नर्मदा कथा-4
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प्रमोद शर्मा
मैं नर्मदा हूं..! आज फिर अपनी पीड़ा लेकर तुम्हारे सामने हूं। मैंने अपने संपर्क में आने वाले जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों को तो जीवन दिया ही, साथ ही निर्जीव कंकरों को भी महादेव तुल्य बना दिया। यह क्षमता भी भारत वर्ष की सभी नदियों में मात्र मेरे ही पास थी। इसके बदले में मुझे सिर्फ और सिर्फ बर्बादी मिली। मेरे किनारों के दोनों ओर कितनी ही प्रकार की घास, पौधे, लताएं, झाड़ियां और वृक्ष थे, यही तो मुझे सौंदर्य की नदी बनाते थे। मेरी जल धारा में कितने ही जलीय जीव जीवन पाते थे। नर्मदा घाटी प्राकृतिक विविधता से परिपूर्ण थी। उसी को देखकर कभी पूज्यपाद आद्य शंकराचार्य ने लिखा था- ‘‘सुलक्ष नीर तीर धीर पक्षी लक्ष कूजितं।‘‘ पर आज न तो मेरे तीरों का सौंदर्य शेष बचा है और न ही वे पक्षी या जीव ही बचे हैं। वनस्पतियों का श्रृंगार मिट चुका है, मेरी संतानें लुप्त होती जा रही हैं और उनके बिना मैं नितांत अकेली, ‘तरंगभंग रंजितं‘ होकर उदास सी बह रही हूं।
करीब दो साल पहले कराए गए एक सर्वे के बाद यह बात सार्वजनिक की गई कि मेरे जल में करीब 150 प्रकार की मछलियां और अन्य प्रकार के जलीय जीव और तटों पर करीब 250 प्रकार के पक्षी पाए जाते थे। इनमें सूक्ष्म जीव शामिल नहीं थे। उन्हें शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या हजारों में होती है। सर्वे में यह बात भी सामने आई कि कभी मेरे जल में बहुतायत में पाई जाने वाली पातल, मगर, महाशिर प्रजाति की मछली जैसे करीब दो दर्जन से ज्यादा जलीय जीव या तो लुप्त हो चुके हैं या फिर लुप्त होने की कगार पर हैं। ये जीव मेरी संतानों की तरह ही थे। इतना ही नहीं ये प्रकृति चक्र के संवाहक भी थे। उनके बिना मेरी हालत तो खराब हो रही है, साथ ही प्रकृति का पारिस्थितक तंत्र भी दरक रहा है।
बेटो! मैं आज तुम्हें एक रहस्य की बात बताती हूं। मैं यूं ही पतित पावनी नहीं हूं। इसके पीछे एक ठोस कारण था। मेरे तटों के दोनों ओर करीब एक हजार से ज्यादा प्रकार की वनस्पति जैसे घास, पौधे, झाड़ियां, लताएं और पेड़ आदि पाए जाते थे। इनमें से करीब दो सौ प्रकार की वनस्पति लुप्तप्राय हो चुकी हैं। ये वनस्पतियां ही मेरा श्रृंगार थीं। इनकी पत्तियों, शाखाओं और जड़ों से होकर आने वाली पानी की एक-एक बूंद मेरे जल में मिलती थी, तब मेरा जल अमृत तुल्य बनता था। अब स्थिति बिलकुल बदल चुकी है। अति लालच के कारण मेरे तटों पर गांव-गांव में पड़ी पड़त भूमि खत्म कर दी गई है। वहां खेती होने लगी है। इससे वनस्पति तो नष्ट हुई ही साथ ही उनके औषधीय प्रभाव वाले जल के स्थान पर खेती में उपयोग किए जाने वाले रसायनों और कीटनाशकों का जहरीला पानी मुझमें मिल रहा है। इससे मेरी संतानें यानी जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं।
पिछले कुछ सालों में बेतहाशा बढ़े रेत के कारोबार ने तो मेरी कमर ही तोड़ दी। यह रेत मेरे जल तंत्र और जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है। दिन-रात मेरा सीना चीरकर रेत का खनन किया जा रहा है। इससे मेरी हालत और अधिक खराब हो रही है। यह कारोबार मेरे लिए कोढ़ में खाज जैसा ही साबित हो रहा है।– (जारी)