तुलसी के बहाने भक्ति आंदोलन की ओर देखें

अरुण कुमार त्रिपाठी

आज तुलसी जयंती है। जब से संघ परिवार की शक्ति बढ़ी है तबसे वह तुलसी जयंती को जोरशोर से मनाने में लग गया है। विशेष कर शैक्षणिक संस्थानों में तुलसी पर कुछ उसी तरह से समारोह आयोजित किए जा रहे हैं जिस तरह सरदार पटेल को कृत्रिम तरीके से राजनीतिक कार्यक्रमों के केंद्र में लाया गया है। अपने राजनीतिक कार्यक्रमों के तहत सक्रिय इस परिवार के एकांगी बौद्धिकों ने तुलसी को कबीर के बरअक्स वैसे ही खड़ा करने की कोशिश की है जैसे उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष पटेल को खड़ा करना चाहा है।

यह एक फर्जी किस्म का द्वंद्व है जो उसी तरह तुलसी का अपमान है जैसे ये लोग नेहरू और पटेल को लड़ा कर उन दोनों का अपमान करना चाहते हैं। तुलसी को कबीर से लड़ाकर और फिर पूरे भक्तिकाल से काटकर उसी तरह से नहीं समझा जा सकता जिस तरह से नेहरू और पटेल को स्वाधीनता संग्राम और गांधी से अलग करके नहीं देखा जा सकता। बल्कि हमारे स्वाधीनता संग्राम और आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी भक्ति आंदोलन से काटकर नहीं देखा जा सकता। भक्ति आंदोलन था तो हमारा स्वाधीनता संग्राम हुआ और स्वाधीनता संग्राम हुआ तो भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई।

लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और देश के जाने माने संस्कृति और कला समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़ तुलसी की अद्भुत व्याख्या करते थे। वे उसी तरह तुलसी का मानवीकरण करते थे जिस तरह तुलसी ने ईश्वर का अवतार कहे जाने वाले अलौकिक पुरुष राम का मानवीय रूप प्रस्तुत किया था। वे तुलसी के जीवन और काव्य में मौजूद श्रृंगारिकता का वर्णन करते हुए कहते थे कि जनक वाटिका में पहली बार जब राम ने सीता को देखा तो तुलसी के मानस में अद्भुत चौपाई फूट पड़ी। वह चौपाई है- कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि।। मानहुं मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा विश्व विजय करि लीन्हीं।।

इसमें संगीत-श्रृंगार और लौकिकता भरी हुई है। वे तुलसी के उस भजन का भी उल्लेख करते थे जिसमें राम के बाल्यरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है- ठुमुकि चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां, धाय माय गोद लेत दशरथ की रनियां। उठत गिरत अटपटाय, चलत भूमि लटपटाय, लटकत लटकनियां। यह तुलसी का वात्सल्य वर्णन है जो सूरदास को भी मात देता है। लेकिन कक्कड़ साहेब यहीं नहीं रुकते थे। वे ‘हनुमान बाहुक’ में तुलसी की हनुमान जी से की गई उस प्रार्थना का वर्णन भी करते हैं जहां पर वे शरीर की भयंकर पीड़ा से कराह रहे हैं।

इतना ही नहीं जब तमाम तरह की प्रार्थना और जंत्र मंत्र और टोटका करने के बाद भी उनकी पीड़ा नहीं शांत होती तो वे अपने इष्टदेव को ही ललकारते हैं। वे चुनौती देते हुए कहते हैं कि आपसे अगर मेरी पीड़ा ठीक नहीं हो सकती तो साफ साफ बता दो मैं शांत होकर बैठ जाऊंगा। ईश्वर के साथ जोड़कर प्रस्तुत की जाने वाली लोकजीवन की यही विविध छटाएं तुलसी को एक लोकवादी कवि बनाती हैं और उन्हें भक्ति आंदोलन के तमाम कवियों से ज्यादा लोकप्रिय।

इसलिए जो लोग विश्वविद्यालयों में तुलसी जयंती इस शिकायत के साथ मना रहे हैं कि पिछली सरकारों ने सेक्यूलर विचारों के चक्कर में तुलसी की उपेक्षा की है वे दरअसल तुलसी को समझते ही नहीं। वे तुलसी का राजनीतिक उपयोग करना चाहते हैं और तुलसी पर उन्हें लोकप्रिय बनाने का अहसान लाद रहे हैं।

प्रसिद्ध आलोचक और रचनाकार प्रोफेसर विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी पुस्तक `लोकवादी तुलसीदास’ में लिखते हैं कि तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि- यथार्थ की विषमता से देश को उबारने की छटपटाहट उनकी कविता में है। देशप्रेम इस विषमता की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसलिए तुलसी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से रहित राम राज्य का स्वप्न निर्मित करते हैं। यही उनकी कविता की नैतिकता और प्रगतिशीलता है।

अपने आराध्य और ईश्वर के विविध रूप माने जाने वाले हनुमान, राम और शंकर को चुनौती देने वाली तुलसी की कविता गहरी आस्था के टूटने और सहज मानवीय अनास्था की पुकार है। इसका प्रमाण `हनुमान बाहुक’ की निम्न पंक्तियां प्रस्तुत करती हैं-

कहौं हनुमान सों सुजान रामराय सों,
कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग दोष गुन दोषमई।
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये।।
माया जीव काल के करम के सुभाय के,
करैया राम वेद कहैं सांची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सो बुझैये मोहि
हौंहु रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये।।

यहां तुलसी मान रहे हैं कि भक्ति से चमत्कार हो यह जरूरी नहीं है। कर्मफल प्रधान है। यह तुलसी की वही पुकार है जो अपने जीवन के आखिरी क्षणों में महात्मा गांधी भी राम नाम जपते हुए कर रहे हैं। जिस तरह तुलसी अपने शरीर की पीड़ा दूर न होते देख ईश्वर की शक्तियों में अविश्वास व्यक्त करते हैं उसी प्रकार भारत विभाजन की भयानक हिंसा से पीड़ित महात्मा गांधी भी राम नाम जपते हुए अपने कर्मों पर संदेह व्यक्त करते हैं।

भारतीय वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था के बारे में तुलसी के जीवन और रचना में जबरदस्त अंतर्विरोध है। सैद्धांतिक रूप में वे वर्णाश्रम धर्म के कट्टर समर्थक हैं और शूद्रों के लिए असहिष्णु हैं। यहां पर तुलसी कबीर और रैदास की तरह से शूद्रों की पीड़ा को समझने से चूक जाते हैं। इसलिए यहां तुलसी की कविताओं की उदार व्याख्या करना और उसमें खींचतान करना बेमतलब है। तुलसी साहित्य का वह हिस्सा आज के संदर्भ में त्याज्य है और अगर उसे बनाए रखने पर ज्यादा जोर दिया जाएगा तो तुलसी के प्रति समाज के शूद्र वर्ग में अरुचि उत्पन्न होगी। इसी अरुचि के कारण ही डॉ. धर्मवीर जैसे आलोचक अपनी पुस्तक `हिंदी की आत्मा’ में  बाकायदा यह प्रस्ताव रखते हैं कि तुलसी के साहित्य को पाठ्यक्रम से हटा देना चाहिए।

लेकिन अब जरा दूसरे मोर्चे पर तुलसी का जीवन और उनके साहित्य का समावेशी तत्व देखिए।`गौतम चंद्रिका’ के अनुसार तुलसीदास की मित्रमंडली में बनारस के विभिन्न जातियों के लोग थे। उनमें अहीर, तंबोली, नाई, केवट, चमार, गोंड, धाढ़ी, जोलाहा सब थे। इस बारे में निम्न पंक्तियों को प्रमाण माना जा सकता हैः-

पंडित कासी नाथ महामति। समरसिंह रजपूत ग्रामपति।।
गंगाराम परम सतसंगी। कवि कैलास कवित उमंगी।।
उज्जेनी संगीत प्रवीना। भजन गोप हरिबंस कुलीना।।
नगर सेठ जैराम उजागर । तंबूली सियराम गुनागर।।
नाथू नापित केवट रामू। अरु रैदास खेलावत नामू।।
बोधी गोड हरी हरवाहू। धाढ़ी मीर जसन जोलहाहू।।
कहां कहां लगि नाम गनाई। कासी विस्वनाथ प्रभुताई।।
कहां कहां लगि नाम गनाई। कासी विस्वनाथ प्रभुताई।।
तुलसी सतसंगी बहुतेरे। सुकृत सकल राम के चेरे।।

इसी तरह तुलसी के जीवन के बारे में कहा जाता है कि डोम कवि नाभादास और अब्दुर्रहीम खानखाना से उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। भक्तमाल की टीका में प्रियादास ने लिखा है कि तुलसी ने ब्राह्मण की हत्या करने वाले एक व्यक्ति को घर में बुलाकर भोजन कराया और उसे प्रसाद देकर पाप मुक्त कर दिया। इस पर ब्राह्मणों की सभा हुई और तुलसी ने उनके आदेश को मानने से इनकार कर दिया।

यह वही तुलसी हैं जो भेदभाव को मानने वालों को चुनौती देते हुए कहते है- धूत कहो अवधूत कहो रजपूत कहो कोऊ। काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।।
……….
मांग कै खैबो मसीत में सोइबो लैबे के एक न दैबे के दोऊ।।

`गुसाईं चरित’ में तुलसी की एक और कथा उल्लेखनीय है। उन्होंने ब्राह्मण कवि केशवदास का स्वागत करने से इनकार कर दिया था। यहां तुलसी का वह कथन भी उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने कहा है- सबते कठिन जाति अपमाना। उन्होंने यह भी लिखा है- नहिं दरिद्र सम दुख जग मांही। या आगि बड़वाग्नि से बड़ी है आगि पेट की।

लेकिन गृहस्थ जीवन को त्याग कर मांगने खाने वाले तुलसीदास भी लौकिक जीवन के महत्व को खारिज नहीं करते। उन्होंने लिखा है- पल्लवित फूलत नवल नित संसार विटप नमायहे। यानी दुनिया एक वृक्ष है जिसे नित पल्लवित और फलप्रद होते हुए नवीन होते जाना है। ऐसे ही उन्होंने लिखा है कि तुलसी बहुत भलो लागत जग। या तुलसी मैं मोर गए बिन जिय सुख कबहूं न पावैं।

इसीलिए प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर शंभुनाथ लिखते हैं कि एक तो भक्तिकाल को संत और भक्त कवियों में बांटना उचित नहीं है। उसके अलावा उन्हें पुनरुत्थानवादी और कर्मकांडी बताना भी अनुचित है। ‘’यदि भक्तों ने कठोर धार्मिक नियमों को तोड़कर अपने अपने ढंग से उच्च सार्वभौमिक मूल्यों की प्रस्तावना की है तो कहा जा सकता है कि वे सेक्यूलर थे। सभी भक्त कवि मूल्यप्रवण और नवोन्मेषी थे। वे पुनरुत्थानवादी नहीं थे। उनका ईश्वर पोथी में कैद, छुआछूत से डरने वाला और कर्मकांड में सीमित न था। उनकी भक्ति ने सांप्रदायिक किलेबंदी तोड़ी। वह एक आध्यात्मिक क्रांति थी जिसने उन्नीसवीं सदी में आकर नवजागरण का रूप लिया।‘’

इसलिए आज जयंती के मौके पर तुलसीदास के स्मरण का महत्व उनके लोकवादी चरित्र को याद करने में है और उसी के साथ पूरे भक्तिकाल में प्रवाहित हो रही प्रेम और करुणा की उस धारा का स्मरण करने में, जो उससे पहले या तो संस्कृत के कठिन पदों में बंद थी या फिर रीतिकाल के छंदों में कैद थी। और वह अलौकिक रूप रखती थी। भक्तिकाल में काव्य की जो वेगमयी धारा प्रवाहित हुई वह स्वर्ग से गंगाअवतरण जैसी थी जिसने भारत की जाति और संप्रदाय के विभाजनकारी धरातल की परवाह न करते हुए सबको प्रवाहित करते हुए तर कर दिया। वही धारा आधुनिक लोकतंत्र का आधार है और यही तुलसीदास और भक्तिकाल का महत्व है।

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