस्ट बताती है कि भारत का मध्यवर्ग कितना हृदयहीन और सरोकार हीन हो चुका है। उसे इस बात से भारी चिढ़ है कि मीडिया जो अब तक मध्यवर्ग के सपने बेचता था, वह अचानक मजदूरों का दुख दर्द बेचने लगा है। यहीं पर कुछ मुखपोथी पहलवान (फेसबुक ट्राल) ऐसे भी निकल आए हैं जो किसी पार्टी दफ्तर से बैठकर अंकगणित का जोड़ घटाना निकालकर मीडिया की खबरों का खंडन करने वाली पोस्ट तैयार कर रहे हैं।

वे उन खबरों को झूठ बताते हैं जिसमें दिखाया जाता है कि ज्योति जैसी लड़की गुरुग्राम से दरभंगा तक 1200 किलोमीटर की दूरी अपने पिता को साइकिल पर बिठाकर तय करती है। उनकी पोस्ट बताती है कि ऐसा भौतिक रूप से संभव नहीं है इसलिए यह सब झूठ है। यानी मजदूर वर्ग के पलायन, पीड़ा और बहादुरी की कहानियां सब गलत हैं।

क्योंकि वह नहीं चाहता कि नायकत्व मध्यवर्ग से बाहर जाए। वह नहीं चाहता कि कोरोना वॉरियर कोई और बन जाए। खासकर वह मजदूर तबका जो सुबह किसी बड़े शहर की लेबर मार्केट में बिकने के लिए बैठता है और शाम को दिहाड़ी लेकर लौटता है। बाकी सारा दिन शहर में अदृश्य रहता है।

एक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की यह टिप्पणी तो और भी रोचक है कि भारत में सब लोग गंदे तरीके से रहते और खाते पीते हैं इसलिए वायरस उनका कुछ नहीं बिगाड़ लेगा। उनकी प्रतिरोधी क्षमता कितनी मजबूत है। देखो न यूरोप अमेरिका में स्वच्छ तरीके से रहने वालों की क्या दशा हो गई है। उनसे जब यह पूछा कि अगर आप यही चाहते हैं कि सब लोग गंदे तरीके से रहें तो फिर प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान क्यों चलवाया, तो वे मौन हो जाते हैं।

मध्य वर्ग का यह मजदूर विरोधी मानस उसी मीडिया ने तैयार किया है जो पिछले तीस सालों में उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया में डूब उतरा रहा है। उस मीडिया में मजदूरों की खबरें दिखाए जाने की निरंतर मनाही होती जा रही थी। वहां के मैनेजर संपादकों को यह समझाते थे कि हमें एसईसी-वन यानी स्पेशल इकानॉमिक क्लास वन की खबरें दिखानी चाहिए। क्योंकि वे ही विज्ञापनदाता हैं और वे ही बड़े विज्ञापन में दिखाए जाने वाले उपभोक्ता सामान खरीदते हैं।

मजदूर, झुग्गी बस्ती और ट्रेड यूनियन की खबरें तभी दिखानी चाहिए जब किसी प्रकार की आपदा या हिंसा हो। वहां भी उन खबरों को इसी रूप में पेश करना चाहिए कि मजदूर वर्ग की गतिविधियां या राजनीति, शहर और विकास की गति को अवरुद्ध करते हैं। इसलिए लंबे समय से अखबारों और टीवी चैनलों में मजदूर बीट गायब होती चली गई और श्रम मंत्रालय की खबरें अगर की भी जाती थीं तो यह पता करने के लिए कि श्रम सुधारों की गति कितनी तीव्र है।

इसलिए मध्यवर्ग इस बात से हैरान है कि मध्यवर्गीय खबरों, धारावाहिकों और विज्ञापनों पर केंद्रित मीडिया अचानक क्यों मजदूरों की खबरें दिखाने लगा? उसकी चिढ़ स्वाभाविक है क्योंकि यह मीडिया तो उसका है, यह देश उसका है, यह राष्ट्र उसका है और इसके सारे आख्यान वही तो रचता है।

वह यह भी मानता है कि केंद्र सरकार ने लॉकडाउन तो मध्यवर्ग की सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया, उसी को ध्यान में रखकर बालकनी में थाली बजवाई, बत्तियां बुझवाईं, लेकिन मजदूर वर्ग उसका उल्लंघन कर रहा है। फिर उसके पलायन को मुद्दा बनाकर क्यों दिखाया जा रहा है?

दरअसल मीडिया यह अपराध दो उद्देश्यों से कर रहा है। एक तो इस तालाबंदी के समय में उसके पास न तो बाजार की रौनक है और न ही खेल और मनोरंजन की खबरें। उस पर विज्ञापन का पहले जैसा दबाव भी नहीं है। उसके पास राजनीतिक गतिविधियों और आयोजनों के समाचार भी नहीं हैं और न ही धार्मिक गतिविधियों की खबर। स्कूल कालेज बंद हैं और माल वगैरह भी नहीं खुले हैं। सिनेमा बंद हैं तो टीवी धारावाहिकों की शूटिंग भी रुकी है। ऐसे में मीडिया करे तो क्या करे?

मीडिया ने यह खबरें किसी विशाल हृदय परिवर्तन के चलते नहीं बल्कि सामग्री की कमी के चलते दिखाई हैं। उसने सरकार के तमाशे को खूब दिखाया है, और दिखाई है आर्थिक पैकेज पर वित्त मंत्री की पांच दिन की प्रेस कांफ्रेंस। उसने तब्लीगी जमात की कहानी भी भरपूर दिखाई और देश को एक खास राजनीति के लिए जो संदेश देना था वह दे चुका है।

लेकिन 24 घंटे का मीडिया बासी खबरों के सहारे चल नहीं सकता। उसे कुछ ताजे विजुअल चाहिए। नई कहानी चाहिए। कुछ विचित्र किंतु सत्य चाहिए। इसलिए मीडिया के एक हिस्से ने मजदूरों का पलायन इसलिए दिखाया कि देखो ये लोग किस तरह से सरकार के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं। वे शहर से कोरोना का संक्रमण अब गांव में लेकर जा रहे हैं। दूसरे हिस्से ने उसे एक मानवीय समस्या और सरकार की नाकामी के रूप में भी प्रस्तुत किया।

मजदूरों का इस तरह राजमार्गों पर और मीडिया के रुपहले परदे पर प्रकट होना मध्य वर्ग को अखरा है। क्योंकि मजदूरों ने स्वार्थी मध्य वर्ग को नंगा भी किया है और नंगा किया है सरकार को भी। हालांकि मीडिया के राष्ट्रवादी हिस्से ने पाकिस्तान, नेपाल, चीन और मध्य पूर्व एशिया की खबरों के माध्यम से ध्यान बंटाने की कोशिश की है।

तमाम ऐसे चैनल हैं जहां पर अभी भी पुलवामा की यादें और अभिनंदन का गुणगान चलता ही रहता है और पाकिस्तान के दो एक जमूरे बैठकर एंकर की गालियां सुनते रहते हैं। इसी बीच अगर कुछ सरकारों ने मजदूर कानूनों को खत्म किया और कुछ ने माइग्रेशन आयोग बनाने की तैयारी की तो वह भी इन खबरों के प्रभाव में या उसके संबंध में हुए फैसले दिखते हैं।

मजदूर बहस के एजेंडे में आ चुका है। राजनीतिक दलों की कोशिश होगी और मध्यवर्ग की भी कि उसे किसी तरह से प्राइम टाइम से हटाए। जितनी जल्दी हो सके दबाए। यही वजह है कि अब कुछ राज्य यह तैयारी करने लगे हैं कि अगर किसी राज्य को मजदूर चाहिए तो वह वहां की राज्य सरकार से संपर्क करे।

यह वही स्थिति है जब यूरोप में पूंजीवाद के आरंभ में मजदूरों का एक जगह से दूसरी जगह जाना असंभव था। भारत में भी बंधुआ मजदूरी यही व्यवस्था करती है कि जमींदार और ठेकेदार की मर्जी के खिलाफ कोई मजदूर न तो भट्ठा छोड़कर जा सकता है न ही खदान और न ही खेत।

मजदूरों के स्वतंत्र आवागमन से मध्यवर्ग आहत है और आहत है शासक और पूंजीपति वर्ग। मजदूरों ने उन्हें नंगा देख लिया है और वह उन्हें इसकी सजा देगा। और जल्दी ही इसे रोकने का इंतजाम करेगा।

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