पिछले दिनों मैंने केंद्रीय मोटरयान कानून में किए गए संशोधनों पर मचे घमासान का जिक्र करते हुए इस बात को रेखांकित किया था कि जब हम संसद से कोई कानून पास कराने के बावजूद उसे लागू नहीं करवा पाते तो यह हमारी समूची कानून निर्माण प्रक्रिया के साथ-साथ अपराध और न्याय व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लगाता है। लेकिन ऐसी भी कई घटनाएं सामने आ रही हैं जिसमें अलग-अलग कारणों से लोगों को आपराधिक मामलों में फंसाकर उन्हें महीनों या सालों सजा भुगतने को मजबूर किया जा रहा है।
27 सितंबर को खबर आई कि गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 10 अगस्त 2017 को ऑक्सीजन की कमी से हुई कई बच्चों की मौत के मामले में आरोपी बनाए गए डॉक्टर कफ़ील विभागीय जांच में निर्दोष पाए गए हैं। घटना के बाद डॉ. कफील को लापरवाही, भ्रष्टाचार और ठीक से काम नहीं करने के आरोप में निलंबित कर दिया गया था। लेकिन अब विभागीय जांच रिपोर्ट में उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया है।
हैरानी की बात यह है कि घटना के बाद डॉ. कफील को विभिन्न आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया और वे आठ महीने जेल में रहे। आठ महीने बाद उनकी जमानत हो सकी और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि डॉ. कफील के खिलाफ हो रही जांच की रिपोर्ट 90 दिन में पेश की जाए। खबरें कहती हैं कि यह जांच रिपोर्ट भी 18 अप्रैल 2019 को ही आ गई थी, लेकिन डॉ. कफील को 26 सितंबर को दी गई।
दरअसल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 10 अगस्त 2017 को ऑक्सीजन की कमी के चलते 70 से अधिक बच्चों की मौत हो गई थी। घटना के बाद अखबारों और सोशल मीडिया में डॉ. कफील को हीरो बताते हुए जानकारी दी गई थी कि संकट की इस घड़ी में उन्होंने अपने प्रयासों से ऑक्सीजन सिलेंडर मंगवाकर कई बच्चों की जान बचाई। लेकिन सरकार ने घटना को लेकर जो कार्रवाई की उसमें डॉ. कफील को लापरवाही के साथ साथ अन्य कई बातों के लिए जिम्मेदार बताया गया। उस समय मीडिया में यह सवाल भी बहुत उछला था कि जिस व्यक्ति ने बच्चों को बचाने की कोशिश की उसे ही दोषी साबित किया जा रहा है।
अब जब दो साल बाद यह खबर आई है कि डॉ. कफील पर लगाए गए आरोप निराधार पाए गए हैं तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर उन्हें दो साल की यह प्रताड़ना किस कारण मिली? खुद के निर्दोष पाए जाने की खबर पर प्रतिक्रिया देते हुए डॉ. कफील ने मीडिया से कहा- क्लीनचिट मिलने से मुझे खुशी है, लेकिन जांच रिपोर्ट आने में दो साल लग गए। मेरा परिवार सौ सौ रुपए तक के लिए मोहताज हो गया। पूरे परिवार ने प्रताड़ना झेली। ये दो ढाई साल मेरी जिंदगी में वापस नहीं आ सकते। बड़े अधिकारियों और जिम्मेदार राजनेताओं को बचाने के लिए मुझे फंसाया गया।
जांच रिपोर्ट आने के बाद डॉ. कफील की ओर से कही गई इन बातों में कितनी सचाई है, कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात जरूर सोचने पर मजबूर करती है कि जिस सरकार ने उन्हें दोषी बताते हुए पहले निलंबित किया और बाद में उन्हें कई और मामलों में आरोपी बनाते हुए गिरफ्तार किया गया, उसी सरकार की विभागीय जांच में डॉ. कफील को आरोप मुक्त किया जाना बताता है कि उस समय जो भी किया गया वह न्यायोचित नहीं था।
देश में ऐसे कई मामले सामने आ रहे हैं जिसमें आरोपी बनाए गए लोग महीनों या सालों की जेल काटने के बाद अदालतों से दोषमुक्त किए गए हैं। अभी 25 जुलाई को ही खबर आई थी कि नई दिल्ली के लाजपत नगर में 1996 में हुए बम धमाकों के सिलसिले में 23 साल तक तिहाड़ और राजस्थान की जेलों में बंद रहे तीन कश्मीरी नागरिकों को कोर्ट ने निर्दोष करार देते हुए रिहा कर दिया। इनमें से एक मोहम्मद अली बट रिहा होने के बाद जब अपने गांव पहुंचा तो वहां उसका कोई रिश्तेदार नहीं था। उसके मां बाप दोनों का इंतकाल हो चुका था।
ऐसी ही एक और घटना याद आती है। गाजियाबाद के रेयान स्कूल में प्राइमरी कक्षा के एक छात्र की स्कूल में हुई हत्या की। उस घटना के बाद पूरे देश में गुस्सा था। पुलिस ने आनन फानन में कार्रवाई की और स्कूल बस के ड्रायवर को आरोपी बनाकर उससे अपराध भी कबूल करवा लिया। बाद में जब सीबीआई ने जांच की तो स्कूल का ही, एक बड़ी कक्षा का छात्र, घटना का आरोपी पाया गया। इसके बाद जेल से छूटकर जब वह ड्रायवर घर पहुंचा तो ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। उसने बताया कि पुलिस ने मार मारकर उससे अपराध कबूल करवाया था।
पिछले दिनों बिहार के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे की कुछ फेसबुक पोस्ट काफी चर्चित हुई थीं जिनमें उन्होंने इस बात को स्वीकार किया था कि कई निर्दोष लोग जेल जा रहे हैं। डीजीपी ने अपने मातहतों को सलाह दी थी कि वे मामलों की गहराई से जांच करें और उसके बाद ही कोई कार्रवाई की जाए। ऐसा न हो कि किसी निर्दोष को उस अपराध की सजा मिल जाए जो उसने किया ही नहीं।
दरअसल अपराध और उनकी जांच का मामला बहुत ही गंभीर और संवेदनशील है। एक तरफ जहां पुलिस तंत्र की अपनी मुश्किलें हैं वहीं अदालतों की अपनी विवशताएं हैं। कई बार ऐसा होता है कि पुलिस गंभीर मामलों में लोगों का आक्रोश ठंडा करने के लिए किसी को भी आरोपी बताकर उसे पकड़ लेने का दावा कर देती है और एक बार पुलिस के जाल में फंस जाने के बाद वह व्यक्ति अकारण ही सजा भुगतने पर मजबूर हो जाता है। काम के भारी दबाव के चलते अदालतों में मुकदमे सालों साल चलते रहते हैं और वह व्यक्ति इस दौरान जेल में सड़ता रहता है। इस बीच उसका परिवार कैसे गुजर बसर करता होगा और उसके परिवारवालों पर सामाजिक और आर्थिक तौर पर क्या बीतती होगी इसका अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता।
इस पूरे मसले का एक गंभीर पहलू यह भी है कि सालों बाद अदालत से निर्दोष छूटने वाला व्यक्ति सबकुछ लुटा बैठता है और उसके साथ हुए अन्याय का न तो कोई दोषी होता है और न ही उसके साथ हुए अन्याय की किसी को सजा मिलती है। जानबूझकर अपनी जान जोखिम में डालने और मौत का शिकार हो जाने वालों के लिए तो सरकारों के मुआवजे की पोटली खुल जाती है लेकिन व्यवस्था और तंत्र के अन्याय का शिकार होकर जीते जी मुर्दा हो जाने वाले ऐसे लोगों की चिंता कोई नहीं करता।