अजय बोकिल
हंसी और वो भी किसी महिला की हो, किसी पीएम को लक्ष्य कर हो और उस हंसी में एक राजनीतिक तंज भी हो तो बवाल मचना ही है। जैसे कि कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के दौरान रेणुका के बार-बार हंसने से हुआ। क्योंकि इधर प्रधानमंत्री अपने वक्तृत्व कौशल से देश को हंसाने की कोशिश कर रहे थे, उधर रेणुका उनके हंसाने के अंदाज पर हंस रही थी। रेणुका का इस तरह बेबाक हंसते जाना राज्यसभा सभापति वेंकैया नायडु को कतई रास नहीं आया और उन्होने रेणुका को डपटकर कहा कि आप ( हंसी न रोक पाती हों तो) डाॅक्टर के पास जाइए ! गोया यह कोई मर्ज हो।
हंसी पर पड़े इस तमाचे पर प्रधानमंत्री ने पौराणिक मिथक के सहारे तीखा कटाक्ष किया कि इन्हें हंसने से न रोकिए, सभापतिजी रामायण सीरियल के बाद इतनी क्रूर हंसी आज पहली बार सुनाई दी है। तंज का और खुलासा करते हए केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजीजू ने रामायण में शूर्पणखा की हंसी का एक वीडियो क्लिप भी सोशल मीडिया पर डाल दिया। मकसद रेणुका की हंसी को शूर्पणखा की हंसी बताना था। यह बात अलग है कि ‘रामायण’ सीरियल में शूर्पणखा का प्रभावी रोल करने वाली और अपनी क्रूर हंसी से सबको हिला देने वाली अभिनेत्री रेणु (इसमे ‘का’ की कमी है) खानोलकर को शूर्पणखा को राजनीतिक विवाद में घसीटा जाना नागवार गुजरा।
प्रधानमंत्री के कटाक्ष को लेकर सोशल मीडिया में काफी ट्रोल हुआ। कुछ का मानना था कि एक महिला की हंसी किस तरह सत्ताधीशों को नागवार गुजर सकती है, यह इसका नमूना है। कुछ ने महिलाअो से सदा हंसते रहने का आह्वान किया तो कुछ ने इसे ‘पावरफुल’ और ‘पावरलैस’ का मुकाबला माना। कुछ की राय में प्रधानमंत्री के भाषण की गरिमा होती है, रेणुका को बतौर सांसद इसका भान रखना था। इस गंभीर अवसर पर बेलगाम हंसते जाने का क्या मतलब ?
इन तमाम आरोपों का रेणुका ने कड़ा जवाब देते हुए कहा कि हंसने पर कोई जीएसटी नहीं लगता। मैं पांच बार की सांसद हूं। मैंने रूढि़वादी होने का िमथक तोड़ा है। मुझे हंसने के लिए किसी की परमिशन की जरूरत नहीं है। मोदीजी की टिप्पणी महिलाअों के प्रति उनकी मानसिकता दिखाती है। शिक्षित तो सांसदों को करने की जरूरत है कि वे महिलाअों के साथ किस तरह बर्ताव करें।
यहां समझने की बात यह है कि रेणुका आखिर हंसी तो हंसी क्यों? क्या वे संसद में होने वाले भाषणों की गंभीरता को नहीं समझतीं या फिर ऐसे भाषणों को हंसने योग्य ही समझती हैं। अमूमन सदन में सदस्य तभी हंसते हैं जब कोई मजाकिया बात अथवा गहरा कटाक्ष किया गया हो। या फिर कोई ऐसी बात हो जो असामान्य और विचित्र हो। संसद की गंभीर चर्चाअोंके बीच हंसी के ऐसे ठहाके गरिष्ठ भोजन के बाद चटपटे चूरन का काम करते हैं। लेकिन उसकी भी एक अदा होती है। रेणुका चौधरी ने तो यहां मानो एक एंड से ही बैटिंग का मोर्चा संभाल रखा था, गोया पीएम किसी ‘रनर’ की तरह रन बना रहे हों।
रेणुका तो पीएम के भाषणों में दिए जा रहे उद्धरणों और तथ्यों की अवास्तविकता पर हंसे जा रही थीं। जबकि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उन्हें समझना चाहिए था कि तथ्यों की प्रामाणिकता उसके प्रस्तोता के कद से आती है। लेकिन रेणुका हंसती ही रही। वैसे 63 वर्षीय रेणुका का फेस भी कुछ स्माइली ही है। इसलिए तथ्यों की बाजीगरी न भी हो तो भी वे कई बार हंसती-सी लगती हैं। ऐसे में वो पीएम के भाषण पर खिलखिलाती रहीं तो वह सामाजिक शिष्टता की परिभाषा में भले ‘गुनाह’ हो, लेकिन एक स्त्री का व्यवस्था पर हंसने का नैसर्गिक अधिकार है।
पर राजनीति इस हास्य अधिकार को भी अपने-पराए में बांटकर देखती है। विपक्ष ने रिजीजू के वीडियो को महिलाअों को अपमान बताया तो एक महिला मंत्री स्मृति ईरानी को रेणुका की टिप्पणियां ‘अशोभनीय’ लगीं। यूपी में कांग्रेस तो बाकायदा पोस्टर जारी कर पूरे प्रसंग की तुलना महाभारत में दुर्योधन को देखकर द्रोपदी की हंसी से कर दी। उसने इस हंसी पर किए कटाक्ष को ‘द्रोपदी का चीरहरण’ बताया।
यहां सत्ता के कटघरे में खड़ी भाजपा खुद को पांडव मान रही है। उसकी नजर में रेणुका का इस तरह हंसना एक ‘निर्वाचित सत्य’ का मजाक उड़ाना है। इसकी इजाजत कैसे दी जा सकती है? संसदीय मर्यादा का पालन सभी से अपेक्षित है। दूसरे, तथ्य अगर गलत भी पेश किए गए हैं तो यह सदन में हंसी का कारण नहीं बन सकता। तथ्यै हंसी को दबाने के लिए होते हैं, उभारने के लिए नहीं। रेणुका को यह समझ नहीं आया। वे हंसने को ‘कच्चा बिल’ ही समझती आ रही थीं। वे भूल गई कि यूं हंसने पर जीएसटी अथवा अन्य कोई टैक्स भले न लगता हो, लेकिन राजनीतिक हंसी पर इतनी तगड़ी ‘पेनाल्टी’ लगती है कि आपको हंसना भुला दे।
वैसे ‘रामायण’ में सीता कभी खिलखिलाकर या उपहासात्मक हंसी हो, इसका जिक्र नहीं है। वहां यह काम केवल शूर्पणखा के जिम्मे है। लेकिन ‘महाभारत’ में द्रोपदी तो दो बार हंसती है। एक बार दुर्योधन के ‘अंधत्व’ को लेकर तो दूसरी बार चीरहरण के समय सब कुछ देखकर भी ‘आंखें मूंद लेने की विवशता’ के लिए मृत्यु शैया पर लेटे भीष्म पितामह पर। रेणुका की हंसी में शूर्पणखा की अभद्रता हो सकती है, लेकिन उसमें द्रोपदी की गहरी तल्खी भी है, जिसे शूर्पणखा की क्रूर हंसी में तब्दील करने का राजनीतिक प्रयास हुआ।
कहते हैं कि महिलाएं पुरूषों से ज्यादा हंसती हैं। क्योंकि वे अधिक ‘इमोशनल’ होती हैं। पुरूष को स्वयं हंसने से ज्यादा मजा महिलाअों को हंसाने में आता है। यहां ‘तथ्य’ पुरूष है और ‘इमोशन’ महिला है। तथ्य की पवित्रता नहीं देखी जाती, लेकिन इमोशन की देखी जाती है। रेणुका चौधरी बस यही नहीं समझ पाईं।
(सुबह सवेरे से साभार)