6 अगस्त को भारत की लोकसभा जब कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति पर लाए गए प्रस्ताव पर मतदान कर रही थी और जब वह प्रस्ताव भारी बहुमत से सदन में पास होने के बाद एनडीए सरकार और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर जश्न मना रहे थे, तब शायद उन्हें अनुमान भी नहीं होगा कि बरसों पुरानी साध पूरी होने के इस जश्न पर चंद घंटों में ही मातम पसर जाएगा।
संसद में अपनी इस चिरप्रतीक्षित सफलता पर भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने शायद पार्टी शुरू भी नहीं की होगी कि एक ऐसी खबर आई जिसने पूरी पार्टी को स्तब्ध कर दिया। सारी खुशी अचानक मातम में बदल गई। और यह खबर थी पार्टी की वरिष्ठ और विलक्षण नेता सुषमा स्वराज के निधन की। जो टीवी चैनल धारा 370 के खत्म होने वाला प्रस्ताव संसद में पास होने पर चर्चाएं कर रहे थे और अनुमान लगा रहे थे कि अब भाजपा का अगला टारगेट क्या होगा, अचानक उनके स्क्रीन इस ब्रेकिंग न्यूज से चमकने लगे- सुषमा स्वराज का निधन।
दरअसल सुषमा स्वराज को दिल का दौरा पड़ा था और रात करीब सवा दस बजे उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भरती कराया गया था। तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 40 साल से भी अधिक के राजनीतिक जीवन में अनेक ऊंचाइयों को छूने वाली सुषमा स्वराज का अंत भी राजनीति घटनाक्रम से अछूता नहीं रहा।
विडंबना देखिए कि संसद में धारा 370 की समाप्ति का प्रस्ताव पारित हो जाने पर, अपने अवसान से सिर्फ 3 घंटे पहले ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देते हुए ट्वीट किया था- ‘’प्रधानमंत्री जी, आपका हार्दिक अभिनंदन, मैं अपने जीवन में इस दिन को देखने की प्रतीक्षा कर रही थी।‘’ यह ट्वीट बताता है मानो, जैसे ही अपने जीवन की साध पूरी हुई, सुषमा स्वराज ने विदा ले ली।
सुषमा स्वराज के जाने के साथ भारतीय राजनीति ने बहुत कुछ खोया है। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए करीब-करीब सभी लोगों ने उन्हें ओजस्वी वक्ता बताया। निश्चित रूप से सुषमा स्वराज भारतीय राजनीति में श्रेष्ठ वक्तृत्व कला की प्रतीक बन गई थीं। उनके जाने के बाद आज की राजनीति में अब शायद ऐसा कोई राजनेता नहीं बचा है, जो परिष्कृत हिन्दी और उसके मुहावरों का, भारतीय पौराणिक और सांस्कृतिक संदर्भों के साथ पूरी आधिकारिकता से इस्तेमाल करते हुए बोल सके। राजनीति में भाषण देने वालों की कमी नहीं है। आपको घंटों बोलने वाले भी मिल जाएंगे, लेकिन सार्थक और प्रभावी शैली के साथ कथ्य और तथ्य की प्रस्तुति की जो महारत सुषमा स्वराज के पास थी वह शायद ढूंढे न मिलेगी।
एक बात और, राजनीति में बोलना एक अनिवार्य जरूरत है। लेकिन संसद में अब ऐसे लोग शायद ही बचे हों जो न सिर्फ अपने बोले का प्रभाव छोड़ें, बल्कि अपने अनुभव और कर्म-तपस्या से अर्जित सिद्धि के चलते भविष्य को भी पढ़ते और इंगित करते चलें। सुषमा स्वराज में यह शक्ति या सिद्धि थी। और इसे उन्होंने अपनी मेहनत, अपने अध्ययन और अपने अनुभव के तप से हासिल किया था। कई बार उनके मुंह से निकली बात, बाद में सच होती देख, ऐसा लगता था मानो वे बोलती न हों, भविष्य बांचती हों।
याद कीजिए अटलबिहारी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद संसद में नई बनी गठजोड़ सरकार के विश्वास मत पर हुई बहस के दौरान 11 जून 1996 को दिया गया उनका भाषण। यह ऐतिहासिक भाषण 7 अगस्त को अनेक समाचार माध्यमों ने चलाया। इस भाषण में वे कहती हैं ‘’शायद रामराज्य और सुराज्य की नियति ही यही है कि वो एक बड़े झटके के बाद मिलता है। और इसीलिए मैं पूरे विश्वास से कहना चाहती हूं कि जिस दिन 28 तारीख की दोपहर को, मेरे नेता आदरणीय अटलबिहारी वाजपेयी ने इस सदन में अपने त्यागपत्र की घोषणा की थी, हिन्दुस्तान में उस दिन रामराज्य की भूमिका तैयार हो गई थी। हिन्दुस्तान में उस दिन सुराज्य की नींव पड़ गई थी।‘’
सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर राष्ट्रीय बहस की मांग करते हुए सुषमा स्वराज ने उस भाषण में कहा था- ‘’हम चाहते हैं कि इस देश के संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्षता की क्या कल्पना की थी और इस देश के शासकों ने उसे किस स्वरूप में ढाल दिया, इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।… अध्यक्षजी, हम सांप्रदायिक हैं, हां, हम सांप्रदायिक हैं क्योंकि हम वंदे मातरम गाने की वकालत करते हैं, क्योंकि हम राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान के लिए लड़ते हैं, क्योंकि हम धारा 370 को समाप्त करने की मांग करते हैं, क्योंकि हम हिन्दुस्तान में समान नागरिक संहिता बनाने की मांग करते हैं… हम सांपदायिक हैं क्योंकि हम कश्मीरी शरणार्थियों के दर्द को जबान देने का काम करते हैं…’’
23 साल पहले दिए गए इस भाषण को यदि आज के संदर्भों से जोड़ें तो हम पाएंगे कि राजनीति में लक्ष्य कैसे तय किए जाते हैं, कैसे उनके लिए संघर्ष किया जाता है और कैसे वे हासिल होते हैं। सुषमाजी के इस भाषण के बिन्दुओं से और भाजपा द्वारा तय किए गए लक्ष्यों से कई लोगों को आपत्ति या असहमति हो सकती है। लेकिन इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि लक्ष्य को पाने के लिए राजनीति में ऐसे ही लोग और ऐसा ही जज्बा चाहिए होता है।
यह दुखद योग है कि चंद दिनों के भीतर भारतीय राजनीति ने अपने ऐसे दो नेताओं को खोया है जिनकी अपनी-अपनी पार्टियों या विचारधारा की सीमा से परे जाकर समाज में स्वीकार्यता थी। तथ्य यह भी है कि ये दोनों ही महिला नेता थीं और दोनों ने ही राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति को मजबूत करते हुए, उनके लिए अपार संभावनाओं के द्वार खोले। इनमें पहली शीला दीक्षित थीं और दूसरी सुषमा स्वराज। संयोग से दोनों ही दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। पार्टी के लिहाज से इनमें से एक कांग्रेस का और दूसरी भाजपा का प्रतिनिधित्व करती थीं, लेकिन उनके अवसान पर जिस तरह दलों और विचारधाराओं की तारबंदी को तोड़ते हुए भावनाएं व्यक्त की गईं वे बताती हैं कि दल में रहने के बावजूद कोई व्यक्ति, कैसे अपनी सर्वस्वीकार्यकता की स्थिति को हासिल कर सकता है।
एक बात और… सुषमा स्वराज के जाने के बाद भारतीय राजनीति, खासतौर से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में अटलबिहारी वाजपेयी युग की उदारवादी और सद्भाव एवं सौहार्द वाली राजनीति की संभवत: अंतिम कड़ी भी चली गई है। राजनीति में मातृभाषा के सम्मान से लेकर मातृभाव को स्थापित करने वाला ऐसा कोई और राजनेता फिलहाल तो दिखाई नहीं देता। सुषमा स्वराज भारतीय राजनीति को यही सूनापन देकर गई हैं। उन्हें श्रद्धांजलि..!!