नागरिकता संशोधन कानून को लेकर इन दिनों देश के कई हिस्सों में बवाल मचा हुआ है। सोमवार की सुबह एक तरफ जहां सारे अखबार इस कानून के विरोध की खबरों से रंगे हुए थे वहीं टीवी चैनल भी इससे जुड़ी घटनाओं, खासतौर से दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में हुई पुलिस कार्रवाई और हिंसा को लेकर चीख रहे थे।
इसी दौरान दो तीन बहुत ही महत्वपूर्ण घटनाएं देखने को मिलीं। जामिया हिंसा की खबरों के बीच चैनल बदलते हुए अचानक ‘आज तक’ पर निगाहें टिक गईं। वहां ‘एजेंडा आज तक’ कार्यक्रम के तहत कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद से बातचीत चल रही थी। ‘आज तक’ की प्रतिनिधि कश्मीर और धारा 370 को लेकर सवाल करते हुए आजाद को बता रही थी कि कश्मीर में अब तो हालात सामान्य हो रहे हैं, वहां पंचायतों के चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से हुए हैं और लोगों ने उनमें बढ़चढ़ कर हिस्सा भी लिया है।
इसके जवाब में गुलाम नबी आजाद ने, जो खुद पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य से ही आते हैं और वहां के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं, जो कहा उसे सुनना और जानना बहुत जरूरी है। वे बोले कि जिस राज्य में वहां के तीन पूर्व मुख्यमंत्री नजरबंद हों, एक पूर्व मुख्यमंत्री (खुद आजाद) को सुप्रीम कोर्ट की इजाजत लेकर वहां जाना पड़ता हो और जहां सेना और अर्धसैनिक बलों की भारी मौजूदगी के बीच पांच महीनों से इंटरनेट जैसी आवश्यक सुविधाएं बाधित हों वहां स्थिति को सामान्य कैसे कहा जा सकता है?
चैनल की प्रतिनिधि ने जब जोर देकर राज्य में पंचायत चुनावों के शांतिपूर्ण तरीकों से संपन्न हो जाने का जिक्र किया तो आजाद ने असलियत खोली कि आप जिसे चुनाव कह रही हैं उसे लेकर जरा यह भी जान लीजिये कि उसमें लोगों की भागीदारी कितनी रही है। आजाद ने बताया कि जब वे कोर्ट की अनुमति लेकर बारामूला गए तो वहां उन्होंने कॉरपोरेशन के चुने हुए प्रतिनिधियों से बात करने की इच्छा जताई। कुल 21 लोगों में से कई तो मिलने आ गए लेकिन भाजपा के 7 प्रतिनिधि नहीं आए।
आजाद के मुताबिक जब उन्होंने इन प्रतिनिधियों के बारे में जानकारी ली तो पता चला कि उनमें से 3 प्रतिनिधियों को चुनाव में सिर्फ 3-3 वोट मिले थे। एक अन्य को पांच और एक को छह वोट मिले थे। जो सर्वाधिक वोटों से जीता था उसे सात वोट मिले थे। कांग्रेस नेता ने कहा- जाहिर है इन सभी को उनके परिवार वालों के ही वोट मिले। क्या इसे हम ‘फ्री एंड फेयर’ इलेक्शन कहेंगे? आजाद के इस सवाल का चैनल की प्रतिनिधि के पास कोई ठोस जवाब नहीं था। बावजूद इसके, आखिर तक उसकी कोशिश यही स्थापित करने की रही कि कश्मीर में स्थिति सामान्य है।
सोमवार का ही एक दूसरा किस्सा लीजिये। जामिया मिलिया में रविवार रात हुई हिंसा और पुलिस कार्रवाई के विरोध में वहां के छात्र कड़ाके की ठंड में कपड़े उतारकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उस प्रदर्शन को कवर करने जब एक चैनल का प्रतिनिधि वहां पहुंचा तो छात्रों ने उसे घेर लिया और उससे कहा गया कि वह वहां से चला जाए। पत्रकार ने जब घटना के कवरेज की बात की तो उसे जवाब मिला कि हम जानते हैं कि आप क्या दिखा रहे हो…
इसके बाद अपने प्रतिनिधि से लाइव बात कर रही, स्टूडियो में बैठी एंकर ने सफाई देना शुरू की कि देखिये वहां हमारे रिपोर्टर को कवरेज से रोका जा रहा है, जबकि हम तो सभी की बात दिखा रहे हैं। हमने पुलिस को भी दिखाया, छात्रों को भी दिखाया, उनके शिक्षकों से भी बात की वगैरह… मैं उस चैनल को काफी देर तक देखते हुए इस बात का इंतजार करता रहा कि स्टूडियो से आ रही यह सफाई कब बंद होती है और कब उस रिपोर्टर को फिर से लाइव दिखाया जाता है जो छात्रों की भीड़ में फंसा था। लेकिन वह दृश्य मुझे देखने को नहीं मिला…
ये घटनाएं क्या बता रही हैं? ये बता रही हैं कि मीडिया के रवैये और उसके पक्षपाती हो जाने को लेकर अब लोग मुखर होने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि मीडिया कहीं और से संचालित होकर उन घटनाओं को दिखाने से परहेज कर रहा है या फिर उन्हें बहुत कमतर करके दिखा रहा है जिनमें सत्ता की आलोचना हो या फिर जिनकी आंच सत्ता में बैठे लोगों तक पहुंचती हो। जो भी दल जहां सत्ता में है, मीडिया उसका रक्षक या कवच बनता जा रहा है।
इसीलिये कश्मीर में क्या हो रहा है यह प्रत्यक्ष तौर पर हमें मालूम नहीं चल पाता क्योंकि मीडिया कहता है कि वहां स्थिति तेजी से सामान्य हो रही है। कुछ खास एंगल से लिए गए फुटेज से साबित कर दिया जाता है कि वहां बाजार भी खुल गए हैं, पर्यटक भी आने लगे हैं और लोग अपनी सामान्य जिंदगी जीने लगे हैं। असलियत या फिर मामले का दूसरा पक्ष तब सामने आता है जब गलती से गुलाम नबी आजाद जैसे किसी व्यक्ति को हम अपने कार्यक्रम में बुला लेते हैं।
और जो कश्मीर में हुआ वही इन दिनों उत्तरपूर्व के राज्यों में हो रहा है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर वहां जो विरोध है उसकी आग और उसके तापमान का देश के दूसरे राज्यों के लोगों को अहसास ही नहीं हो रहा। ऐसा इसलिए है क्योंकि चैनल हमें पूर्वोत्तर की आग नहीं हिमाचल, उत्तराखंड और कश्मीर की बर्फबारी दिखा रहे हैं।
मीडिया का इस तरह सड़ जाना बहुत खतरनाक है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि तमाम विपरीतताओं के बीच या उनके बावजूद लोग अभी तक मीडिया पर भरोसा करते आए हैं। उनका मानना रहा है कि सरकारें या सत्ता प्रतिष्ठान चाहे जितने काले कारनामे कर लें लेकिन वे दबेंगे नहीं क्योंकि वे मीडिया की नजरों से बच नहीं पाएंगे। पर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। मीडिया की आंखों पर किसी और की ऐनक चढ़ गई है।
गुलाम नबी आजाद ने आजतक के एजेंडा कार्यक्रम में कश्मीर से जुड़े एक सवाल के जवाब में गालिब के शेर का जिक्र करते हुए कहा- ‘’जब तवक्का ही उठ गई गालिब, तुमसे तवक्का क्या करें।‘’ गालिब ने हालांकि इस शेर को यूं कहा है- जब तवक्को ही उठ गई गालिब, क्यूं किसी का गिला करे कोई। ऐसा लगता है कि आजाद ने शेर में तब्दीली करते हुए संकेतों में बहुत सारी बातें कह दी हैं। गालिब ने तो तवक्को यानी भरोसा उठ जाने पर किसी से कोई शिकायत न होने की बात कही थी, लेकिन आजाद ने उसे बदलकर यूं कर दिया कि जब भरोसा ही उठ गया तो फिर भरोसा क्या करें… यह बात भले ही कश्मीर की जनता और केंद्र सरकार के संदर्भ में कही गई हो, लेकिन इसका निशाना मीडिया पर भी उतना ही सटीक बैठता है।