अनिल यादव
आप शिकारी जनजाति के पारधियों के बारे में तो जानते ही हैं। अक्सर मैं उनके बारे में लिखता रहा हूँ। हमारे जातिमूलक समाज ने उन्हें पेशे के तौर पर जंगली जानवरों के शिकार का ही काम सौंपा था। शिकार करना अब गैर कानूनी है और पारधी अब समाज की मुख्य धारा से बिल्कुल ही कट गये हैं। वे बहुत ही कठिन जिन्दगी जी रहे हैं, इतनी कि कई तो पूरी तरह ही रास्ता भटक गये हैं।
पारधियों के पास शिकार करने का परम्परागत कौशल अद्भुत है और उसे हमारी अगली पीढ़ियों तक पंहुचाने के लिए सहेजने की बहुत जरूरत है। हाँलांकि आज शिकार करना गैरकानूनी काम है लेकिन जब इसे अवैध घोषित नहीं किया गया था, वे बंदूकों से नहीं फंदों से शिकार करते थे। मैंने खुद उनके पास कम से कम सोलह प्रकार के फंदे देखे, जिनकी मदद से वे जंगली जानवरों को जीवित ही पकड़ लेते हैं। वे कई जानवरों की आवाज की ऐसी नकल उतारते हैं कि वे वन्यजीव उसके धोखे में पड़ कर खुद ही पारधियों के जाल-फंदों में फँसने चले आते हैं।
मैं उनके उसी ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने लम्बे समय तक उनके बीच आता जाता रहा हूँ। उन्होंने मुझे जो कुछ सुनाया है उसका मैंने छायांकन भी किया है और लिखता भी रहा हूँ। पारधियों की शिकार करने की कला ही नहीं, उनकी जिजीविषा भी अद्भुत है। और जैसे भी हो, जो भी हो, उसे खा-पी कर वे ज़िंदा बने रहने की कला जानते हैं।
घोर अंधविश्वास में डूबे पारधियों के सुनाये गए अनगिनत किस्से मेरे पास हैं। अब इस कोरोना काल ने मुझे मौक़ा दिया है कि पारधियों की अनदेखी-अनसुनी लाइफ स्टाइल पर मैं अपनी पुस्तक को अंतिम रूप दे दूँ। तो इस बार मैं आपको उसी पुस्तक में शामिल उनका एक किस्सा पेश रहा हूँ, सुनिए।
उस दिन भी मैं पारधियों के डेरे पर उनकी कहानी सुनने जा पंहुचा। मेरे उस पुराने परिचित पारधी ने कुछ देर इधर-उधर की बातें की और फिर मेरी दिलचस्पी जब अपनी जीवन शैली को समझने-सुनने में देखी, तो उसने मुझे जो सुनाया वो कुछ इस तरह था-
हम तमाम तरह के पक्षियों का शिकार करते हैं साब, लेकिन सारस नहीं मारते। हमारे वाले पारधियों का ये पक्का नियम है। हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते आए हैं कि सारस को नहीं मारना चाहिए। एक सारस को मारते ही उसका जोड़ीदार भी चिल्लाते-चिल्लाते अपनी जान दे देता है।
एक बार हमारे डेरे इछावर के पास जंगली पठार पर लगे हुए थे। हम रोज शिकार पर जाते, कोशिश करते, लेकिन कोई जानवर नहीं फँस रहा था। कई दिन ऐसे ही बीत गए। एक दिन जटखड़ ने हिरणों को फंसाने के लिए एक खेत में ‘फांदी’ लगाई। लेकिन हिरण की जगह उसमें एक नर सारस फँस गया। लालच में जटखड़, बड़े-बूढों की सीख भूल गया और उस सारस को डेरे पर लाकर मार-पका कर खा गया। उसने पारधियों का नियम तोड़ दिया था, अब सजा तो मिलनी ही थी।
आगे साब, हुआ ये कि जब मादा सारस वहाँ आई तो नर उसे नहीं मिला। उसने नर को पुकारते हुए उसी खेत के आसपास मंडराना शुरू कर दिया, जहाँ से जटखड़ ने नर सारस को पकड़ा था। वह सारस को पुकारते हुए ढूँढती रहती, लेकिन सारस होता तो मिलता। यह मेरी आंखों देखी सच्ची बात है साब। मादा सारस उस खेत से कहीं नहीं जाती और चिल्लाते हुए खेत के आसपास ही मंडराती रहती। दो-तीन दिन तक चिल्लाती हुई वह नर को ढूँढती रही और आखिर एक दिन उसने अपने जोड़ीदार के गम में दम तोड़ दिया।
फिर हुआ यह कि जटखड़ को उसी रात नर सारस सपने में दिखा, वो कह रहा था तूने मेरी जोड़ी तोड़ी है, मैं भी तेरी जोड़ी तोडूंगा। अगले दिन जटखड़ ने हम सबको अपने सपने का हाल सुनाया। फिर उसे रोज यही सपना आने लगा। पन्द्रह-बीस दिन बाद जटखड़ को बुखार आ गया, खूब ताप चढ़ा।
जटखड़ सारी रात ठंड से कांपता रहता और बुखार में बड़बड़ाता रहता कि सारस कह रहा है तूने मेरी जोड़ी तोड़ी है, मैं भी तेरी जोड़ी तोड़ कर ही मानूँगा। जटखड़ की दवा-दारू, जानिया-गुनिया, झाड़-फूंक सब करवाई गई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। दिन-रात सारस की बात दोहराते-दोहराते आखिर वह आठ दिन बाद मर गया।
डेरों के सभी बुड्ढे एक राय होकर बोले, उसने पारधियों का नियम तोड़ा था, सारस की जोड़ी तोड़ दी थी, इसीलिए उसकी भी जोड़ी टूट गई। हम सब को बैठा कर बुड्ढों ने चेतावनी दी कि हम कभी भूल कर भी, सारस का शिकार न करें। यदि आगे कभी नर या मादा कोई भी जाल में फंस जाए तो उसे तुरंत छोड़ दें। सारसों की जोड़ी, कभी ना बिगाड़ें, वरना हमें भी वही भुगतना पड़ेगा जो जटखड़ ने भुगता।
हम सभी बुरी तरह डर गए और हमारी औरतों ने भी हमको सारसों का शिकार कभी न करने की कसम खिला दी। साब, हम लोग भूखे रह जाते हैं, लेकिन कभी भी वो गलती नहीं करते हैं जो जटखड़ ने की थी। हम सारस की जोड़ी कभी नहीं तोड़ते।
(लेखक वन्य जीवों, पर्यावरण एवं वनवासियों के रहन सहन संबंधी विषयों के विशेषज्ञ हैं)
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टीम मध्यमत