राकेश अचल
देश में आत्महत्याएं रोज होती हैं लेकिन हमारा समाज व्यथित कम ही होता है, सरकार तो व्यथित होती ही नहीं है, लेकिन जब रजतपट का कोई सुशांत सिंह राजपूत जैसा नौजवान आत्महत्या करता है तो पूरा देश स्तब्ध हो जाता है, दुःख के सागर में डूब जाता है। तब सवाल उठता है की सुसाइड यानि आत्महत्या को लेकर हमारी सोसायटी का नजरिया क्या है? हमारी आँख सुसाइड का वर्गीकरण करने के बाद ही नम क्यों होती है?
मैं यहां न तो सुसाइड करने वाले सुशांत सिंह के लिए स्मृति शेष लिख रहा हूँ और न उसके लिए श्रद्धांजलि। ये दोनों काम तो कल देश के टीवी चैनलों के जरिये पंत प्रधान से लेकर आम आदमी तक ने दिन भर कर ही लिए हैं। मेरा विषय तो सुसाइड को लेकर सुशांत की पीढ़ी और सोसाइटी के नजरिये पर केंद्रित है। मैं इस बात की तह तक जाना चाहता हूँ कि हमारा समाज सुसाइड को लेकर अपना दृष्टिकोण लगातार बदलता क्यों है?
आत्महत्या लैटिन शब्द (सुसिडियम) से उत्पन्न है जिसका अर्थ है ‘स्वयं को मारना’ या जानबूझ कर अपनी मृत्यु का कारण बनने के लिए कार्य करना। आत्महत्या अक्सर निराशा के चलते की जाती है, दुनिया में हर साल कोई दस लाख लोग सुशांत की तरह आत्महत्या करते हैं। मानव प्रजाति की मौत के तमाम दस कारणों में से एक आत्महत्या भी है। दुनिया में कहीं आत्महत्या को पाप माना जाता है तो कहीं प्रायश्चित।
हमारे यहां इसे पाप ही माना जाता है फिर भी हमारे देश भारत में हर साल कम से कम डेढ़ लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। ये मेरा नहीं नेशनल हैल्थ प्रोफ़ाइल का आंकड़ा है। तकलीफ की बात ये है कि आत्महत्या के मामलों में 23 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इनमें 30-45 साल की उम्र के लोग सबसे ज्यादा हैं। यानि सुशांत की पीढ़ी इस मामले में सबसे आगे है।
भारत के हालात इस मामले में बहुत खराब हैं। पूरी दुनिया में भारत शीर्ष 20 देशों में शुमार था और अब 21वें नंबर पर है। यहां से बेहतर स्थिति पड़ोसी देशों की है। डब्ल्यूएचओ की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या की दर में श्रीलंका 29 वें, भूटान 57 वें, नेपाल 81 वें, म्यांमार 94 वें, चीन 69 वें, बांग्लादेश 120 वें और पाकिस्तान 169 वें पायदान पर है।
हमारे यहां सबसे ज्यादा आत्महत्या किसान करते हैं लेकिन किसी किसान की आत्महत्या पर कोई प्रधानमंत्री टसुए नहीं बहाता। क्योंकि वो किसी सुशांत सिंह की तरह चमकता और संभावनाओं से भरा चेहरा नहीं होता, फिर किसान की आत्महत्या के लिए सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है।
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि आत्महत्या की प्रभावी रोकथाम और रणनीति के लिए निगरानी की आवश्यकता है। आत्महत्या के पैटर्न में अंतरराष्ट्रीय अंतर, आत्महत्या की दरों, विशेषताओं और तरीकों में बदलाव, प्रत्येक देश को उनके आत्महत्या संबंधी डेटा से ही कोई ठोस लक्ष्य तय हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि दुनिया के सामने हम आत्महत्या तक के आंकड़े छुपाते हैं।
डब्ल्यूएचओ सदस्य देशों ने 2020 तक देशों में आत्महत्या दर को 10 प्रतिशत तक कम करने के वैश्विक लक्ष्य की दिशा में काम करने को प्रतिबद्ध किया है। हालांकि ऐसा होता नहीं दिखता। हम ज़िंदा कोविड के शिकार आदमी के प्राण बचाने में नाकाम हो जाते हैं तो फिर आत्महत्या करने वाले की जान क्या ख़ाक बचाएंगे?
आपको बताना जरूरी समझता हूँ कि भारत में राष्ट्रीय स्तर पर हुए सैंपल सर्वे में ये बात सामने आई है, जिसको अंतिम रूप से 31 मार्च 2018 को तय की गई कमेटी में रखा गया। अनुमान लगाया गया कि आत्महत्या की दर में 95 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। इसी सर्वे के आधार पर सामने आया है कि सबसे ज्यादा विवाहित महिलाएं इस असामयिक मौत का शिकार हुई हैं।
अध्ययन में ये तथ्य भी बताए गए हैं कि विवाह के बाद असुरक्षित होने का भाव, कम उम्र में विवाह, कम उम्र में मातृत्व, कमज़ोर सामाजिक पायदान पर होना, आर्थिक निर्भरता, घरेलू हिंसा इसके कारण बने हैं।
आत्महत्या पर पूरा पुराण लिखा जा सकता है लेकिन उसके लिखने से समाज को कोई लाभ होने वाला नहीं है, क्योंकि पूरा समाज आज विसंगतियों का शिकार है। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में जीवन दर्शन बदल गया है। मोक्ष की लालसा अब किसी को नहीं है, सब काम, क्रोध, मोह, लोभ में लिप्त हैं और जहां भी ज़रा सी विफलता मिलती है, आत्महत्या कर बैठते हैं। क्योंकि ये शायद उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
आत्महत्या करने के प्रयास पर अब क़ानून भी तो कोई सजा नहीं देता। हर धर्म में आत्महत्या को पाप माना गया है लेकिन फिर भी ये पाप जारी है, इसे पुण्य में बदला नहीं जा सकता। पाप को रोका जा सकता है, इसके लिए जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, नीतियों की जरूरत है।
भारत जैसे देश में जहां नीतियां ही आत्महत्या की परिस्थितियां पैदा करती हों वहां आत्महत्या रोकने की बात कौन सोच सकता है? आपको बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बीते एक दशक में ही सरकारी नीतियों की वजह से हजारों किसानों ने आत्महत्या की। नीतियों की वजह से ही नोटबंदी के दौरान लोगों को आत्महत्याएं करना पड़ीं।
हाल ही में कोविड-19 रोकने के लिए किये गए लॉकडाउन के बाद भी कई बेरोजगारों के जीवन संघर्ष में हारकर आत्महत्या करने की खबरें आई हैं। जरूरत इस बात की है कि हम यानि हमारी सोसाइटी हर आत्महत्या पर उसी तरह द्रवित हो जैसे सुशांत की आत्महत्या पर हुई है। चेहरा-मोहरा और सामाजिक स्थितियां देखकर आत्महत्या की गंभीरता को कम या ज्यादा नहीं किया जा सकता।
आत्महत्याएं रुक सकतीं हैं, इन्हें रोकने के लिए सरकार की नीतियों के साथ हमें हमारी जीवन शैली, दृष्टिकोण और परिवेश बदलना होगा। अन्यथा ऐसी दुर्घटनाओं पर हम संवेदनाएं जताते-जताते थक जायेंगे लेकिन इन्हें रोक नहीं पाएंगे। हमें सुशांत की पीढ़ी के साथ अपने किसानों और उन गरीबों के बारे में लगातार संवेदनशील होने की जरूरत है जो दो जून रोटी से मोहताज हैं, जो सुशांत से कहीं ज्यादा खराब परिस्थितियों में जी रहे हैं। सुशांत के बहाने हमें इस विषय पर विमर्श करना चाहिए अन्यथा चलती का नाम गाड़ी है ही।
किसान आत्महत्या को कम दिखाने के लिए अनेक राज्य सरकारों जमीन के मालिक को याने जिसके नाम जमीन है उसे ही किसान मानना शुरू किया है. कई सरकारें दावा यह भी करती रही हैं कि उनके यहाँ महिला किसान आत्महत्या बिल्कुल नहीं की है. यह स्पष्ट है कि एक प्रतिशत महिलाओं के नाम ही संपत्ति है. ये सरकारों के ढोंग हैं
ठीक बात है सर