संगति का अर्थ है साथ। तन मन से साथ। संगति का बहुत बड़ा प्रभाव किसी के भी जीवन पर पड़ता है। दो पक्के दोस्त हैं। एक में शराब, सिगरेट और जुआ खेलने की बुरी लत है। दूसरे में ऐसी कोई बुराई नहीं है। लेकिन, फिर भी हैं दोनों अच्छे दोस्त। लंबे समय की संगति के उपरांत हो सकता है कि जिसमें बुराई नहीं है, वह उन बुराइयों को पकड़ ले। दूसरी संभावना यह भी है कि बुराई वाला दोस्त उसकी अच्छी संगति से सारी बुरी आदतों का त्याग कर दे।
अध्यात्म का सरल अर्थ है आत्मा के स्वभाव की अनुभूति में होना। यानि, आत्मा की संगति में होना। आत्मा का स्वभाव क्या है? आत्मा निर्दोष है। निर्लिप्त है। निर्विकल्प है। निर्विकार है। शुद्ध आनंद और शांति को अभिव्यक्त करने वाली है। इसके स्वभाव की अनुभूति में जब हम रहने लगते हैं, तो एक लंबे कालखंड के बाद उसके इन गुणों से हम जाने या अनजाने ही रूपांतरित हो रहे होते हैं। बहुत धीमी प्रक्रिया है, लेकिन भीतर यह घटित हो ही रहा होता है। जैसे किसी दोस्त की संगति का धीमे धीमे असर होता है।
आत्मा के स्वभाव की अनुभूति कर पाने का तरीका है ‘ध्यान’। यह संकल्प का मार्ग है। बाह्य आवरणों को छोड़ समस्त इंद्रियों का रुख अपने भीतर की ओर करने का मार्ग है। ध्यान के प्रथम चरण में हम भीतर उतरने में, भीतर से कनेक्ट होने में सक्षम हो पाते हैं। इसमें कुछ वर्ष भी लग सकते हैं। दूसरे चरण में भीतर बैठे आत्मा की संगति और उसके सामीप्य से मिलने वाले आनंद और शांति को अनुभव करने लगते हैं। अधिकतर योगी यहीं अटक जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है। लेकिन यहीं चूक हो जाती है।
आत्मरस का अनुभव तो उन्हें मिल जाता है, लेकिन रूपांतरण की प्रक्रिया का श्रीगणेश नहीं हो पाता है। बड़े बड़े ध्यान योगियों के अनेक किस्से प्रचलित हैं, जब वर्षों की घोर साधना के बाद भी, किसी घटना से क्रोध में आकर वे शाप दे दिया करते थे। इसलिए ध्यान योगियों के लिए आवश्यक है कि आत्मा की अनुभूति को अंतिम लक्ष्य न मानें।
तीसरे चरण में हमारी चित्त की वृत्तियों को देखकर उनमें यथासंभव परिवर्तन करने का संकल्प लेकर प्रयास शुरू करते हैं। यह बहुत लंबी और धीमी प्रक्रिया भी हो सकती है। चौथे चरण में हमारा स्थूल शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी आत्मस्वरुप जैसे शुद्ध और निर्दोष हो जाते हैं। यह परमात्मा जैसा होना ही हो जाता है। इस स्थिति में पहुंचने के बाद हमारी दृष्टि, प्राणिमात्र (सभी जीव जंतुओं, पशु-पक्षियों, पेड़-वनस्पतियों) को उनके स्थूल शरीर से नहीं, अपितु उनके भीतर विद्यमान आत्मा के रूप में पहचानने लगती है। फिर, मुझमें और किसी भी अन्य वस्तु में कोई भेद नहीं रह जाता। सारे भेद समाप्त जब होते हैं, तब सम्यक दृष्टि का विकास होता है। तब नैसर्गिक प्रेम का भाव विकसित होता है।
लंबे समय तक लगातार इस साधना में संलग्न रहने से न सिर्फ स्पष्टता का अविर्भाव होता है, बल्कि हम जीवन के समस्त आयामों को उन कोणों से देखने, सुनने और समझने में सक्षम बन सकते हैं, जो बिना इस साधना के संभव नहीं। बिना किसी तकनीक के हजारों वर्ष पूर्व योगियों को खगोल शास्त्र की जानकारी या घटनाओं का पूर्वाभास हो जाना इसका प्रमाण है।
भक्ति भी संगति का ही रूप है। परमात्मा की संगति, जिसमें पराकाष्ठा तक पहुंचने पर चौबीस घंटे व्यक्ति ईश्वर के बारे में ही विचारवान रहता है। यह समर्पण का मार्ग है, संकल्प का नहीं। इसमें मान्यता अधिक है। उदाहरण के लिए, मैं कृष्ण को मानता हूं। वे तो सोलह कलाओं से युक्त थे। वे प्रेम की पराकाष्ठा को भी अभिव्यक्त करते हैं, कूटनीति को भी, और राजनीति को भी। वे नेतृत्व करने में भी क्षमतावान हैं और पथ प्रदर्शक भी हैं।
उनके कौन से गुण से मैं प्रभावित हूं, या उनके कौन से गुण को मैं धारण करना चाहता हूं, यह स्पष्टता होनी चाहिए। यदि मैं बिना किसी भाव के केवल अंधभक्ति से उनकी पूजा कर रहा हूं, तो शायद कोई रूपांतरण मेरे जीवन में घटित होने वाला नहीं। मैं स्वयं को क्षुद्र (निम्न स्तर का) मानते हुए उनकी कितनी ही भक्ति करता रहूं, क्षुद्र ही रहूंगा। भक्ति मार्ग में लीन मनुष्य के लिए भी आवश्यक है कि वह अपने भीतर के भावों में, अपनी वृत्तियों में बदलाव का आकलन करता रहे।
कई लोग ईश्वर के अंधभक्त होते हैं। संतों की या मंदिर में जिस तरह से वे समर्पित भाव से पूजा अर्चना करते हैं, वह वाकई किसी के लिए प्रेरणादायी हो सकता है। लेकिन, अधिकतर मामलों में उनमें सम्यक दृष्टि का विकास नहीं हो पाता। स्वयं के धर्म, पंथ या संप्रदाय को लेकर उनकी कट्टरता और अन्य धर्मों के प्रति उनकी हेय या द्वेषभरी दृष्टि उन्हें एक अच्छा और सच्चा मानव बनने में बाधक बनी रहती है। वे जीवनभर भक्ति के इस अंधमार्ग पर चलते रहें, उनकी चित्त की वृत्तियों से कषायों के आवरण हट जाएं, इसमें बहुत संदेह है। हां, यह द्वेष दिन प्रतिदिन और बढ़ता ही चला जाता है।
मार्ग चाहे कोई हो, स्वयं में परिवर्तन हो रहा है या नहीं यह महत्वपूर्ण है। चाहे इसकी प्रक्रिया धीमी हो, लेकिन दृष्टिगोचर होनी चाहिए। जितने भी महापुरुष हुए, वे एक लंबी साधना के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचे। बाद में उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर मानव जाति को एक सोच दी। किसी ने प्रेम का संदेश दिया, तो किसी ने सेवा को सर्वथा ऊंचा माना। किसी ने प्रेम और सेवा के भावों को ही राग माना और उन्हें भी बंधन का कारण बताया।
प्रेम और सेवा के मार्ग पर चलने वालों ने भी पहले वह दृष्टि विकसित की, जिससे सम्पूर्ण जीव जगत में उन्हें परमात्मा का ही दर्शन होने लगा। इसके उपरांत नैसर्गिक प्रेम या सेवा का अर्थ परमात्मा से प्रेम और परमात्मा की सेवा से ही है। सबमें अपने ही आत्मस्वरुप को देखने की दृष्टि उत्पन्न हुए बिना इसकी पराकाष्ठा तक नहीं पहुंचा जा सकता। प्रेम, दया, सहानुभूति, करुणा यह सब स्वयं पर जबरदस्ती आरोपित नहीं किए जा सकते। न यह पढ़-लिख और सुन कर सीखे जा सकते हैं।
धर्म के सारे मार्ग मनुष्य की श्रेष्ठता को अभिव्यक्त करने के माध्यम हैं। कोरी मान्यताएं या जाग्रति के अभाव से की गई अन्य साधनाओं से बहुत विशेष लाभ होने वाला नहीं। जीवन बीत जाता है, लेकिन कुछ भी बदलता नहीं। हम सभी अध्यात्म को इस व्यावहारिक सोच के साथ जीवन में स्थापित कर पाएं, तो बहुत बेहतर होगा!
(सोशल मीडिया से साभार)