मध्यप्रदेश में पिछले सप्ताह के अंत में शिक्षा से जुड़े दो बड़े आयोजन हुए। इनमें से एक की काफी चर्चा हुई और दूसरे को लेकर कुछ ही अखबारों ने खबरें प्रकाशित कीं। ऐसे आयोजनों का दुर्भाग्य यह है कि मीडिया में उनके महत्व को देखकर कवरेज नहीं होता। कवरेज का आकार प्रकार इस बात पर निर्भर करता है कि आयोजन में आने वाला वीआईपी कौन है।
इसी कारण उज्जैन में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय गुरुकुल सम्मेलन मीडिया में अपेक्षाकृत ज्यादा छपा क्योंकि उसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत से लेकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, राज्य मंत्री सत्यपालसिंह सहित अनेक लोगों की भागीदारी थी। यह सम्मेलन 28 से 30 अप्रैल तक चला और इसमें शिक्षा की प्राचीन गुरुकुल पद्धति की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए उन्हें आधुनिक समय में पुनर्स्थापित करने पर चिंतन हुआ।
दूसरा आयोजन 28 अप्रैल को भोपाल में हुआ जिसमें मानव संसाधन विकास मंत्रालय में स्कूली शिक्षा और साक्षरता मामलों के सचिव अनिल स्वरूप की मौजूदगी में 7 राज्यों के स्कूल शिक्षा विभाग के प्रतिनिधियों और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस पूर्व क्षेत्रीय कार्यशाला का उद्देश्य था भारतीय शिक्षा प्रणाली में किए जा रहे नवाचार पर बात करना।
जैसाकि मैंने पहले ही कहा इन दोनों कार्यक्रमों का कवरेज मीडिया में उनके राजनैतिक और वीआईपी महत्व को देखकर हुआ न कि उनके उद्देश्य को लेकर। मैं चूंकि दोनों कार्यक्रमों में नहीं था इसलिए जानना चाहता था कि शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर दो अलग अलग मंचों पर हुए विमर्श का निचोड़ आखिर क्या निकला? लेकिन मुझे कहीं वह सामग्री नहीं मिली जो मेरी जिज्ञासा का समाधान करती हो।
मेरा तो दायरा और संसाधन दोनों सीमित हैं, लेकिन मैं चाहूंगा कि जो साधन संपन्न मीडिया घराने हैं वे इस बारे में बताने की पहल जरूर करें कि आखिर उज्जैन और भोपाल में करीब करीब एक ही समय में शिक्षा को लेकर दो अलग अलग धाराओं के लोगों ने क्या सोचा? उस सोच के आधार पर भारत में शिक्षा का भविष्य क्या है और उसमें आने वाले दिनों में किस तरह का परिवर्तन देखने को मिल सकता है।
शिक्षा जैसे विषयों की जब भी बात होती है, हम वहां खबर ढूंढने लगते हैं। शिक्षा की रिपोर्टिंग भी अधिकतर समय ‘खबर’ बनाने के लिहाज से ही होती है। शिक्षा के परिदृश्य को समझकर उस पर गंभीरता से जानकारी जुटाने और समाज को अवगत या जाग्रत करने के लिहाज से नहीं। मेरा मानना है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर काम करने वाले रिपोटर्स के लिए न सिर्फ विषय को समझने बल्कि उसके बारे में पूरी गंभीरता से लिखने के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
खैर… जिन आयोजनों का मैंने यहां जिक्र किया उन्हें लेकर मेरे मन में पहला सवाल तो यही है कि शिक्षा के प्रति हमारा नजरिया कुल मिलाकर है क्या? क्या हम वर्तमान ‘स्कूल शिक्षा’ के स्वरूप को बनाए रखना चाहते हैं या फिर उसे ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति’ में परिवर्तित करना चाहते हैं? यदि हमारा राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति’ को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसकी पुनर्स्थापना की बात कर रहा है तो शिक्षा के वर्तमान ढांचे का हम क्या करेंगे?
कहा जा सकता है कि एक विचार वर्तमान ढांचे को ही गुरुकुल पद्धति पर विकसित करने का हो। यदि ऐसा है तब भी हमें उसके लिए वर्तमान ढांचे में बुनियादी बदलाव तो करने ही होंगे। तो क्या हम मैकाले की शिक्षा पद्धति को आजादी के 71 साल बाद गुरुकुल पद्धति में बदलने वाले क्रांतिकारी परिवर्तन की ओर कदम बढ़ा रहे हैं?
यह कॉलम लिखे जाने तक मेरे पास उन निष्कर्षों की जानकारी नहीं है जो उज्जैन के गुरुकुल सम्मेलन से निकले हैं। लेकिन यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि उस सम्मेलन में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने घोषणा की है कि सम्मेलन के निष्कर्षों को राज्य सरकार लागू करने का प्रयास करेगी। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने वहां कहा कि गुरुकुलों एवं आधुनिक शिक्षा के बीच समन्वय के प्रयास किये जायेंगे। गुरुकुल शिक्षा पद्धति को उचित स्थान दिया जायेगा।
अपने बयानों के लिए हमेशा चर्चित रहने वाले मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने सवाल उठाया कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है, क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति सर्वांगीण विकास कर सकती है? उनका कहना था कि गुरुकुल शिक्षा पद्धति आज के लिये प्रासंगिक है। यदि हम लोग चाहते हैं कि देश में अच्छे नागरिकों का निर्माण हो तो हमें वैदिक शिक्षा पद्धति की ओर आना ही होगा।
और इन सबसे ऊपर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत की राय थी कि विज्ञान की प्रगति के लिए वेदों, उपनिषदों का अध्ययन आवश्यक है। शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य जीविका नहीं जीवन है। गुरुकुल पद्धति शिक्षा की आत्मा है। इस बात पर समग्र विचार हो कि आज के सन्दर्भ में गुरुकुल शिक्षा कैसी हो।
कुल मिलाकर उज्जैन के सम्मेलन को इसलिए हलके में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि यह न सिर्फ शिक्षा, बल्कि शिक्षा के बहाने देश के भविष्य से जुड़ा मामला है। यह भारत की बुनियाद से जुड़ा विषय है। हम शिक्षा को सिर्फ स्कूल, मास्टर, स्टूडेंट, फीस, कॉपी-किताब जैसे जुमलों में खोजने की कोशिश करें या फिर उसे समाज और मनुष्य को संस्कारित करने, और व्यक्तित्व को परिष्कारित करने वाले माध्यम के रूप में ग्रहण करें?
ये सवाल इसलिए भी मायने रखते हैं क्योंकि इन दिनों सरकार नई शिक्षा पद्धति और शिक्षा पाठ्यक्रमों पर पुनर्विचार कर रही है। पिछले माह ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा तैयार किए जाने वाले पहली से 12 वीं कक्षा तक के पाठ्यक्रमों में बदलाव को लेकर लोगों से सुझाव आमंत्रित किए हैं। सभी राज्य सरकारों से कहा गया है कि वे भी अपनी ओर से इस दिशा में सुझाव भेजें।
सरकार से पहले मेरा मीडिया से अनुरोध है कि वह अपने यहां इस विषय को प्रमुखता से उठाए। पाठ्यक्रमों में क्या और किस तरह का बदलाव होना चाहिए, शिक्षा पद्धति कैसी होनी चाहिए, इन विषयों पर बात हो, ताकि बाद में हम सिर्फ यह चिल्लाने या सिस्टम को कोसने के लिए ही न बचें कि सरकारें कुछ नहीं करतीं।
हम इस विषय पर आगे भी और बात करते रहेंगे…