चुनाव आयोग ने 17 वीं लोकसभा के चुनाव कार्यक्रम का ऐलान करने के साथ ही चुनाव संबंधी कुछ दिशानिर्देश भी जारी किए हैं। चुनाव आचार संहिता संबंधी ऐसे ही एक निर्देश में कहा गया है कि कोई चुनाव घोषणा पत्र अब चुनाव प्रचार थमने के बाद जारी नहीं किया जा सकेगा। आयोग के अनुसार मतदान से 48 घंटे पहले घोषणा पत्र जारी करना होगा।
चुनाव घोषणा पत्र अपनी मूल प्रकृति में किसी भी दल या उम्मीदवार द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला वो दस्तावेज है जो बताता है कि यदि वह दल सत्ता में आया तो वह लोक कल्याण और सुशासन आदि के लिए क्या-क्या करेगा। यह एक तरह से जनता या मतदाताओं से किया गया वायदा होता है। चूंकि मतदाताओं से इसी आधार पर वोट मांगे जाते हैं इसलिए मतदान से पहले वोटरों के सामने यह बात साफ होनी जरूरी है कि उनके पास जो लोग वोट मांगने आ रहे हैं वे भविष्य में उनके लिए क्या-क्या करने वाले हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि बात केवल चुनाव घोषणा पत्र जारी करने तक ही सीमित होकर रह गई है। चुनाव घोषणा पत्र में किए जाने वाले वायदों पर न तो चुनाव से पहले कोई खास बहस होती है और न चुनाव के बाद। ऐसे घोषणा पत्रों में मनमाने और शेखचिल्ली वायदे किए जाते हैं और वोटरों को मूर्ख बनाया जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण मामला चुनाव घोषणा पत्रों के जरिए मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने का है। दक्षिण भारतीय राज्यों से बढ़ा यह चलन अब उत्तर भारत के राज्यों में भी अपना असर दिखाने लगा है। चुनाव में धनबल और बाहुबल को रोकने की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाले जनधन के इस दुरुपयोग पर कभी तार्किक बहस नहीं होती। जबकि एक मायने में देखा जाए तो यह सीधे सीधे मतदाताओं को रिश्वत देकर वोट लेने का मामला है।
मुफ्त चीजें बांटने के नाम पर चुनाव के दौरान की जाने वाली इस रिश्वतखोरी को लेकर तमिलनाडु का एक मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। दरअसल 2006 और 2011 के विधानसभा चुनावों में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों डीएमके और एआईडीएमके ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में लोगों को रंगीन टीवी, पंखे, मिक्सर, लैपटॉप आदि बांटने का वायदा किया था। इन वायदों को सुब्रमण्यम बालाजी नामक व्यक्ति ने कोर्ट में चुनौती देते हुए इन्हें अनधिकृत, अवांछित और संविधान की भावना के विपरीत बताया था।
सुब्रमण्यम की ओर से तर्क दिया गया था कि उम्मीदवार या उसके एजेंट की ओर से इस तरह का कोई भी ‘गिफ्ट’ देना या उसका ‘वायदा’ करना जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत रिश्वतखोरी के दायरे में आता है। इस तरह के किसी भी गिफ्ट को देने या वायदे को पूरा करने में जनधन का उपयोग होता है जो उचित नहीं।
सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने इस मामले की सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया था उसमें जस्टिस पी. सदाशिवम के अलावा भारत के वर्तमान प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई भी शामिल थे। जुलाई 2013 में सुनाए गए अपने फैसले में कोर्ट ने इस तरह के वायदे किए जाने को अनुचित तो नहीं माना था लेकिन इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए उन्होंने चुनाव आयोग से इसका हल खोजने की पहल करने को कहा था।
उस समय याचिका को लेकर कोर्ट का यह आब्जर्वेशन गंभीरता से लिया जाना चाहिए कि भले ही इस तरह के वायदे जनप्रतिनिधित्व कानून की किसी धारा का सीधे सीधे उल्लंघन न करते हों लेकिन वास्तविक अर्थों में राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह वोटरों को मुफ्त गिफ्ट देना निश्चित रूप से मतदाताओं को प्रभावित करता है और इस तरह के वायदों से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ें बहुत हद तक प्रभावित होती हैं।
कोर्ट का कहना था कि ऐसी तमाम घोषणाएं वोटरों के मानस पर गहरा असर डालती हैं। इन घोषणाओं से होने वाले फायदे का भी वास्तविक आकलन नहीं हो पाता क्योंकि न तो लाभान्वितों की कोई विस्तृत सूची आदि होती है और न ही ऐसी योजनाओं के असर या परिणाम का कोई मूल्यांकन किया जाता है। इस मामले में चुनाव आयोग को पहल करके समुचित उपाय करने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद चुनाव आयोग भी समय समय पर इस तरह की लोकलुभावन घोषणाओं से बचने की सलाहें और सुझाव देता रहा है लेकिन राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों पर उसका कोई खास असर दिखाई नहीं देता। आज भी मुफ्त सामान से लेकर मुफ्त अनाज, बिजली, सिंचाई सुविधा आदि के वायदे लगातार किए जा रहे हैं। और हर बार इस सूची में नई नई चीजें जुड़ती चली जाती हैं इनमें कभी साइकल होती है तो कभी मोपेड कभी स्मार्ट फोन होते हैं तो कभी मंगलसूत्र।
मुफ्तगीरी को बढ़ावा देने में तमिलनाडु सबसे आगे रहा है। वहां इस ‘लोकलुभावन राजनीति’ की शुरुआत 1977 में एमजी रामचंद्रन के मुख्यमंत्री बनने के साथ हुई थी जब स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील स्कीम घोषित की गई थी। हालांकि वह कल्याणकारी योजना थी, लेकिन इसी से ‘मुफ्त संस्कृति’ की प्रेरणा लेकर 2006 में करुणानिधि ने रंगीन टेलीविजन बांटने का वादा कर चुनाव जीत लिया था।
मुफ्त में चीजें बांटने और जनधन के मनमाने इस्तेमाल का यह मामला मंगलवार को फिर तमिलनाडु के जरिए ही चर्चा में आया है जब डीएमके ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सत्ता में आने पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को रिहा करने के अलावा ‘नोटबंदी के पीडि़तों’ को मुआवजा देने का भी वायदा कर डाला है। जाहिर है इस ‘नोटबंदी पीडि़त मुआवजे’ की आड़ में असली मकसद सरकारी खजाने को लुटाकर अपने वोट खजाने को भरने का ही है। अब कौन तो तय करेगा कि नोटबंदी पीडि़त कौन है और यह तय होगा भी कैसे? पर चुनाव है तो सब जायज है।