गिरीश उपाध्याय
वेबसीरियल ‘तांडव’ को लेकर जारी विवाद ने एक बार फिर सिनेमा और टीवी के कंटेट को लेकर बहस खड़ी की है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जारी अली अब्बास जफर की वेब सीरीज ‘तांडव’ पर आरोप है कि उसमें हिन्दू देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया है। कई हिन्दू संगठनों और राजनीतिक संगठनों ने इस सीरियल पर तत्काल पाबंदी लगाने और इसके निर्माताओं के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करने की मांग की है।
तांडव को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है वैसा विवाद भारत में कोई नया नहीं है। पहले भी चाहे सिनेमा हो या फिर कोई सीरियल या कोई नाटक अथवा मंच प्रदर्शन। इस तरह की आपत्तियां और विवाद उठते रहे हैं। समय के साथ बात ठंडी पड़ जाती है और तब तक ठंडी रहती है जब तक इसी किस्म का कोई दूसरा नया विवाद खड़ा न हो जाए।
लेकिन इस सारी बहस या विवाद में वह असली सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है कि प्रदर्शनकारी कलाओं (यदि आप उन्हें कला के दायरे में मानते हैं तो) पर विचार या बहस नैतिकता के दायरे में होनी चाहिए या फिर व्यावहारिकता के दायरे में। ऐसी कलाओं का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यह सवाल हमें बरसों पहले हुई उस बहस की ओर भी ले जाता है जिसमें पूछा गया था कि कला कला के लिए होनी चाहिए या समाज (जीवन) के लिए।
दरअसल ‘कला कला के लिए’ (Art for art’s sake) 19 वीं शताब्दी में यूरोप में उपजा एक ऐसा विचार था जिसने कला और समाज के संबंधों पर चली आ रही प्रचलित मान्यताओं में उथल पुथल मचा दी थी। कलावादियों का मत था कि कला सौन्दर्यानुभूति की वाहक है इसलिये इसे उपयोगिता की कसौटी पर नहीं परखा जाना चाहिये। समाज, नीति, धर्म, दर्शन आदि के नियमों का पालन कला की स्वच्छंद तथा स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति में बाधक होते हैं। इस विचार के बाद साहित्य एवं कला के क्षेत्र में कलावाद और उपयोगितावाद के बीच अच्छी खासी जंग छिड़ गई थी।
इन दिनों चाहे वह सिनेमा हो या टीवी या फिर ओटीटी प्लेटफॉर्म। मनोरंजन के नाम पर कुछ भी उडेल देने का चलन चल पड़ा है। यदि यह ‘रंजन’ ही है तो भी हमें यह देखना होगा कि उस कला या अभिव्यक्ति का ‘रंजन-मूल्य’ किस आधार पर तय किया गया है। वह लोकमंगल के भाव पर तय हुआ है या फिर लोकभावना के शोषण अथवा तुष्टिकरण पर। इन दिनों प्रदर्शनकारी कलाओं खासतौर से सिनेमा और टीवी पर प्रसारित होने वाली सामग्री में लोकमंगल के बजाय लोकभावनाओं के शोषण अथवा तुष्टिकरण का भाव अधिक दिखाई देता है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अब तो इसी भाव को केंद्र में रखकर कला या अभिव्यक्ति का बाजारू संसार रचा जा रहा है।
समाज में निजता और सार्वजनिकता का दायरा हमेशा से रहा है। कोई अभिव्यक्ति अथवा कृत्य यदि नितांत निजी है तो उस पर उतने सवाल नहीं उठेंगे जब तक कि वह निजता के मंच का दुरुपयोग करते हुए सार्वजनिकता के मंच को प्रदूषित करने का उपक्रम न करे। जिस तरह कलावाद कहता है कि ‘’समाज, नीति, धर्म, दर्शन आदि के नियमों का पालन कला की स्वच्छंद तथा स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति में बाधक होता है‘’ तो फिर यह सवाल या विवाद उठना स्वाभाविक हो जाता है कि ऐसे में कला को अपने दायरे के प्रति भी सचेत क्यों नहीं होना चाहिए। उसे अपने तक ही सीमित रहना चाहिए। यदि कला को समाज, नीति, धर्म, दर्शन आदि से कोई लेना देना नहीं है तो फिर उसे इन क्षेत्रों में अतिक्रमण या घुसपैठ की सार्वजनिक चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए।
ऐसे मामले जब भी उठते हैं उसमें धर्म या धार्मिक भावनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसलिए हमें धर्म को भी ठीक से समझना होगा। धर्म का अर्थ है धारण करना। धर्म का एक पर्याय गुण भी है। यानी जो गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। और गुण के अर्थ में धर्म की यह परिभाषा मनुष्य और पदार्थ दोनों पर समान रूप से लागू होती है। हमारे आचरण में यह ‘गुण-तत्व’ विरोहित नहीं होना चाहिए। जैसे पानी और अग्नि का विशिष्ट धर्म (या गुण) है उसी तरह मनुष्य का भी एक विशिष्ट धर्म (या गुण) है, खुद में लोकमंगल का भाव रखना।
इन दिनों जब भी किसी कला या अभिव्यक्ति को लेकर कोई विवाद उठता है उस पर वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) होकर सोचने के बजाय व्यक्तिनिष्ठ (सब्जेक्टिव) होकर सोचा जाने लगता है। सोच के इस दायरे को राजनीति और संचार के संसाधनों व मंचों ने व्यापक भी बनाया है और आक्रामक भी। इसलिए जरूरी हो जाता है कि कोई भी अभिव्यक्ति यदि किसी विचार विशेष का समर्थन या पोषण करने के इरादे से न भी हो तो भी कम से कम उसमें ऐसा तत्व तो विद्यमान रहे जिससे लगे कि यह किसी विचार, मत या भावना का अपमान करने या उसकी खिल्ली उड़ाने के इरादे से नहीं की गई है।
यह सही है कि वर्तमान समय में कला या अभिव्यक्ति के मूल्यांकन पर अतिवादी सोच हावी है, लेकिन उसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कई बार इस सोच को हवा देने या उस आग को भड़काने के काम भी सायास किए जाते हैं। ऐसे प्रयास यदि कला या अभिव्यक्ति तक ही सीमित रहें तो भी बात समझ में आती है लेकिन जब ऐसे प्रयासों का उद्देश्य समाज, नीति, धर्म, दर्शन, संस्कृति और संस्कारों की खिल्ली उड़ाकर या उनकी अवमानना कर पैसा कमाना हो तो उन पर उंगली उठना स्वाभाविक है। कला या अभिव्यक्ति के नाम पर हम समाज में ऐसा कुछ नहीं परोस सकते जो समाज का अहित करे या भावनाओं को आहत करे। यथार्थ या कि व्यावहारिक प्रस्तुति के नाम पर हम अपने नैतिक दायरे को ही भूल जाएं इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
नैतिकता या नैतिक मूल्यों की बात को हालांकि इन दिनों राजनीतिक दृष्टिकोण से ज्यादा परिभाषित और व्याख्यायित किया जाने लगा है लेकिन फिर भी ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर जिस तरह का कंटेट परोसा जा रहा है वह निश्चित रूप से गंभीर परीक्षण और आकलन की मांग करता है। समाज में विकृतियां हमेशा से रही हैं, उनका प्रस्तुतिकरण भी समय समय पर कला एंव अभिव्यक्ति के माध्यमों से होता रहा है लेकिन उसका मूल उद्देश्य समाज में नकारात्मकता के प्रति हिकारत का भाव पैदा करना ही रहता था। आज यह भाव विकृतियों से पैसा कमाने का है। और यह ऐसा कारोबार है जिसमें विकृतियों के विस्तार का कोई अंत नहीं… लिहाजा हमें इन विकृतियों पर रोक लगाने के बारे में तो सोचना ही होगा। (मध्यमत)