अजय बोकिल
टिकट के लिए ‘राजनीतिक शहादत’ हो तो ऐसी यानी कुमार विश्वास जैसी। मात खाकर भी गम का इजहार करने का तरीका हो तो कुमार विश्वास जैसा। बाजी हार कर भी महफिल लूट लेने का अंदाज हो तो कुमार विश्वास जैसा। दिल्ली प्रदेश से राज्य सभा के लिए आम आदमी पार्टी का टिकट पाने में नाकाम रहे इस कवि नेता ने जिस हरबोले अंदाज में अपने अपयश को ‘शहादत’ से जोड़ा, वह वाकई मजा दे गया। यूं कुमार ने जख्म अपने सहलाए थे, लेकिन मरहम कई दिलों पर लगा।
कुमार ने जता दिया कि कवि कैसा भी हो, मैदान (या मंच) से आसानी से बेदखल नहीं होता। होता भी है तो जाते-जाते छक्का तो मार ही जाता है। फिर निशाने पर चाहे उनका पुराना दोस्त, भूला हुआ एक्टिविस्ट, आज का घाघ राजनेता और एक प्रदेश का निर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ही क्यों न हो। वैसे खुद कुमार के अकाउंट में सियासी विश्वसनीयता का मिनिमम बैलेंस भी निर्धारित सीमा से कम है, लेकिन ‘डैड’ नहीं हुआ है। वह फिर एक्टिवेट हो सकता है।
यह शायद पहला मौका था कि आम आदमी पार्टी से राज्यसभा में कौन जाएगा, यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना। वरना राज्य सभा में जाना पुलिस की जगह होमगार्ड में भर्ती होने जैसा ही है। सारी कयासबाजी इसको लेकर थी कि रास की तीन सीटों पर अरविंद केजरीवाल किसको भेजेंगे। किसको नवाजेंगे, किसको दुत्कारेंगे।
चर्चा में पहला नाम कुमार विश्वास का ही था, क्योंकि वे आम आदमी पार्टी के हरावल दस्ते के मेंबर रहे हैं। उनके ‘विश्वास’ का अपना घेरा रहा है। लेकिन केजरीवाल ने भी मोदी की तर्ज पर सबको झटका दिया और सजातीय धनपतियों के माथे पर राज्यसभा सदस्यता के लिए तिलक लगा दिया। उन्होंने सिद्ध किया कि सफल राजनीतिज्ञ कहलाने के लिए कुटिलता का आचमन जरूरी है। और बड़ा नेता वही कि जिसके मन की थाह कोई न पा सके।
केजरीवाल ने यह भी साबित किया कि ‘आम आदमी पार्टी’ राजनीतिक संस्कृति के मामले में भी उतनी ही ‘आम’ है, जितनी कि अन्य सियासी पार्टियां। उसकी जरूरतें, राजनीतिक स्वार्थ, वोटों का गणित, जातीय समीकरण और पार्टी नेताओं में असुरक्षा की भावना वैसी ही है, जैसी कि दूसरे राजनीतिक दलों और राजनेताओं की है। यूं भी जो सत्ता पर काबिज हो जाता है, उसे सबसे ज्यादा खतरा अपनों से ही महसूस होता है। ऐसे में मंचों पर प्रेम कविताएं पढ़कर लोगों से क्रांति की अपेक्षा करने वाले कुमार विश्वास के भरोसे को झटका लगना ही था।
चूंकि कुमार कवि भी हैं, इसलिए उन्होंने इस भावनात्मक झटके को भी कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने की कोशिश की। उन्होंने ‘लतियाने’ को ‘शहादत’ का नाम दिया। कुमार ने फेसबुक पर एक वीडियो अपलोड कर कहा कि ‘पिछले डेढ़ वर्ष से हमारी पार्टी में पीएसी के अंदर, शीर्ष नेतृत्व, हमारे नेता और हमारे मित्र अरविंद भाई के कई निर्णय चाहे वो सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में हों, आंतरिक भ्रष्टाचार से आंख फेरना हो, चाहे पंजाब में अतिवादियों के प्रति सॉफ्ट रहना हो, चाहे टिकट वितरणों में जो गड़बड़ियां मिलीं उसकी शिकायत हो, कार्यकर्ता हो चाहे सैनिकों की उपेक्षा हो, चाहे जेएनयू का विषय हो, इन सभी बातों को लेकर मैंने जो सच बोला आज उसका पुरस्कार दंड स्वरूप मुझे दिया गया जिसके लिए मैं स्वयं का आभार व्यक्त करता हूं।‘
(आत्म) विश्वास की बुलंदी यहीं खत्म नहीं हुई। कुमार ने आगे कहा कि वह यह मानते हैं कि नैतिक रूप से यह एक कवि की, एक मित्र की, एक सच्चे आंदोलनकारी और क्रांतिकारी की जीत है। उन्होंने ‘आप’ के मालामाल उम्मीदवार पर तगड़ा तंज करते हुए कहा कि पार्टी ने आज ‘महान क्रांतिकारी’ सुशील गुप्ता को आम आदमी पार्टी के आंदोलनकारियों की आवाज़ के रूप में राज्यसभा में भेजने के लिए अरविंद जी ने चुना है। इसके लिए मैं अरविंद जी को बधाई देता हूं कि उन्होंने क्या शानदार चयन किया है।
विश्वास ने यह ‘खुलासा’ भी किया कि कुछ महीनों पहले 22 लोगों की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उन्हें बुलाकर अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि वह मुझे मारेंगे पर शहीद नहीं होने देंगे। सो मैं अपनी ‘शहादत’ स्वीकार करता हूं। क्योंकि केजरीवाल से असहमत होकर जीवित रहना बहुत मुश्किल है। इसी के साथ कुमार ने मार्मिक अपील भी कि केजरीवाल कृपया अपने मंत्रियों, ट्विटर योद्धाओं से ये कह दें कि शहीद तो कर दिया पर शव के साथ छेड़छाड़ न करें क्योंकि यह युद्ध के नियमों के विपरीत है।‘
इस पूरे प्रसंग में तीन बातें हैं। पहला ‘राजनीतिक शहादत’, दूसरा ऐसे ‘शहीद’ का राजनीतिक सम्मान और तीसरे ‘शहीद’ के शव के साथ कोई सियासी छेड़छाड़ न करने की नैतिकता का पालन। चूंकि कुमार आम आदमी पार्टी की अंदरूनी लड़ाई में खेत रहे हैं, इसलिए उन्हें कोई ‘शौर्य पदक’ नहीं मिल सकता। ऐसी लड़ाइयां हर पार्टी में होती हैं, लेकिन किसी ने ‘शहीद’ कहलाने का मुआवजा शायद ही मांगा हो।
बात शहीद के शव के राजनीतिक सम्मान की है तो कुमार की सियासी आत्मा की शुचिता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। उनकी आत्मा कभी किसी राजनीतिक दल, तो कभी किसी खेमे में भटकती रही है। वैचारिक दृष्टि से उन्हें आम आदमी पार्टी की खुरदुरी पॉलिटिक्स में राष्ट्रवाद का पैरोकार माना जाता है। वे भगवा ओढ़ कर सूफी कव्वाली गाने के उस्ताद हैं। ऐसे में उनका राजनीतिक सम्मान तभी कायम रह सकता है, जब वे खुलकर किसी की चुनरी ओढ़ लें। यह जिम्मेदारी केजरीवाल की नहीं है। रहा सवाल उनके ‘शव’ से छेड़छाड़ का तो कुमार ने यह कसम डाल कर अपनी अग्रिम राजनीतिक मोर्चाबंदी करने की कोशिश की है।
यानी कि ‘आप’ का कोई नेता अगर कुमार के खिलाफ बयान जारी करने का दुस्साहस करेगा तो ‘विश्वास’ के श्राप का भागीदार होगा। चूंकि उन्हें ‘शहीद’ कर दिया गया है, इसलिए उनसे उनके करमों का हिसाब मांगने की हिमाकत न की जाए। पार्टी से हकाले, छोड़ने अथवा निलंबित किसी नेता ने राजनीतिक शत्रु के लिए इस तरह की नैतिक लक्ष्मण रेखा खींचने का ‘नवाचार’ नहीं किया था, जैसा कि कुमार विश्वास ने सामने वाले के ‘विश्वासभंग’ पर किया है। यही बात कुमार को दूसरों से अलग करती है।
(‘सुबह सवेरे’में प्रकाशित मूल आलेख पर आधारित)