गिरीश उपाध्याय
मैंने तय किया था कि मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में जो ‘आनंद विभाग’ गठित किया है, उस पर कुछ नहीं लिखूंगा।
नहीं, नहीं… इस मुद्दे पर सरकार से मेरी कोई नाराजी नहीं है। यह तो पुण्य का काम है। सरकार लोगों को खुश रखना चाहती है, उन्हें आनंद से सराबोर करना चाहती है, तो इसमें क्या गलत बात? जब पूरी कायनात इंसान को दुखी करने में लगी हो, ऐसे में कोई तो है जो कायनात के खिलाफ जाकर इंसान को खुश करने के जतन कर रहा है… और इसीलिए मैंने कहा कि यह पुण्य का काम है।
वैसे मैंने इस पर लिखने का मन इसलिए नहीं बनाया था, क्योंकि बहुत सारे लोग, बहुत सारे एंगल से इस पर काफी कुछ लिख चुके हैं, लिख ही रहे हैं… और अपने ‘वाट्स एपिए’ तो रोज इस पर कोई नई सुर्री फेंकते ही रहते हैं। तो जब सारे लोग ‘आनंद’ या ‘मजे’ लेने वाला काम कर ही रहे हैं, तो बेहतर है मैं कोई अलग राह चुनूं।
लेकिन सरकार ने मुझे इस विषय पर लिखने को मजबूर कर दिया। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। सरकारें हम पत्रकारों को गाहे-बगाहे उनकी मर्जी के टॉपिक पर, उनकी मर्जी के अनुसार लिखने के लिए मजबूर करने की कोशिश करती रहती हैं। सो आज मैं भी ‘आनंद विभाग’ पर लिखने को मजबूर हो गया। और मजबूरी का कारण विभाग का गठन नहीं, बल्कि एक सप्ताह के भीतर ही चमत्कारिक रूप से उसके सुपरिणाम सामने आने से पैदा हुआ उत्साह है। मुझे हालांकि इस विभाग की सफलता पर संदेह था, लेकिन सरकार ने हाल ही में विधानसभा में ‘ऑन रिकार्ड’ जो जानकारी दी है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि विभाग गठित होते ही मध्यप्रदेश में ‘आनंद की लहर’ चल पड़ी है।
दो दिन पहले विधानसभा में दो ऐसे मामले उठे जो बुनियादी रूप से नकारात्मक थे। और मीडिया के लिहाज से वे ऐसी सनसनीखेज खबर से जुड़े थे, जिस पर आप आंख मूंद कर भी उसी तरह भरोसा कर सकते हैं, जिस तरह आप इस वाक्य पर कर लेते हैं कि ‘अफसर या नेता है तो वह भ्रष्ट ही होगा।‘ (ठीक उसी तरह जैसे रेड चीफ है तो लेदर ही होगा)
इनमें से पहला मामला ये था कि मध्यप्रदेश में बिजली कपंनियों की मनमानी के कारण, ईमानदारी से बिल भरने वाले उपभोक्ताओं को भी, बिजली कटौती की सजा मिल रही है। और दूसरा मामला यह कि पिछले सीजन में सोयाबीन की फसल बरबाद हो जाने के बाद प्रदेश के किसानों को फसल बीमा की रकम अभी तक नहीं मिली है और वे बहुत मुसीबत में हैं। ये दोनों ही मामले विधानसभा में ध्यानाकर्षण सूचनाओं के जरिए उठाए गए थे और सूचनाएं देने वाले विधायकों का कहना था कि बिजली उपभोक्ताओं और किसानों दोनों में ही इस पर सरकार के उदासीन रवैये को लेकर रोष व्याप्त है। विधायकों ने सदन में ये मामले उठाते हुए जो तर्क दिए, उससे लगा कि स्थिति सचमुच गंभीर है और पीडि़त बिजली उपभोक्ता या किसान की बात तो छोडि़ए, कोई भी होगा तो वो इस मुद्दे पर आक्रोशित जरूर होगा।
लेकिन हम मीडिया के लोग तो पता नहीं किस दुनिया में जीते हैं। ‘जमीनी हकीकत’ का हमें रत्ती भर पता नहीं होता। यूं ही हवा में खबरों के लट्ठ घुमाते रहते हैं। वो तो भला हो सरकार का जिसने इन दोनों मामलों में वस्तुस्थिति का खुलासा करते हुए जानकारी दी कि जनता में इन मुद्दों को लेकर कहीं कोई रोष नहीं है। जैसे ही सरकार की ओर से मंत्रियों ने सदन में यह बयान दिया, मुझे यकीन हो गया कि मध्यप्रदेश में चहुंओर आनंद व्याप्त हो गया है। जब ग्रामीण क्षेत्र में बिजली सप्लाई की घोर परेशानी झेल रहे उपभोक्ता और फसल बीमा की रकम ना मिलने से दर दर भटक रहे किसानों में कोई रोष नहीं है, तो निश्चित ही यह आनंद विभाग की सफलता है। और अभी तो इस विभाग का गठन हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ है, तब यह हाल हैं, तो जरा सोचिए कि आने वाले दिनों में प्रदेश खुशी अथवा आनंद से किस तरह किलकारियां मार रहा होगा। यहां वो धारणा भी गलत साबित हुई कि खुश होने के लिए व्यक्ति को भौतिक संसाधन या सुविधाएं जरूरी हैं। बिजली न मिलने पर भी यदि उपभोक्ताओं में कोई रोष नहीं है और नष्ट हो गई फसल के बीमे की राशि न मिलने पर भी किसान आक्रोशित नहीं हैं, तो तय मानिए कि उनके मन में आनंद एक अवधारणा या मानसिक स्थिति के रूप में दर्ज हो गया है। और यही आनंद विभाग का उद्देश्य और उसकी सफलता है।
हालांकि मिर्जा गालिब की तर्ज पर मेरा मन बार बार दुविधाग्रस्त होकर यह कह रहा है कि- ईमां मुझे रोके है, जो खींचे है मुझे कुफ्र… लेकिन शायद यह मेरे मन की ‘प्रॉब्लम’ है। मैं बिजली उपभोक्ताओं की परेशानी या किसानों का कष्ट देखने से खुद को अलग कर ही नहीं पा रहा हूं, जबकि सरकार ऑन रिकार्ड कह रही है कि उनमें कोई गुस्सा-वुस्सा नहीं है। यानी वे प्रसन्न हैं, आनंदित हैं। उधर ‘नंद के आनंद भयो’ गाया जा रहा है और इधर ‘बाजार के वशीभूत’ मैं, बिजली उपभोक्ताओं और किसानों पर अपने कॉलम की हेडलाइन बना रहा हूं- ‘’हुजूर! इनके आंसुओं में नमक है…’’
सचमुच मैं बहुत ही निकृष्ट आदमी हूं…