राकेश अचल
लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सेना के साथ झड़प में भारत के 20 जवानों की शहादत की जघन्य घटना के बाद आम भारतीयों की तरह मैं भी दुखी और क्रोध से भरा हूँ लेकिन क्षोभ ये है कि मैं महाभारत के संजय की तरह घर बैठे गलवान की हिंसा को अपनी आँखों से देख नहीं सकता और सरकार ने अब तक इस मामले में अपना मुंह बंद कर रखा है। सेना का आधिकारिक बयान ही एकमात्र ऐसा सूत्र है जो मानता है कि हमें शहादत देना पड़ी।
पिछले चौबीस घंटे में देश के असंख्य टीवी चैनलों और अखबारों में रक्षा और विदेश नीति के विशेषज्ञ इतना बोल चुके हैं कि अब मेरे लिखने के लिए बहुत ज्यादा कुछ बचता नहीं है, लेकिन इस अनंत बहस में आम आदमी की भागीदारी कहीं नहीं है। कहीं राजनीति है और कहीं भक्तिभाव या कोरी खीज। इस अप्रत्याशित घटना के बाद जनता ने नाकाम सरकार के प्रति अपनी एकजुटता का प्रदर्शन भी किया, लेकिन असल सवाल जहां के तहाँ हैं।
बड़ा सवाल ये है कि जो 45 साल में नहीं हुआ, वो छह साल में कैसे हो गया? जबकि हम पिछले छह साल से चीन को लगातार झूला झुला रहे हैं, उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं। कहा जाता है और लोक मान्यता भी है कि संकट के दौर में सबसे पहले अपने पड़ोसियों को आवाज दी जाती है, क्या आज चीन द्वारा की गयी हरकत के बाद भारत अपने किसी पड़ोसी देश को आवाज देने की स्थिति में है?
क्या कोई ऐसा पड़ोसी है, जो हमें जरूरत पड़ने पर अपनी जमीन का इस्तेमाल चीन के खिलाफ करने देने के लिए तैयार हो जाये? शायद नहीं। आपको पता है कि हमें विरासत में पड़ोसी देश के रूप में बांग्लादेश, चीन, पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, भूटान और अफगानिस्तान मिले हैं। इनमें से किस देश के साथ पिछले छह साल में भारत के रिश्ते मजबूत हुए हैं?
समुद्री सीमा से जुड़े श्रीलंका और मालदीव के साथ हमारे रिश्ते जगजाहिर हैं। नेपाल ने हाल ही में जो किया है, उसका उल्लेख करना भी अब जरूरी नहीं है। हमें गलवान घाटी में बहे भारत के 20 जवानों के खून के उजाले में ही देखना होगा की पड़ोसियों से भारत के रिश्ते बिगड़ने का असल कारण क्या है? क्या नेहरू के ज़माने की विदेश नीति या फिर मौजूदा सरकार का अनाड़ीपन?
वैसे इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए आपको बहुत दूर नहीं जाना पडेगा। आपको देखना होगा कि पिछले सत्तर साल में भारत के किस प्रधान मंत्री ने चीन के साथ पींगें बढ़ाने की कितनी कोशिश की? पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध के बाद जितने भी प्रधानमंत्री आये, सबने चीन के साथ एक सम्मानित और आवश्यक दूरी बनाये रखी।
यहां तक कि चीन में उनका आना जाना भी एक-दो बार से ज्यादा नहीं हुआ। लेकिन हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री का चीन से अनुराग प्रधानमंत्री बनने से पूर्व का है। वे गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री रहते हुए कुल जमा 9 बार चीन गए और बदले में मिला क्या? वो ही धोखा जो नेहरू को मिला था!
हमारे प्रधानमंत्री जी की अखंड भक्तमंडली और उनकी पार्टी का आईटी सेल अक्सर कहता है कि यदि चीन ने भारत से टकराने की हिमाकत की तो उसे करारा जवाब मिलेगा क्योंकि अब भारत 1962 वाला भारत नहीं 2020 वाला भारत है। ये लोग क्यों भूल गए कि चीन भी 62 वाला चीन नहीं 2020 वाला चीन है और उसने ये प्रमाणित भी कर दिया।
दुर्भाग्य की बात तो ये है कि हमारी सरकार विपक्ष की तो छोड़िये अपने समर्थकों की बात सुनकर चीन के साथ अपना कारोबारी रिश्ता तोड़ने को तैयार नहीं है। सरदार वल्ल्भभाई पटेल की मूर्ति से लेकर टनल बनाने तक का काम हम चीन से करवाने में गौरवान्वित होते हैं। चीन को भारत में बैंकिंग करने की इजाजत देकर अपनी दरियादिली दिखा रहे हैं, आखिर क्यों?
इतिहास में नया पन्ना जोड़ने वाली गलवान की घटना के बाद भी सरकार ‘चुकारिया’ (मिटटी का पात्र) में गुड़ फोड़ रही है, जबकि उसे तत्काल देश को भरोसे में लेकर जवाबी कार्रवाई की रणनीति बनाना चाहिए थी। दुर्भाग्य से देश कोरोना संकट से जूझ रहा है। देश में न्याय से लेकर लोकतंत्र तक स्थगित है, संसद का आता-पता नहीं है। उसका आपात सत्र बुलाकर देश को विश्वास में लेने की जरूरत समझी नहीं जा रही है।
फिर भी हमें भरोसा है की विश्व गुरु बनने पर आमादा हमारी सरकार इस मौजूदा संकट से देश को उबार लेगी। हमारे पास विश्वास करने के अलावा कोई अन्य विकल्प है भी नहीं। गलवान के बाद एक दुर्भाग्य ये भी है कि हमारी भक्त मंडली चीन के इस बर्बर व्यवहार को तर्कसंगत ठहराने के लिए अनेक तर्क गढ़ रही है कि चीन हमें क्यों सब सिखाना चाहता है।
ये समय नेता के प्रति नहीं, देश के प्रति भक्तिभाव का है, समर्पण का है। इसलिए हे महादेव, युगावतार, विश्वगुरु देश का विश्वास मत तोड़िये, जो करना जरूरी है कीजिये। हम युद्ध के पक्षधर कभी नहीं रहे, न ही चीन से युद्ध कर हमें कुछ हासिल होने वाला है, सिवाय बर्बादी के। लेकिन देश की सम्प्रभुता और अखणडता के लिए हम सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहें।
चीन से वार्ता भी करें और व्यापारिक रिश्ते भी तोड़ें तभी शायद बात बन सकती है, अन्यथा बात बिगड़ने की शुरुआत तो हो ही चुकी है। आने वाली पीढ़ियां इस घटना के लिए किसी नेहरू को नहीं, बल्कि मोदी को कोसेंगीं, श्री नरेंद्र मोदी को। इसलिए कृपा कर चीन के आगे बीन बजाना बंद कीजिये, फौरन बंद कीजिये।
और हाँ इस निर्मम वारदात का इस्तेमाल पुलवामा की शहादत की तरह सियासत के लिए भूलकर भी मत कीजिये। आपका कोई भरोसा नहीं, आप बिहार और बंगाल जीतने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
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