असम: चाय मजदूरों की खुशी पर टिका सत्ता का सिंहासन

अजय बोकिल

इधर आम आदमी का ‘अमृत’ समझी जाने वाली चाय के भाव बढ़ने का अंदेशा है, उधर ‘चाय के घर’ असम में चाय बागान मजदूरों को पटाने में हर राजनीतिक पार्टी लगी है। क्योंकि उनकी खुशी पर निर्भर है कि इस विधानसभा चुनाव में सत्ता का सिंहासन किसके पास रहेगा। भाजपा सत्ता में लौटेगी या फिर किसी बड़ी कामयाबी की तलाश में बेचैन कांग्रेस को सत्ता सुख मिलेगा? माना जा रहा है कि राज्य में 17 चाय कंपनियों के 793 रजिस्टर्ड चाय बागानों में काम करने वाले लगभग 10 लाख चाय श्रमिकों के वोट जो हासिल करेगा, वही असम पर राज करेगा।

राज्य में कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन ये चाय मजदूर अभी भी बेहतर मजदूरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन सरकार ने पिछले दिनों चाय बागान में काम करने वाले मजदूरों की दिहाड़ी बढ़ाकर 217 रुपये प्रतिदिन कर दी थी, लेकिन इसके खिलाफ चाय बागान मालिक हाईकोर्ट चले गए। कोर्ट ने स्टे दे दिया। चाय मजदूरों की मांग मजदूरी बढ़ाकर 351 रुपये रोजाना की है। इसी के मद्देनजर कांग्रेस ने चुनावी वादा किया है कि अगर राज्य में उसकी सरकार बनी तो वह चाय मजदूरी बढ़ाकर 365 रुपये कर देगी।

चाय मजदूरों की वेतन वृद्धि का मुद्दा कितना महत्वपूर्ण है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि ‘असम टी ट्राइब स्टूडेंट एसोसिएशन’ (एटीटीएसए) ने ज्यादा मजदूरी की मांग को लेकर चाय बागानों में एक दिन के पूर्ण बंद का आह्वान‍ किया था। जाहिर है कि चाय मजदूरों की नाराजी और बढ़ी तो भाजपा को सत्ता में वापसी में दिक्कत हो सकती है। असम की 126 सीटों वाली विधानसभा में चाय बागान क्षेत्र की लगभग 42 सीटों का विशेष महत्व है। ये सीटें उत्तरी असम और बराक वैली क्षेत्र के 12 जिलों में फैली हैं। इनमें बने चाय बागान राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं।

असम में चाय की खेती 180 सालों से हो रही है। लेकिन चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों में मूल असमी लोग कम हैं। सस्ते श्रम के चक्कर में चाय मजदूर ज्यादातर झारखंड, ओडिशा, बिहार आदि राज्यों से लाए गए आदिवासी हैं, जो अब यहीं बस गए हैं। विभिन्न समुदाय, जाति, भाषा और धर्मों के कारण अब ये खुद को ‘टी ट्राइब’ यानी चाय आदिवासी कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं। चाय पत्ती की तुड़ाई, उसके प्रसंस्करण और परिवहन पर ही इनकी आजीविका टिकी है। असमी चाय काली और स्वाद में कड़क होती है। इसलिए असमी सीटीसी चाय की मांग काफी होती है। इसके अलावा एक परंपरागत चाय भी होती है, उसकी भी काफी मांग है।

भारत दुनिया में चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और चौथा प्रमुख निर्यातक है। वर्ष 2019 में हमने 25.2 करोड़ किलो चाय का निर्यात किया। अकेले असम में देश के कुल चाय उत्पादन का 55 फीसदी उत्पादन होता है। या यूं कहें कि असम की पहचान ही चाय से है तो गलत नहीं होगा। इसके बावजूद चाय बागान मजदूरों की बदहाल आर्थिक हालत, कम मजदूरी हमेशा से प्रमुख चुनावी मुद्दा रही है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में सत्ता में आई भाजपा गठबंधन सरकार ने चाय मजदूरों के हित में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए, लेकिन चाय मजदूरों की पर्याप्त मजदूरी की मांग अभी भी अधूरी है।

पिछले साल कोरोना लॉकडाउन के कारण चाय उत्पादन पर भी विपरीत असर हुआ। समय पर चाय पत्तियां तोड़ी नहीं जा सकीं। चाय का उत्पादन 10 फीसदी तक गिर गया। परिणामस्वरूप देश में चाय के भाव बढ़ गए। लेकिन चाय मजदूरों की मजदूरी उस अनुपात में नहीं बढ़ी। राज्य में सोनोवाल सरकार ने चुनाव के दो माह पहले चाय मजदूरों की मजदूरी बढ़ाई, लेकिन मामला कोर्ट में चला गया। बात वहीं रही। चाय बागान मालिकों का कहना है कि मजदूरी बढ़ाने से चाय की उत्पादन लागत बढ़ेगी। चाय महंगी होगी तो निर्यात पर भी विपरीत असर होगा। उनका यह भी तर्क है कि पिछले साल लॉक डाउन के कारण पहले की काफी नुकसान हो चुका है।

चाय आर्थिकी के अपने तर्क और दिक्कतें हैं, लेकिन जब यह चुनावी मुद्दा बनता है तो इसका केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पक्ष ही अहम होता है। राज्य का चाय क्षेत्र कुल विधानसभा सीटों का एक तिहाई है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी। इस बार बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट राजग से अलग हो चुका है। लेकिन तब राजग ने चाय क्षेत्र की 18 सीटें जीती थीं। इसके पहले यह कांग्रेस का गढ़ रहा था।

कांग्रेस को अब भी उम्मीद है कि चाय मजदूरी बढ़वाकर वह अपने वोट भी बढ़वा लेगी। यही कारण है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी प्रचार के दौरान हमें चाय बागान मजदूरों की तरह कुछ देर के लिए पीठ पर टोकनी लादे चाय की पत्तियां तोड़ते दिखी थीं। ‘चाय पे चर्चा’ कर सियासी पहेलियां बुझाने का अपना मजा है, लेकिन चुनाव में चाय की बजाए चाय मजदूरों की आर्थिक बदहाली पर चर्चा की ज्यादा दरकार है।

इधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान खुद को पूरे फख्र के साथ ‘चाय वाला’ बता रहे हैं। अपने भाषण की शुरुआत वो इसी वाक्य से करते हैं कि एक चाय वाला चाय बागान मजदूरों का दर्द नहीं समझेगा तो कौन समझेगा? सही है, लेकिन गरीब और आम आदमी का दर्द राजनीतिक बेरोमीटर से नापा जाता है तो वह वैसा नहीं होता, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है। भाजपा की एक दिक्कत यह भी है कि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल ने चाय मजदूरों की मजदूरी में 15 फीसदी का इजाफा पहले ही कर दिया था।

बंगाल देश में चाय का दूसरा प्रमुख चाय उत्पादक राज्य है। वहां के दार्जिलिंग की चाय भी बेहतरीन मानी जाती है। लेकिन दोनों राज्यों की चाय की राजनीतिक तासीर अलग-अलग है। असम में भाजपा को चाय मजदूरों की नाराजी का डर है तो वहीं बंगाल में वह चाय मजदूरों से भारी समर्थन की उम्मीद पाले हुए है। चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार ने चाय मजदूरों को रिझाने के लिए ‘चाय बगीचा धन पुरस्कार योजना’ का ऐलान किया था। जिसके तहत पुरुष चाय मजदूर को 3 हजार रुपये, गर्भधारक महिला मजदूरों को 12 हजार रुपये देने का ऐलान किया गया था। साथ ही चाय मजदूरों के बच्चों के लिए शिक्षा संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण का वादा भी किया गया था।

दरअसल चाय बागान मजदूरों की समस्या बाकी असम की समस्याओं से अलग हैं। वहां चाय आदिवासियों का बोड़ो व अन्य समुदायों से हिंसक टकराव होता रहता है। इसके बावजूद चाय मजदूर राजनीतिक दृष्टि से अहम समुदाय है। जो पार्टी चाय मजदूरों का मन जीत लेगी, वह गुवाहाटी में सरकार बनाने में सक्षम होगी, इसमें शक नहीं होना चाहिए। एक चाय की प्याली में थकान या टेंशन मिटाने वाले हम मैदानी लोगों को चाय पैदा करने वालों की तकलीफों का अंदाजा नहीं है। कुछ लोग चाय हाथ में लेकर गंगाजल की तरह उसकी कसम खाते हैं। लेकिन चाय उपजाने वाले हाथ किसकी कसम खाएं?(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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