जीने की कला के बजाय मरने का ‘हुनर’ सीख रहे बच्‍चे

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आज जिस मुद्दे पर मैं लिख रहा हूं, उस मुद्दे को चुनने की दो वजहें हैं। इनमें से एक तात्‍कालिक है और दूसरी प्रासंगिक। तात्‍कालिक वजह तो यह है कि मेरे एक पुराने सहयोगी के जवान बेटे ने हाल ही में फांसी लगाकर जान दे दी। मैं उसके अंतिम संस्‍कार से लौटा ही हूं। आम तौर पर इन दिनों ऐसे जितने भी प्रसंग हो रहे हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण पढ़ाई का दबाव और अपेक्षित परिणाम न ला पाने की हताशा बताई जाती है। लेकिन मेरे सहयोगी का कहना है कि न तो उन्‍होंने बच्‍चे पर पढ़ाई का दबाव डाला था और न ही वह पढ़ाई में कमजोर था। वह इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा था और उसके अच्‍छे नतीजों को देखते हुए कुछ कंपनियों ने उसे पहले ही नौकरी के ऑफर भी दे दिए थे। घटना से स्‍तब्‍ध परिवार अब उस आघात को सहन करने के साथ-साथ यह पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि, जब सब कुछ ठीक ठाक था तो फिर उस बच्‍चे ने इतना बड़ा कदम कैसे और क्‍यों उठाया?

इस विषय पर लिखने की दूसरी वजह हाल के दिनों में इसका कुछ ज्‍यादा ही प्रासंगिक हो जाना है। समाज में ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। कई मामलों में तो मां बाप भी समझ नहीं पा रहे कि, आखिर बच्‍चे जान देने जैसा कदम क्‍यों उठा रहे हैं? वे जीने की कला सीखने के बजाय मरने का हुनर क्‍यों सीख रहे हैं?अपना अवसाद या अपनी हताशा व्‍यक्‍त करने का कोई और विकल्‍प चुनने के बजाय, उन्‍हें यही विकल्‍प क्‍यों आकर्षित कर रहा है? मामला केवल पढ़ाई लिखाई तक ही सीमित नहीं है। लड़के और लड़की एक दूसरे के कथित आकर्षण में, जिसे वे प्‍यार कहते या समझते हैं, इतने डूब रहे हैं कि उसमें जरा सा भी खलल उन्‍हें बर्दाश्‍त नहीं। इसमें वे या तो जान ले रहे हैं या जान दे रहे हैं। उन्‍हें अपनी मर्जी से अलग या मर्जी के विपरीत होने वाली कोई भी बात, इतनी नागवार गुजर रही है कि, मां बाप यदि कार्टून देखने या वीडियो गेम खेलने से मना कर दें, तो इतनी सी टोकाटोकी भी आत्‍महत्‍या का कारण बन रही है।

हाल ही में प्रसिद्ध समाजसेवी और गांधीवादी चिंतक सुब्‍बारावजी सुबह सवेरे के दफ्तर में आए थे। वे कई बरसों से युवाओं से संवाद करते आ रहे हैं। उनका मानना है कि इससे देश की भावी पीढ़ी और उसकी सोच को समझने में मदद मिलती है। यूं ही बातचीत के दौरान उनसे सवाल किया गया कि वे तो कई सालों से युवाओं के बीच रहते हुए उन्‍हें जानने समझने का काम कर रहे हैं, हाल के वर्षों में उन्‍हें युवाओं के सवालों और उनके व्‍यवहार में क्‍या बदलाव दिखाई देता है? सुब्‍बारावजी का कहना था कि आज के युवा के मानस को पढ़ना बहुत कठिन हो गया है। उसकी सोच को समझना बहुत ही जटिल बनता जा रहा है।

इसी चर्चा के दौरान सुब्‍बारावजी ने एक ऐसी बात कही जिसमें युवाओं के इस आत्‍मघाती व्‍यवहार के कुछ सूत्र ढूंढे जा सकते हैं। उन्‍होंने कहा- हमारे जमाने में तो मां बाप, बहुत कड़ी डांट फटकार कर देते थे। लेकिन हमारे मन में तो कभी ऐसा विचार नहीं आया कि हम उसके खिलाफ खड़े हों। हम तो मानकर चलते थे कि हमारी ऐसी कोई भी हरकत, जो मां बाप को, मां बाप होने के नाते ठीक न लगे, उसे लेकर हमें डांटना उनका अधिकार है और उस डांट को सुनना हमारा कर्तव्‍य। पर आज ऐसा नहीं है।

मुझे लगता है सुब्‍बारावजी की इस बात पर और गंभीरता से मनन होना चाहिए। क्‍या मां-बाप और बच्‍चों के बीच रिश्‍ते में एक दूसरे पर अधिकार की वह बात समाप्‍त होना भी ऐसी घटनाओं के पीछे एक प्रमुख कारण है? यह सही है कि मां बाप के खिलाफ संतानों के बगावती तेवर सौ, दो सौ साल पहले के इतिहास में भी मिल जाएंगे लेकिन ऐसी घटनाएं अपवाद स्‍वरूप ही होती थीं, प्रवृत्ति स्‍वरूप नहीं। लेकिन आज तो युवा की बात छोडि़ए, बच्‍चा भी, खुद पर मां बाप के जन्‍मजात अधिकार को अपने जीवन में खलल मान रहा है। इसके पीछे मां-बाप और बच्‍चों के बीच होने वाले सतत संवाद का टूट जाना भी बड़ी वजह है। यदि लगातार संवाद हो तो उसमें प्‍यार और फटकार दोनों रहेंगे। चूंकि वो नियमित होगा, इसलिए बच्‍चे को अस्‍वाभाविक कुछ भी नहीं लगेगा, जैसा कि पुरानी पीढ़ी और उनकी संतानों के बीच होता था। आज एक तो मोबाइल व इंटरनेट जैसे संचार के संसाधनों और दूसरे निरंतर बढ़ती आकांक्षाओं की आपाधापी के कारण परिवारों में व्‍यक्तिगत संवाद खत्‍म-सा हो गया है। ऐसे में बच्‍चों की मनोदशा को जानने का अवसर न मिल पाना और किसी भी अवसाद के क्षण में बच्‍चों का खुद को अकेला महसूस करना, उन्‍हें जीवन को समाप्‍त करने जैसी राह पर ले जा रहा है। वे जीने पर अपना अधिकार समझते हों या न समझते हों, पर मरने पर उन्‍होंने अपना अधिकार अच्‍छी तरह समझ लिया है। परिवार से लेकर शिक्षा परिसरों तक उन्‍हें जीने का अधिकार और जीने के कर्तव्‍य सिखाना हमारी सर्वोच्‍च प्राथमिकता होनी चाहिए।

गिरीश उपाध्‍याय

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