सतीश जोशी
रोज शाम को 4:00 बजे से रात 9:00 बजे तक भारत के विभिन्न चैनलों में जो बहस होती है उस बहस के दौरान जिस भाषा और जिस अमर्यादित आचरण का प्रदर्शन होता है वह आज की राजनीति के घटियापन को ही उजागर करता है। पार्टियों के प्रवक्ता अपनी पार्टी में प्रतिष्ठा और साख बचाने के लिए सार्वजनिक रूप से चैनलों पर आकर सार्वजनिक जीवन की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा रहे हैं। टीवी चैनल भी टीआरपी की भूख और अंधी दौड़ मे यह सब होने दे रहे हैं। सोचते हैं कि हम जितना जोर से चीखेंगे और जितनी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करेंगे और जितनी अश्लीलता पेश करेंगे, उतनी प्रतिष्ठा उनकी पार्टी के भीतर बढ़ेगी। यह सायंकालीन चीख, स्तरहीन संवाद बंंद होना चाहिए। कोई नियम कायदे बनेंं, आचार संहिता तय हो या फिर कानूनन बंद हो, लेकिन यह अभद्रता रुकनी चाहिए, राजीव त्यागी के अवसान से यह तो सीखा ही जा सकता है।
प्रवक्ताओं का प्रशिक्षण
पार्टियां भी अपने प्रवक्ताओं को शायद सार्वजनिक रूप से टीवी चैनलों पर किस भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए, उनका आचरण कैसा हो, वह मर्यादा में रहकर अपनी बात को कहें और तथ्यों से परे जाकर कोई बात न रखे, ऐसा प्रशिक्षण नहीं देती है क्या? पार्टियों में प्रशिक्षण की परंपरा है, यह सब जानते हैं। यदि प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है तो राजनीतिक दलों को इस बारे में सोचना चाहिए। उन्हें अपने प्रवक्ताओं को प्रशिक्षित करना चाहिए ।
हालांकि नियुक्त किए जाने वाले या तय किए जाने वाले प्रवक्ता जो पार्टी द्वारा चयन किए जाते हैं उनको देश के सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक इतिहास, सामयिक सवालों पर तार्किक बहस कैसे करनी, इसका पता होता है। पार्टी के द्वारा उठाए गए कदम और विभिन्न पार्टियों द्वारा समय-समय पर लिए गए फैसले के सामान्य ज्ञान की अपेक्षा उनसे होती है। उनसे यह भी अपेक्षा होती है कि देश में जो ज्वलंत मुद्दे चल रहे हैं, देश सार्वजनिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों से जूझ रहा है उन मुद्दों पर उनकी पार्टी का स्टैंड क्या है, विचारधारा क्या है, सब पता होता है तो फिर चीखने, कोसने, व्यक्तिगत वार करने की जरूरत क्यों पड़ जाती है?
तर्कों की झोली
अक्सर देखा गया है कि जब उनकी झोली तर्कों से खाली रहती है, जिस विषय पर बहस होनी है उसकी तैयारी करके नहीं आते हैं तब वह प्रवक्ताओं के निजी जीवन पर प्रहार करते हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं पर ऐसे आक्षेप लगाते हैं जो सार्वजनिक रूप से जनता के बीच टीवी चैनलों के जरिए नहीं कहे जाने चाहिए। चाय चौपाल और चौपाटी पर होने वाली चर्चाएं कुछ लोगों के बीच होती हैं वहां आपके तर्क-कुतर्क लोगो के सार्वजनिक जीवन में आदर्श स्थापना या मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार करने के खतरे नहीं होते हैं।
जबकि आप टीवी चैनल पर कोई बात कहते हैं, तर्क प्रस्तुत करते हैं, अपनी पार्टी के स्टैंड को रखते समय दूसरी पार्टी के नेताओं और उनके प्रवक्ताओं पर निजी हमले करते हैं तो उससे समाज में भी बहस करने और चिन्तन करने और मंथन करने का स्तर गिरता है। लोग कभी-कभी पार्टी जिस पर वह विश्वास करते हैं और उनके प्रवक्ताओं की बात को सच मानकर वैसा ही वैचारिक मंथन सार्वजनिक जीवन में करने लगते हैं। जिससे ऐसे प्रवक्ता सामाजिक जागरण लाने की बजाय सामाजिक विकृति फैलाते लगते हैं। टीवी चैनल भी इन बहसोंं के जरिये विकृत समाज बना रहे है, लोगों की सोच, मंथन का स्तर गिरा रहे हैं।
इसलिए होते हैं असहज
कभी कुतर्कों का सहारा लेकर इतनी जोर-जोर से बहस होती है कि उससे प्रवक्ताओं का मानसिक संतुलन और आपसी व्यवहार और आचरण इस स्तर तक चला जाता है कि शायद वह कुछ पलों और कुछ समय के लिए अपने आप को अस्वस्थ पाते होंगे? क्योंकि उनके भीतर का अंतर्द्वंद्व, उनकी रक्त वाहिनी में रक्त संचार तेजी से प्रवाहित करता ही होगा। इसी वजह से उनका स्वास्थ्य खराब होने की भी संभावना रहती है।
एक शानदार प्रवक्ता अपनी पार्टी के लिए, तथ्यों के आधार पर तर्कपूर्वक बातचीत करने वाला और सलीके से अपनी बात को कहने वाला व्यक्ति 1 घंटे की राजनीतिक बहस के बाद ह्रदयाघात का शिकार हुआ और हमने राजनीतिक जीवन से एक सार्थक और सामाजिक सद्भाव पूर्ण बहस करने वालेे प्रवक्ता राजीव त्यागी को खो दिया। व्यक्ति किस पार्टी का है यह मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि वह व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में तर्क के साथ अपनी तैयारी के साथ प्रतिदिन बहस करता दिखाई देता था।
बौद्धिक चिंतन करने वालों के लिए यह बहुत बड़ा नुकसान है। आगे से राजनीतिक दल अपने प्रवक्ताओं को टीवी चैनलों पर कैसा आचरण करना चाहिए, इस दृष्टि से या इसके मद्देनजर जरूर चिंतन मनन करेंगे। यदि वे ऐसा करते हैं तो राजीव त्यागी को अलविदा कहते हुए उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।