योगी को ‘दलित‍ मित्र’ सम्मान देने के राजनीतिक मायने!

अजय बोकिल

अगर किसी समुदाय पर अत्याचार भी किसी व्यक्ति के लिए ‘भूषण’ हो सकता है तो कल्याण के लिए आप कौन सा खिताब तलाशेंगे? यह सवाल इसलिए क्योंकि दलितों पर अत्याचार और प्रताड़ना के कारण सुर्खियों में रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ‘दलित मित्र’ सम्मान से नवाजे जाने के चाटुकारी फैसले पर बवाल मच गया है। राज्य की आंबेडकर महासभा ने यूपी के मुख्यमंत्री (जो महाराजजी के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं) योगी आदित्यनाथ को दलित उत्थान के क्षेत्र में उनके योगदान के मद्देनजर यह सम्मान देने की पहल की थी।

योगी को यह सम्मान बाबा साहब आंबेडकर की जयंती पर 14 अप्रैल को दिया जाना था। इसकी घोषणा आंबेडकर महासभा के अध्यक्ष लालजी प्रसाद निर्मल ने की थी। लेकिन इसका ऐलान होते ही संस्था के दो सदस्यों ने बगावत का बिगुल फूंक दिया। फैसले से भड़के संस्था के वरिष्ठ संस्थापक सदस्य हरीश चंद्र और एस.आर. दारापुरी ने तो बाकायदा वार्षिक महासभा (एजीएम) बुलाने की मांग कर डाली ताकि लालजी प्रसाद के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सके।

दोनों सदस्यों का कहना है कि आंबेडकर महासभा के अध्यक्ष ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए यह घोषणा की है। इन दोनों सदस्‍यों का मानना है कि मौजूदा सरकार में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले बढ़े हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री योगी को यह सम्मान देने का क्या औचित्य है? दारापुरी सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं। उन्होंने भीम सेना के प्रमुख चंद्रशेखर रावण का भी उदाहरण दिया जो फिलहाल रासुका के तहत जेल में बंद हैं।

संस्था के दूसरे सदस्य हरीश चंद्र सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सम्मान के गठन का निर्णय लेने से पहले महासभा के सदस्यों को विश्वास में नहीं लिया गया। उन्होंने कहा कि आंबेडकर महासभा का गठन बाबा साहब के विचारों और सिद्धांतों को फैलाने के लिए हुआ था, किसी के व्‍यक्तिगत हितों को पूरा करने के लिए नहीं। बता दें कि आंबेडकर महासभा का गठन बाबा साहब के जन्म शताब्दी वर्ष 1990 में किया गया था। इसमें ज्यादातर सदस्‍य सरकारी कर्मचारी थे।

उधर महासभा के अध्यदक्ष लालजी प्रसाद निर्मल ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि योगी आदित्यनाथ को दलित मित्र सम्मान देने में कुछ भी गलत नहीं है। अपने फैसले के बचाव में उनका लाजवाब तर्क यह है कि चूंकि सीएम योगी तो यूपी में रहने वाले हर व्यक्ति के मित्र हैं, लिहाजा वह दलितों के भी मित्र हैं। इसीलिए वो सम्मान पाने के भी पात्र हैं। लालजी खुद यूपी सचिवालय सेवा से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। उन्हें 2013 में आंबेडकर महासभा का अध्यक्ष नियुक्ता किया गया था।

उन्होंने इन आरोपों को गलत बताया कि व्यक्तिगत हितों को साधने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दलित मित्र सम्मान देने का फैसला किया गया। हो सकता है कि निर्मलजी के जज्बात योगी आदित्यनाथ के प्रति कृतज्ञ भाव से पगे हों। उनके इस फैसले का विरोध करने वाले अफसरी मानसिकता के बिगड़े लोग हों। और फिर कोई भी मुख्यमंत्री इस पद पर आते ही तमाम सम्मानों और अभिनंदन पत्रों का स्वत: दावेदार बन जाता है। क्योंकि यह पद हथियाना ही जगत मित्रता की कसौटी होता है।

इस दृष्टि से योगीजी भी परम दलित मित्र हुए। जहां भावनाएं ही सबसे महत्वपूर्ण और तर्कों को बेहोश करने वाली हों, वहां इन तथ्यों का कोई अर्थ नहीं है कि योगीजी के राज में सर्वाधिक पीडि़त दलित ही हैं। यह बात स्वयं राज्य के तीन भाजपा सांसद सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं। वे अपनी पीड़ा प्रधानमंत्री को लिखकर दे चुके हैं। लेकिन इस गुहार में भी फूलों का हार निर्मल जैसे लोग ही खोज सकते हैं।

सचाई यह है कि एससी-एसटी एक्ट के शिथिलीकरण को लेकर पश्चिमी यूपी में जितनी हिंसा हुई, उससे यही संदेश गया कि राज्य में दलित बेहद परेशान और आक्रोशित हैं। सरकार और सरकारी निजाम में उनकी कहीं, कुछ भी सुनी नहीं जा रही है। एससी एसटी समुदाय के ज्यादातर जनप्रतिनिधियों की हैसियत उस शोभा की सुपारी तरह है, जिनकी जरूरत केवल वोट पूजा के समय पड़ती है। हकीकत यह है कि आज दलित केवल बाबा साहब की जयजयकार से बहलना नहीं चाहते, वे सचमुच में अपने अधिकार और समाज में अपेक्षित सम्‍मान चाहते हैं।

यही वह मांग है, जिसे कोई गंभीरता से लेना नहीं चाहता। योगी को दलित मित्र सम्मान देने के विरोधियों का मानना है कि हो सकता है कि सार्वजनिक सभाओं में योगी अपने दलित प्रेम का इजहार करते रहे हों और दलितों से जुड़ी संस्थाओं में अपने आदमी फिट करते रहे हों, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि वे वास्तव में दलित मित्र हैं, बासी भात को फ्रेश बिरयानी समझ कर खाने जैसा है।

हैरानी की बात यही है कि जब पूरी राज्य सरकार दलित हित संरक्षण को लेकर कठघरे में खड़ी हो तब एक योगी मुख्यमंत्री को दलितों का परम हितैषी मानकर सम्मानित की पहल करना केवल चाटुकारिता की फाइल को सेव करने के समान है। खुद मुख्यमंत्री योगी ने यह सम्मान स्वीकारने की स्वीकृति दी है या नहीं, अभी साफ नहीं है, लेकिन इस सम्मान के पीछे असल नीयत स्लेट पर लिखी इबारत को अपनी सुविधा से पढ़वाने की है।

यह संदेश देने की कोशिश है कि कुछ विघ्न संतोषी भले राज्य में दलितों की दुर्दशा के मर्सिए गा रहे हों, लेकिन सरकार की नजर में तो चौतरफा दलित उत्थान की शहनाइयां बज रही हैं। अगर आप को ये सुस्वर भी कर्कश लग रहे हों तो यह आपके कानों का दोष है। सरकारें ग्राउंड रियलिटी पर पर्दा डालने के लिए अक्सर आंकड़ों का सहारा लेती हैं। लेकिन अभी तो आंकड़े भी योगीजी के पक्ष में नहीं जा रहे हैं।

दरअसल ऐसे सम्मान लेना या दिलवाना राजनीति के चालू टोटके हैं, उसका जमीनी वास्तविकता से दूर का रिश्ता ही होता है। अगर सचमुच योगी दलितों के लिए इतना कुछ कर रहे हैं तो उन्हें अलग से सम्मान देने की क्या जरूरत है? अगर वे ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं तो भी उन्हें दलित मित्र मानने के आग्रह के पीछे असल मंशा क्या है, यह अलग से समझाने की जरूरत नहीं है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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