अजय बोकिल
कठुआ कांड को राजनीतिक रंग जो भी दिया जाए, लेकिन शर्मनाक सच्चाई यह है कि इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई में इस देश के जमा खाते में मासूम बच्चियों की बलात्कार की चीखें हैं। समाज की यौन पिपासा शायद इस निकृष्ट स्तर पर आ गई है कि ‘अमूल गर्ल’ जैसी एक नटखट कैम्पेन गर्ल भी अब अकेली बैठी अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही है। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह भी कारोबार बढ़ाने का तरीका है।
विज्ञापनों का क्या है, वो तो समय की मांग के हिसाब से बनाए और प्रचारित किए जाते हैं। एक अमूल गर्ल रो पड़ी तो क्या हुआ? देश तो आगे बढ़ रहा है। वह संवेदनाओं के मील के पत्थर को एक-एक कर पीछे छोड़ता जा रहा है। तो फिर इसमें ऐसा क्या है, जो इतनी हाय तौबा मचाई जाए?
जी हां, बहुत कुछ है बशर्ते आपकी संवेदनाएं पूरी तरह भोथरा नहीं गई हों। ‘अमूल गर्ल’ का सुबकना मायने इसलिए भी रखता है कि कार्टून रूपी यह शुभंकर देश में हरित और श्वेत क्रांति के साथ ही बड़ा हुआ है। इसीलिए यह सामान्य व्यंग्य चित्रों, पोस्टरों और साइन बोर्डों से अलग है। इसलिए भी कि इसने अमूल उत्पादों के प्रचार के बहाने सही देशकाल पर सटीक टिप्पणी करने और उसे आईना दिखाने का कोई मौका नहीं चूका। यह टिप्पणी भी बहुत शालीन और मासूम तरीके से होती आई है।
अमूल गर्ल खास है, क्योंकि वह बीते 62 सालों से उसी नटखटपन और चुहलबाजी से हमारे साथ जीती आई है। इसकी कल्पना सबसे पहले देश में श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वी. कुरियन, जो गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड के अध्यक्ष भी थे, के दिमाग में आई। उस जमाने में देश में विदेशी कंपनी पोल्सन के दुग्ध उत्पाद काफी बिकते थे। उसे पटखनी देने के लिए अमूल गर्ल की ईजाद हुई। उसे एक मशहूर चित्रकार सिल्वेस्टर दा कुन्हा ने जन्म दिया।
धब्बेदार पोलका फ्रॉक, नीले बाल और पोनी टेल बांधे ये नटखट बच्ची अपने आप में एक ब्रांड बन गई। हर विशिष्ट घटना पर अमूल गर्ल का रिएक्शन खास और अनूठा रहता आया है, जो काफी हद तक इस देश की जनता की सहज प्रतिक्रिया की तरह होता है। यही कारण है कि अमूल का यह एड कैम्पेन एक अलग तरह का सामाजिक सरोकार लिए हुए है। वह बाजार के आग्रहों में भी संवेदना को जिलाए रखता है। फिर वह चाहे राजनीतिक हो, खेल, विज्ञान, सेना या बॉलीवुड के संदर्भ में हो।
अमूल गर्ल अपने चुटीलेपन के साथ रिएक्ट करती आई है। मसलन पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत को ‘मोदीजीत’ बताना हो या राज्यसभा में सचिन को न बोलने देने पर उसे ‘नाराज्य सभा’ साबित करना हो। इसी तरह शशि थरूर की डिक्शनरी वाली अंग्रेजी पर यह कमेंट ‘थरूरारस एनी वन’ हो या विराट कोहली की शादी पर यह पैरोडी कि ‘कोहली सजा के रखना, मेहंदी लगा के रखना’ अथवा चारा घोटाले में लालू को जेल पर लालू का जेल में यह गुनगुनाना कि ‘ तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई…।‘
अमूल गर्ल के ये सटीक कमेंट अंग्रेजी में होते हैं, लेकिन इन्हें साधारण समझवाला व्यक्ति भी इसमें छिपा कटाक्ष महसूस कर सकता है। गुजरात में तो अमूल गर्ल का इतना महत्व रहा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के लिए अमूल गर्ल की तरह एक कैम्पेन चलाया था। तमाम मंजिलों से गुजरते हुए भी अमूल गर्ल ऐसी हताश और रुआंसी नहीं हुई थी। यहां तक कि निर्भया कांड के वक्त भी उसने खुद को ‘प्लीज रिमेम्बर, इट्स मदर इंडिया’ कहकर हिम्मत दिखाई थी।
एक बार जरूर अमूल गर्ल की आंखें भर आई थीं, जब पांच साल पहले उसके मेंटर डॉ. वी. कुरियन का निधन हुआ था। यह एक बेटी की अपने पिता को नम आंखों से दी गई श्रद्धांजलि थी। डॉ. कुरियन ने अमूल को इंटरनेशनल ब्रांड बनाकर और सहकारिता की सफलता का एक स्वर्णिम अध्याय लिखकर इस दुनिया से विदा ली थी। तब अमूल गर्ल ने भी अपने दो सहयोगियों के साथ भीगी आंखों से कहा था-‘ शुक्रिया, हमें हौसला, प्रगति और आनंद देने के लिए।‘
लेकिन तब भी अमूल गर्ल हारी हुई सी नहीं लगी। उसकी शोख आंखों की चमक बरकरार थी मानो वह अभी और कई मरहलों से गुजरने के लिए मुस्तैद है। पर कठुआ कांड ने उस बेचारी की आत्मा को भी कलपा दिया। एक सूनी चट्टान पर अकेली बैठी परी सी यह गर्ल किंकर्तव्यविमूढ़ दिखी। चेहरे पर निराशा और अपना मासूम बचपन बचाने की आर्त पुकार कि– ‘जरा आंख में भर लो पानी…!’
यह पुकार उन दरिंदों के लिए है, जिनकी आंख में लोक लाज और मानवीय रिश्तों का पानी भी सूख गया है। यह पुकार उन तमाम भारतवासियों के लिए भी है, जो अपनी संस्कृति को बिसराकर केवल नर और मादा के रिश्ते को कायम रखना चाहते हैं। यह पुकार उस तंत्र के लिए भी है, जो एक मासूम बेटी को केवल कानून के चश्मे से देखना चाहता है। यह पुकार उस निष्ठुर और कमीन सियासत के लिए भी है, जो बलात्कार के घावों का रंग पहले देखती है।
यह पुकार उन हाथों के लिए भी है, जो रैप के हक में तिरंगा उठाने से नहीं झिझकते और इस वहशीपन को भी संदेह के कफन में लपेटना चाहते हैं। ‘अमूल गर्ल’ का यूं सुबकना केवल कठुआ की पीडि़ता के लिए नहीं है, वह उन तमाम अबोध बेटियों के लिए भी है, जिनका बचपन तो असुरक्षित था ही अब कौमार्य भी वक्त से पहले कुचले जाने के लिए अभिशप्त है। हताश बैठी अमूल गर्ल के मन में उठते इस तूफान को उसके चेहरे की उदासी में भी साफ पढ़ा जा सकता है।
उसका रोना प्रतीकात्मक भले हो, वह हमारे वक्त की दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है। डर इस बात का है कि ‘अमूल गर्ल’ के रूप में वक्त की नजाकत और विसंगतियों से यह कलात्मक भिड़ंत भी कल को दम न तोड़ दे।
(सुबह सवेरे से साभार)