जयराम शुक्ल
घुमाफिरा कर आँकड़ों में उलझने और उलझाने से पहले ये छोटे-छोटे चार सच्चे किस्से, फिर आगे की बात…
मेरे पड़ोस में एक इंजीनियर साहब हैं। हाल ही में उन्हें एक निर्माण परियोजना की नई साइट मिली है उसका बजट अरबों में है। मैंने यूँही बधाई दे दी- भई अब तो तुम्हारी चाँदी कटेगी, वे खुश होने के बजाय मायूसी के साथ बोले- भैय्या वे दिन अब हवा हो गए जब वाकई चाँदी कटा करती थी…अब तो कुछ रहा नहीं..।
मजदूरी सीधे उनके खाते में, नाप-जोख पेमेन्ट सब डिजिटलाइज। ट्रेजरी से सीधे खाते में पेमेंट। अपने हाथ कुछ बचा नहीं.. ऊपर से तीसरी आँख की नजर। मैने अफसोस व्यक्त करते हुए दिलासा दी ये तो वाकई पेट पर लात मारने जैसी बात हुई..। क्या आपको भी नहीं लगता कि भ्रष्टाचार करने में कुछ मुश्किलें तो बढ़ी हैं?
एक दिन मोहल्ले की किराना दुकान वाले भाई साहब ने जोरदार वाकया बताया। उनके ज्यादातर ग्राहक मोहल्ले के लेबर-मजदूर हैं। एक दिन मिस्त्रीगीरी करने वाले एक ग्राहक से यूँ ही मजाक में कह दिया- मिस्त्रीजी अब तो बस करो, घर में पहले से ही कई चहक रहे हैं और फिर नए का नंबर लगा दिया।
मिस्त्री बमक पड़ा- देखो महराज जब सरकारइ ने सब थाम रखा है तो आपकी छाती में नाहक दर्द क्यों? बच्चा पेट में आया तो गोद भराई का रुपया। तकलीफ हुई तो जननी प्रसव योजना। फिर पैदा हुआ तो दवाई और जचकी का खर्चा। खेलने-खाने के लिए आँगनवाड़ी। लड़की हुई तो लाड़ली लक्ष्मी का फिक्स डिपाजिट। लड़का हुआ तो पढ़ने से लेकर पोषक खाना, किताब, ऊपर से वजीफा।
काहे की चिंता.. दिन में सात सौ कमाता हूं, एक दिन की कमाई में माहभर का राशन। आज झुग्गी है कल प्रधानमंत्री आवास में शिफ्ट होंगे। महराज चिंता मत करिए मजे ही मजे हैं। आप तो सिर्फ़ अपनी ग्राहकी देखिए पिछली कोई उधारी हो तो बताइए..।
अभी पिछले हफ्ते एक प्रोफेसर मित्र ने बेटे को बारहवीं में फर्स्ट आने पर नई बुल्लेट का तोहफा दिया। मैंने पूछा- पेट्रोल-डीजल की इतनी कड़की पर भी बेटे को बाइक वह भी बुल्लेट..! वे बोले आखिर कमाता किसके लिए हूँ। डेढ़ लाख महीने मिलते हैं मियां-बीबी और एक बेटा-बेटी। तब स्कूटर मेंटेन करना मुश्किल था, आज कार से जाते हैं।
रही बात मँहगाई की तो उसे मॉल्स में, पब में, दारू घर अहाते में, जूलरी की दुकानों में, आटो डीलर्स के शो रूम्स में जाकर देख सकते हैं। वहां नहीं तो हर दूसरे हाथ में नए वर्जन के एन्ड्रायड मोबाइल। देखो न वेतन कहाँ से कहाँ पहुँच गया, चपरासी भी चालीस पार। कमाई है तभी न महंगाई है। ये सब राजनीति के चोचले हैं। दुनिया बदल रही है। यार कहाँ पड़े हैं अब भी वहीं के वहीं।
मेरे सहकर्मी के छोटे भाई की कंपनी को उसके मल्टीनेशनल स्पांासर ने बेस्ट स्टार्टअप कंपनी का सम्मान दिया, वह भी हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में आमंत्रित करके। तीन साल पहले अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर छोटी पूँजी के साथ काम शुरू किया था। आज 20 करोड़ रुपए सालाना टर्नओवर है। बीस-पच्चीस कर्मचारी हैं। काम आगे बढ़ नहीं दौड़ रहा है। मेरे सहकर्मी आज दफ्तर में यह खुशी बाँटते हुए वही लोकप्रिय उक्ति सुना रहे थे “जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ”।
ये चारों वाकये गढ़े हुए नहीं हैं यकीन न हो तो आकर तस्दीक़ कर सकते हैं।
गिलास आधा भरा है, या आधा खाली यह देखने का नजरिया आपका है। ऐसे कई उदाहरण आप अपने इर्द-गिर्द देख सकते हैं। दरअसल हमारा नजरिया अपने विवेक से ज्यादा थोपे हुए विचारों से बनता है, इसलिए किसी को गिलास आधा भरा हुआ दिखता है, किसी को आधा खाली।
नरेन्द्र मोदी की सरकार में इन चार वर्षों में काफी कुछ बदला है, हर क्षेत्र में..। अपने देश की सूरत भी और सीरत भी। असंतुष्ट होना हमारा स्थाई भाव है और विकास की भूख का बढ़ते जाना हमारा नागरिक धर्म। ये दोनों तत्व राजसत्ताओं को सुस्ताने नहीं देते। यदि ये न होते तो आज हम सेटेलाइट और डिजिटल युग तक कैसे पहुंच पाते।
तीन साल पहले जब मोदी सरकार के एक साल पूरे हुए थे तब एक वैचारिक पत्रिका चरैवेति का संपादन करते हुए मोदी सरकार पर केंद्रित एक विशेषांक निकाला था ‘बेमिसाल एक साल’। यह पंच लाइन सालभर खूब चली। अब साल दर साल जुड़ती चली आ रही है। पहला साल बेमिसाल इसलिए नहीं था कि कोई उपलब्धि हाथ लग गई थी। वह एक साल इसलिए बेमिसाल था क्यों इस अवधि में नए भारत की ठोस रूपरेखा तैयार की गई थी, फौलादी संकल्प के साथ। जी हाँ फौलादी संकल्प..!
आगे के तीन सालों में उन्हें देश ने यथार्थ रूप में परिणत होते देखा। पहला एक साल कुलमिलाकर विजनरी था। इस विशेषांक में मोदी के व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं पर भी प्रकाश डालने की कोशिश थी। गुजराती में लिखी गईं व हिंदी में अनूदित उनकी दस कविताएं भी हमने छापी थीं। मोदी जी के कठोर व्यक्तित्व के भीतर एक कोमल आदमी भी है जो प्रकृति की संवेदनाओं और मेहनतकश के पसीने के मूल्यों को भी अंतस से महसूस करता है।
तुलसी ने कवि को विज्ञान विशारद कहा है। हर यथार्थ की पृष्ठभूमि में कल्पना का कैनवास होता है। इसलिए जिन कल्पनाओं पर विरोधी मजाक और लतीफे गढ़ रहे थे आज जब वे एक के बाद एक यथार्थ के धरातल पर उतरते जा रहे हैं तो उन्हें किंतु-परंतु के क्षेपक के साथ पुनर्व्याख्यायित किया जा रहा है।
आँकड़ों के मकड़जाल से अलग हटकर देखें तो भी नंगी आँखों से काफी कुछ दिखता है। गांधी को समर्पित स्वच्छ भारत का जो अनुष्ठान शुरू हुआ यह उसका ही प्रताप है कि दुनिया के कई देशों के महापौर अपने प्रदेश के इंदौर शहर को देखने पहुंचे। हम जिस शहर में रह रहे हैं ईमानदारी से इसका आकलन करिए तो पाएंगे कि हमारे परिवेश और पर्यावास में आमूलचूल परिवर्तन आया है। कहीं कम और कहीं ज्यादा हो सकता है, क्योंकि काम करने वाले हमारे ही अपने हैं जो कभी अराजकता के गटरतंत्र का हिस्सा रहे हैं।
स्वच्छ भारत ही स्वस्थ्य भारत बना सकता है। तीन चौथाई बीमारियों की वजह वही सडांध है, जहाँ दस फीसद प्रभुवर्ग से अलग शेष नब्बे फीसद भारत रहता है। मोदीजी ने इस योजना को उन महात्मा गांधी के चरणों में समर्पित किया जिनके नाम को पिछले साठ सालों से कॉपीराइट की तरह इस्तेमाल करते हुए राजपाट चलाया जा रहा था।
इन चार सालों में मोदी सरकार के किसी मंत्री पर किसी बड़े या छोटे घोटाले का लांछन नहीं लगा। क्या यह कम उपलब्धि है? जो एक रुपया दिल्ली से चलकर दस पैसे में परिवर्तित होकर गांव पहुंचता था, यदि सड़क संरचनाओं और केंद्र की ग्रामीण योजनाओं को देखें तो लगेगा कि कम से कम साठ से सत्तर तक तो पहुंचता ही है। डिजिटलाइजेशन ने सब्सिडी के फर्जीवाड़े को न सिर्फ़ रोका बल्कि ऐसे लाखों-लाख भूत-प्रेतों को भी पकड़कर ठिकाने लगाया जिनके नाम से गरीबों का हक मारा जा रहा था। फर्जी मस्टर और भूत-प्रेतों की मजूरी में काफी कुछ अंकुश लगा है। भ्रष्टाचार का असाध्य कोढ़ भला इतनी जल्दी कहां ठीक होता है।
चार साल पहले तक हम दुनिया के मंचों में रिरियाते फिरते थे कि यहां पाकिस्तान घुसा वहां चीन ने अतिक्रमण किया.. हाय-हाय कोई मेरी सुने। और अब ये दोनों दुनिया के मंच पर वही कर रहे हैं क्या ये बदलाव नहीं दिखा..? आज दुनिया के बड़े से बड़े देश हमारी आर्थिक और सामरिक ताकत का नोटिस लेते हैं। क्या ये बदलाव हमें गर्वोन्नत नहीं करता? और भी बहुत से तथ्य हैं लेकिन वे तभी दिखेंगे जब आप निरपेक्ष भाव से देखना चाहें।
और अंत में इन चार सालों में नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रनिष्ठा पर, वे लोग भी अँगुली उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है जिनकी सुबह मोदी की लानत से शुरू होती है और रात की नींद मोदी की मलामत के साथ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)