जाति की राजनीति और राजनीति की जाति

राकेश अचल 

दुनिया भले ही चाँद पर पहुँच कर मंगल में डेरा डालने के ख्वाब देख रही हो लेकिन हम विश्वगुरु अपनी जगह से तिल भर हिलने के लिए तैयार नहीं हैं। आजादी के 73 साल बाद भी हमारी सियासत की कसौटी ‘जाति’ बनी हुई है। हमें साधु से ज्ञान की नहीं,  उसकी जाति की दरकार पहले है। हम तलवार का नहीं उसकी म्यान का मोल करने की अपनी पुरानी आदत से छुटकारा नहीं पाना चाहते। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से किये जा रहे क्रियाकलाप कम से कम यही सब प्रमाणित कर रहे हैं। भाजपा ने देश में जातिवाद पर एक बार फिर मुहर लगा दी है।

मध्यप्रदेश भाजपा ने अपनी स्थायी समिति के सदस्यों की जो सूची जारी की उसमें पहली बार नेताओं की जातियों का उल्लेख ख़ास तौर पर किया। (हालांकि जातिगत जानकारी हटाते हुए बाद में संशोधित सूची जारी की गई।) भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई ने कांग्रेस के युवा नेता जितेन प्रसाद को भाजपा में सिर्फ इसलिए शामिल किया है क्योंकि वे ब्राम्हण जाति के हैं। यानि भाजपा अब जातियों की बैसाखी के सहारे ही भविष्य का रास्ता तय करने के लिए कमर कसकर खड़ी हो रही है। कहने को ये भाजपा का अंदरूनी मामला है लेकिन हकीकत में ये देश के भविष्य की दिशा और दशा को इंगित करने वाली घटना भी है।

एक हकीकत है कि भारत को आजादी जातियों और धर्म के आधार पर बांटने के बाद ही मिली थी। ये भी हकीकत है कि दशकों तक देश में कांग्रेस ने जातिवाद की राजनीति की। जातिवाद की राजनीति का साइड इफेक्ट ‘आरक्षण’ को भी माना जाता है। इसका आधार भी जातियां ही हैं। आजादी की हीरक जयंती मनाने की ओर बढ़ रहे देश में अभी तक इतनी सामर्थ्य पैदा नहीं हुई है कि वो जाति के आधार पर सियासत करना सीख ले और आरक्षण जैसे विवादास्पद मुद्दों से निजात हासिल कर सके। नेहरू-गांधी से लेकर मोदी युग में जातिवाद से मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।

देश में विकास की गाड़ी को इसी जातिवाद ने पूरी गति से आगे नहीं बढ़ने दिया। देश में भाई-भतीजावाद,  साम्प्रदायिकता जैसे वाद भी इस जातिवाद के आगे नहीं टिक पाते। सियासत की पहली कसौटी चूंकि जातिवाद है इसलिए नौकरशाही, न्यायपालिका में भी जातिवाद ने अपनी जड़ें जमा ली हैं,  नतीजा आपके सामने है। हम ‘नौ दिन चले, अढ़ाई कोस’ की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। हम सीना ठोक कर कहते हैं कि हमने किस जाति के आदमी को कौन से सर्वोच्च पद पर बैठाया है,  इसलिए किस जाति को अपना कीमती वोट किस राजनीतिक दल को देना चाहिए।

विश्वगुरु भारत के गले की हड्डी बन गया है जातिवाद। हम इससे मुक्ति पाने के बजाय इसमें और जकड़ते चले जा रहे हैं। हमारे तमाम फैसलों का आधार भी जातियां बन गयी हैं। हम जातियों के आधार पर ही देश में छुट्टियां घोषित करते हैं, फ़ौज बनाते हैं,  पूजाघर तो बनाते ही हैं। हमारे राष्ट्रप्रमुख अपनी जाति के आधार पर ही अपने सार्वजनिक व्यवहार का निर्धारण करते हैं। किसी के पास भी इस सबके लिए राष्ट्र आधार बन ही नहीं पाया है। आप देश के किसी भी राज्य की राजनीति का डीएनए जांच कर लीजिये, सभी में जातिवाद मूल गुण के रूप में मौजूद मिलेगा। हमने जातियों के आधार पर ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक में सीटें आरक्षित कर रखीं है। हमारे पास ऐसा करने के अकाट्य तर्क भी हैं,  दलीलें भी हैं।

मैंने जब जातिवाद के आधार पर सियासत की बात की मुखालफत शुरू की तो मेरे एक मित्र ने प्रतिप्रश्न किया कि आखिर देश में जातिवाद का बीज बोया किसने? मैंने कहा-जिसने भी बोया था, उसे इसकी सजा मिल चुकी है,  अब हमारी नयी सरकार क्यों जातिवाद का जहर फ़ैलाने में जुटी हुई है? बीज कोई और बोये लेकिन फसल तो जो सत्ता में रहेगा, वो ही काटेगा। जातिवाद की लहलहाती फसल देश में जनादेश का प्रमुख आधार है इसलिए इस मुद्दे को लेकर कोई खुलकर बोलने के लिए राजी नहीं है,  किसी में ऐसा करने का साहस है ही नहीं।

अब सवाल ये है कि क्या देश की जनता भी जाति के आधार पर सारे फैसले कराना चाहती है या उसे भी ये जातिवाद बुरा लगता है। देश में जातिवाद की जड़ें गहरी करने का पाप सभी राजनीतिक दलों ने किया है। जनता भी इस मामले में पाप की भागीदार है। जनता को यदि अपनी गलती का प्रायश्चित करना है तो उसे बार-बार मौक़ा मिलने वाला है। जनता हर चुनाव में जातिवाद के नाम पर वोट मांगने वालों की खाट खड़ी कर सकती है,  लेकिन जनता को भी सजातीय नाम ही चाहिए। यानि जनता जातिवाद का जहर निगलने के लिए तैयार है।

देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ सियासत में उन्हें ही कामयाबी मिली जिन्होंने जातिवाद के आधार पर अपनी सियासत को आगे बढ़ाया। कांग्रेस और भाजपा के अलावा (वामपंथियों को छोड़कर) सभी राजनीतिक दल इसके मोहजाल में फंसे हैं। मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव से लेकर अन्य क्षेत्रीय दलों ने अपने वोट बैंक को जातियों के आधार पर ही अपना-पराया बनाया। जाति के बिना आज भी देश में सियासत की कल्पना आप कर ही नहीं सकते। अगर आप जातिवाद को नहीं मानते या उसकी मुखालफत करते हैं तो न जाने कितना बड़ा पाप करते हैं। आपको नौटंकीबाज कहा और समझा जा सकता है।

भारत में जातिवाद कोई आज का नहीं है, इसकी जड़ें कम से कम 2000 साल पुरानी है,  तो सवाल ये है कि इसे निर्मूल करने में भी दो हजार साल लगना चाहिए! जबकि ये तर्क नहीं कुतर्क है,  जिसे न दिया जाना चाहिए और न ही सार्वजनिक चर्चा में शामिल किया जाना चाहिए। जातिवाद को निर्मूल करने के लिए हमें भगवान के भरोसे नहीं बैठना है। भगवान तो अपने मंदिर का शिलान्यास होने के बाद शांत हो गए हैं। भगवान शांत हैं तो भक्त भी शांत हैं हमें ये जहरीली शांति भंग करना पड़ेगी। लेकिन ये काम आसान नहीं है। कम से कम देश पर अगले पच्चीस साल राज करने का संकल्प लेने वाली भाजपा के बूते की तो ये बात नहीं है। दुर्भाग्य देखिये कि हमारी जनगणना का आधार तक जातियां हैं।

जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत में नही बल्कि मिस्र,  यूरोप आदि में भी अपेक्षाकृत क्षीण रूप मे विद्यमान था। इन दिनों मैं अमेरिका में हूं मुझे यह जातिवाद कहीं नजर ही नहीं आ रहा। हमारे यहां जातियों का प्रदर्शन घर के बाहर लगी नेमप्लेट से लेकर दो पहिया वाहन और कार तक किया जाता है। इन्हें रोकने के लिए समय-समय पर क़ानून भी बने किन्तु वे इतने क्षीण हैं कि जातिवाद का कुछ बिगड़ता ही नहीं है। आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि यदि आपको जाति और देश में किसी एक को चुनने के लिए कहा जाये तो आप किसे चुनेंगे? जब तक देश इन जातियों से बड़ा नहीं बन जाता तब तक ये बुराई हमारे लोकतंत्र, हमारी न्याय व्यवस्था,  विधायिका,  हमारी कार्यपालिका सभी पर भारी पड़ती रहेगी। देश को मजबूत बनाना है तो जातियों को समूल नष्ट करना ही होगा। ये काम आज की पीढ़ी करेगी या आने वाली पीढ़ी,  ये मैं कैसे बता सकता हूँ? (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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