रमेश रंजन त्रिपाठी
‘देखो जी, अब बाजार से ऐसी थाली लेकर आना जिसमें खानेवाला छेद न कर सके।’ पत्नी ने खाना परोसने की तैयारी करते हुए फरमाइश की।
‘घर की थाली में तो हम लोग ही भोजन करते हैं।’ सुमेर ने आंखें मटकाईं- ‘क्या हमने कभी उसमें छेद करने की कोशिश की है?’
‘आप समझे नहीं।’ पत्नी बोली- ‘मैं तो मेहमानों को खाना खिलाने के लिए ऐसी थाली लाने की बात कह रही हूं।’
‘हमने तो बाजार में ऐसी थाली बिकते नहीं देखी।’ सुमेर ने सिर खुजलाया।
‘ऑनलाइन शॉपिंग में कोशिश करके देखो।’ पत्नी ने सुझाव दिया- ‘क्या पता किसी ने ऐसी थाली बनाई हो!’
‘हमने तो दो तरह की थालियां सुनी हैं, एक पूजा की और दूसरी भोजन की। आजकल थाली बजाने का चलन भी शुरू हो गया है लेकिन दुकान में अलग से बजानेवाली थाली बिकते नहीं देखी। जरूरत पड़ने पर लोग घर में मौजूद थाली को बजा लेते हैं। अगर बजाने के लिए बढ़िया झंकार निकालनेवाली थाली बनने लगे तो उसकी बिक्री खूब हो।’
‘तुम्हारी बातों से लगता है कि जल्दी ही ऐसी थाली भी बनने लगेगी जिसमें छेद नहीं हो पाएगा।’ पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘यकीन मानो, लोग खाने के पहले मेजबान से पूछा करेंगे कि इस थाली में छेद हो सकता है या नहीं!’ सुमेर को हंसी आ गई- ‘कुछ लोग तो उस निमंत्रण में जाएंगे ही नहीं जहां खानेवाली थाली में छेद न किया जा सके।’
‘किस थाली का बैंगन ज्यादा स्वादिष्ट माना जाएगा?’ पत्नी का चुहल का मूड अभी भी बना हुआ था- ‘ऐसी थाली के साथ पेंदी वाले लोटे की खूब पटेगी या बिना पेंदी वाले की?’
‘हंसी-मजाक छोड़ो और अपनी थालियों को चेक कर लो कि उसमें कोई छेद तो नहीं कर गया।’ सुमेर ने गंभीर होते हुए कहा।
‘कोरोना के चलते छह महीने से तो कोई आया नहीं।’ पत्नी ने सफाई दी- ‘इसके पहले कुछ हुआ हो तो पता नहीं।’
‘वैसे भी थाली में छेद करनेवाली बात ने हफ्ते भर पहले ही जोर पकड़ा है।’ सुमेर के चेहरे पर आश्वस्ति के भाव उभरे- ‘पहले कट्टर कृतघ्न लोग ही ऐसा करते होंगे, अब तो कई लोग वफादारी दिखाने के लिए खाने के बाद थाली फोड़ने लगें तो आश्चर्य कैसा?’
‘क्यों न हम प्लेट में खाना खानें लगें?’ पत्नी ने सुझाव दिया- ‘न रहेगी थाली, न हो पाएगा छेद!’
‘बात तो ठीक है।’ सुमेर कुछ सोचते हुए बोला-‘कभी थाली बजाने की नौबत आ गई तो क्या होगा?’
‘किसी से थाली उधार मांग लेंगे, कोई दूसरा बर्तन बजा देंगे या नई थाली खरीद लाएंगे।’ पत्नी के पास शंका का समाधान हाजिर था- ‘अभी क्यों चिंता करें।’
‘विदेशी समझदार थे इसीलिये प्लेट और बुफे का सिस्टम लेकर आए।’ सुमेर फिर हंस दिया।
‘तो क्या उनके यहां कोई खाने के बाद थाली में छेद नहीं करता?’ पत्नी की आंखें ताज्जुब से फैल गईं- ‘फिर तो कोई किसी के सामने से भरी थाली नहीं छीन पाता होगा! न ही कोई थाली को ठोकर मारता होगा?’
‘पता नहीं!’ सुमेर को जवाब नहीं सूझा- ‘अपनी किस्मत को सराहो जो थाली में भोजन मिल रहा है। पेट भरा होने से ठिठोली सूझ रही है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जिन्हें दो जून की रोटी मुश्किल से नसीब होती है। उनकी थाली क्या और थाली में छेद क्या?’
‘आप क्या कह रहे है?’ पत्नी ने चकित होने का नाटक किया- ‘यदि ऐसा होता तो न्यूज न बन जाती? अधिसंख्य खबरों के हिसाब से अभी देश के सामने सेलिब्रिटी की मौत, ड्रग के कनेक्शन, चीन, पाकिस्तान और सरकार के सहयोगी दलों के मतभेद जैसे दूसरे बड़े मसले मुंह बाए खड़े हैं। थाली भी मुद्दा है लेकिन भूख नहीं।’
‘अब क्या कहें?’ सुमेर ने उसांस ली और अपनी थाली को कृतज्ञ नजरों से देखते हुए खाना खाने बैठ गया।